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भारतीय राजव्यवस्था

शंकरी प्रसाद मामला और पहला संशोधन अधिनियम

  • 13 Feb 2025
  • 11 min read

प्रिलिम्स के लिये:

पहला संशोधन अधिनियम, 1951, संपत्ति का अधिकार, नौवीं अनुसूची, ज़मींदारी प्रथा

मेन्स के लिये:

भारत में भूमि सुधार, मौलिक अधिकार बनाम संवैधानिक संशोधन

स्रोत: IE

चर्चा में क्यों? 

शंकरी प्रसाद सिंह देव बनाम भारत संघ, 1951 मामला भारतीय सांविधानिक विधि में एक महत्त्वपूर्ण क्षण था, जिसमें प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 को चुनौती दी गई थी, जिससे संपत्ति के अधिकार को सीमित किया गया था।

प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 क्या था?

  • प्रमुख प्रावधान:
    • नौवीं अनुसूची: भारतीय संविधान की नौवीं अनुसूची, जिसे प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा पेश किया गया था, में वे कानून सूचीबद्ध हैं जिन्हें न्यायालयों में चुनौती नहीं दी जा सकती, उनकी न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती, जिनमें विशेष रूप से भूमि सुधार कानून शामिल हैं। मूल रूप से अनुसूची में 13 कानून जोड़े गए थे।
    • भूमि सुधारों का संरक्षण: संविधान में अनुच्छेद 31A और 31B जोड़े गए, जिससे भूमि सुधार कानूनों, विशेष रूप से संपदा अधिग्रहण से संबंधित कानूनों को न्यायिक समीक्षा से सुरक्षा मिली। 
      • अनुच्छेद 31A: इसके अनुसार भूमि सुधार से संबंधित किसी भी कानून को मौलिक अधिकारों, विशेषकर संपत्ति के अधिकार (अनुच्छेद 31) का उल्लंघन करने के कारण रद्द नहीं किया जा सकता।
      • अनुच्छेद 31B: यह सुनिश्चित करता है कि नौवीं अनुसूची में निर्दिष्ट कानून, भले ही उनका मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष हो, विधिमान्य और प्रवर्तित रहेंगे।
    • अन्य परिवर्तन: अनुच्छेद 19 के तहत प्रदत्त वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध। सामाजिक और शैक्षिक उत्थान के लिये विधि निर्माण की अनुमति प्रदान कर जाति-आधारित आरक्षण का सुदृढ़ीकरण किया गया।
  • संशोधन की आवश्यकता: यह भारत के स्वतंत्रता के बाद के भूमि सुधार प्रयासों के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण था, जिसका उद्देश्य बड़े भूस्वामियों (ज़मींदारों) की शक्ति को सीमित करना और किसानों को भूमि का पुनर्वितरण करना था।

शंकरी प्रसाद सिंह देव बनाम भारत संघ मामला, 1951 क्या था?

  • मामले की पृष्ठभूमि: पश्चिम बंगाल के एक ज़मींदार शंकरी प्रसाद सिंह देव ने प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 को चुनौती दी, जिसके माध्यम से संपत्ति के अधिकार को सीमित किया गया था।
    • पहले संशोधन में सरकार द्वारा ज़मींदारों को बिना मुआवज़ा दिये उनकी भूमि का अधिग्रहण करने के अधिकार का प्रावधान किया गया था, जो मूल संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों {अनुच्छेद 19(1)(f) और अनुच्छेद 31} के विपरीत था।
  • सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय: सर्वोच्च न्यायालय की पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने प्रथम संशोधन को मान्य ठहराते हुए सरकार के पक्ष में निर्णय सुनाया।
    • न्यायालय ने सामान्य विधि (जिसमें मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता) और संवैधानिक संशोधन (मौलिक अधिकारों में परिवर्तन किया जा सकता है) के बीच अंतर स्पष्ट किया।
    • अनुच्छेद 13(2) के अनुसार किसी भी “विधि” से मौलिक अधिकारों को नहीं छीना जा सकता। न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि संवैधानिक संशोधन सामान्य “विधि” नहीं हैं, इसलिये उन्हें इस प्रतिबंध से छूट दी गई है।
  • महत्त्व: सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से भूमि सुधार संबंधी विधिक बाधाएँ समाप्त हुईं, जिससे राज्यों को ज़मींदारी का उन्मूलन करने की अनुमति मिली।
  • निहितार्थ:
    • विधिक चुनौतियों की निरंतरता: सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य, 1964 में, न्यायालय ने शंकरी प्रसाद मामले के निर्णय को बरकरार रखा लेकिन दो न्यायाधीशों ने मौलिक अधिकारों के संसोधनीय होने पर सवाल उठाए।
      • आई.सी. गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य, 1967 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपना रुख बदलते हुए निर्णय सुनाया कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती
      • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, 1973 में न्यायाधीशों की पीठ ने शंकरी प्रसाद मामले के निर्णय को खारिज़ कर दिया और आधारभूत संरचना सिद्धांत पेश किया।
      • निर्णय में स्पष्ट किया गया कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन वह मौलिक अधिकारों सहित इसके "आधारभूत संरचना" में बदलाव नहीं कर सकती।
      • हालाँकि, संपत्ति के अधिकार को आधारभूत संरचना का हिस्सा नहीं माना गया, जिससे भूमि सुधारों की विधिमान्यता बनी रही।
    • विधिक अधिकार के रूप में संपत्ति का अधिकार: वर्ष 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम के माध्यम से अनुच्छेद 19(1)(f) और अनुच्छेद 31 को निरस्त कर संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया। 
      • इसके बाद संविधान के अनुच्छेद 300A (विधि के प्राधिकार के बिना व्यक्तियों को संपत्ति से वंचित न किया जाना) के तहत संपत्ति के अधिकार को विधिक अधिकार बना दिया गया।

ज़मींदारी प्रथा क्या थी?

  • परिचय:  ज़मींदारी प्रथा को ब्रिटिश शासन के तहत वर्ष 1793 में लॉर्ड कार्नवालिस द्वारा स्थायी बंदोबस्त के माध्यम से संस्थागत रूप दिया गया था, जिससे भूमि पर ज़मींदारों का नियंत्रण स्थापित हुआ और उन्हें किसानों से लगान वसूलने का अधिकार मिला। 
    • सांविधिक रीतियों से, अंग्रेज़ों ने रैक-रेंटिंग (अत्यधिक किराया/लगान) जैसे प्रावधानों के माध्यम से ज़मींदारी को एक शोषक विधि का रूप दिया, जिससे आर्थिक असमानता बढ़ती गई। 
      • भू-राजस्व का हिस्सा निर्धारित कर दिया गया, जिसमें सरकार को 10/11 भाग तथा शेष हिस्सा जमींदारों को मिलता था, जिससे किसान वर्ग की निर्धनता बढ़ती गई।
  • उन्मूलन के कारण: इस प्रणाली के कारण सीमित व्यक्तियों का भूमि पर स्वामित्त्व हो गया, जिससे एक व्यापक किसान वर्ग भूमिहीन हो गया। इस प्रथा के उन्मूलन का उद्देश्य किसानों को भूमि का पुनर्वितरण करना और सामंती शोषण को कम करना था।
    • संविधान के अनुच्छेद 39(B) और (C) में संसाधनों के समान वितरण पर ज़ोर दिया गया है। यह उन्मूलन भारत को समाजवाद प्रधान अर्थव्यवस्था बनाने के लक्ष्य के अनुरूप था।
    • बड़ी संपदाओं को छोटे-छोटे भू-जोतों में विभाजित करने से उत्पादकता में सुधार होने की उम्मीद थी।
  • आंशिक सफलता: पश्चिम बंगाल और केरल जैसे कुछ राज्यों के अतिरिक्त, बेनामी लेनदेन की अनुमति की खामियों के कारण ज़मींदारी उन्मूलन सामंती भूमि एकाधिकार समाप्त करने विफल रहा। 

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. भूमि सुधारों का विकास और संपत्ति के अधिकार की विधिक स्थिति में परिवर्तन ने भारत में समाजवादी अर्थव्यवस्था की ओर बदलाव को किस प्रकार प्रतिबिंबित किया?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारत में संपत्ति के अधिकार की क्या स्थिति है? (2021)

(a) केवल नागरिकों के लिये उपलब्ध विधिक अधिकार
(b) किसी भी व्यक्ति के लिये उपलब्ध विधिक अधिकार
(c) केवल नागरिकों के लिये उपलब्ध मौलिक अधिकार
(d) न तो मौलिक अधिकार और न ही कानूनी अधिकार

उत्तर: (b)


प्रश्न. भारत के संविधान के उद्देश्यों में से एक के रूप में 'आर्थिक न्याय' का किसमें उपबंध किया गया है? (2013) 

(a) उद्देशिका और मूल अधिकार 
(b) उद्देशिका और राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व
(c) मूल अधिकार और राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व
(d) उपर्युक्त में से किसी में नहीं 

उत्तर: (b)


मेन्स:

प्रश्न. कोहिलो केस में क्या अभिनिर्धारित किया गया था? इस संदर्भ में क्या आप कह सकते हैं कि न्यायिक पुनर्विलोकन संविधान के बुनियादी अभिलक्षणों में प्रमुख महत्त्व का है? (2016) 

प्रश्न. कृषि विकास में भूमि सुधारों की भूमिका पर चर्चा कीजिये। भारत में भूमि सुधारों की सफलता के लिये उत्तरदायी कारकों की पहचान कीजिये। (2016)

प्रश्न. भूमि अर्जन, पुनरुद्धार और पुनर्वासन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 पहली जनवरी, 2014 से प्रभावी हो गया है। इस अधिनियम के लागू होने से कौन-से महत्त्वपूर्ण मुद्दों का समाधान निकलेगा? भारत में औद्योगीकरण और कृषि पर इसके क्या परिणाम होंगे? (2014)

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