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विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1869 की धारा 10ए

  • 14 Dec 2022
  • 6 min read

प्रिलिम्स के लिये:

मौलिक अधिकार, धर्मनिरपेक्षता, मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा

मेन्स के लिये:

समान विवाह संहिता का महत्त्व, न्यायिक उपचार का अधिकार।

चर्चा में क्यों?

विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1869 की धारा 10ए के तहत आपसी सहमति से तलाक की याचिका दायर करने के लिये एक वर्ष या उससे अधिक की अवधि की शर्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है और केरल उच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक बताया है।

  • केरल उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को सुझाव दिया कि विवाह संबंधी विवादों में पति-पत्नी के सामान्य कल्याण और भलाई को बढ़ावा देने के लिये भारत में एक समान विवाह संहिता होनी चाहिये।

न्यायलय ने विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1869 की धारा 10ए को क्यों रद्द किया?

  • समान परिस्थितियों में अलग-अलग समुदायों के साथ अलग-अलग व्यवहार के रूप में धारा 10ए भेदभावपूर्ण है।
  • भले ही विधायिका का उद्देश्य अच्छे लक्ष्यों को प्राप्त करना हो, यह उन व्यक्तियों के हितों की प्रभावी ढंग से रक्षा किये बिना उनकी स्वतंत्रता नहीं छीन सकती है जिनके न्याय मांगने संबंधी अधिकार खतरे में हैं।
  • वैधानिक प्रावधानों द्वारा प्रभावित किये गए न्यायिक उपचार का अधिकार मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हैं।
    • न्यायिक उपचार जीवन के अधिकार के अंतर्गत आता है।

विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1869 की धारा 10ए का स्रोत:

  • एक वर्ष की अवधि के निर्धारण संबंधी जानकारी  विशेष विवाह अधिनियम की धारा 28(1), हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13बी (1) और पारसी विवाह और विवाह-विच्छेद अधिनियम की धारा 32बी (1) में मिलती है।
  • पहले भारतीय विवाह-विच्छेद अधिनियम की धारा 10ए में तलाक के आवेदन के लिये 2 वर्ष की प्रतीक्षा अवधि अनिवार्य थी।
  • सौम्या एन थॉमस बनाम द यूनियन ऑफ इंडिया (2010) व अन्य मामले में केरल उच्च न्यायालय ने ही कहा कि धारा 10ए के तहत 2 वर्ष की न्यूनतम अनिवार्य अवधि एकपक्षीय और दमनकारी है अतः इसे एक वर्ष की अवधि के रूप में ही माना जाना चाहिये।
  • मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा के अनुच्छेद 8 में यह घोषणा की गई है कि संविधान अथवा कानून द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले कृत्यों के लिये सक्षम राष्ट्रीय न्यायाधिकरणों द्वारा सभी के लिये प्रभावी उपचार का अधिकार है।

मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा:

  • मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा (Universal Declaration of Human Rights- UDHR) मानव अधिकारों के इतिहास में एक मील का पत्थर है।
  • दिसंबर 1948 में पेरिस में मानवाधिकार दिवस के दौरान संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा इसकी  घोषणा की गई।
  • प्रत्येक वर्ष 10 दिसंबर को दुनिया भर में मानवाधिकार दिवस मनाया जाता है।
  • यह पहली बार मौलिक मानवाधिकारों को सार्वभौमिक रूप से संरक्षित करने के लिये निर्धारित करता है।
  • प्रत्येक व्यक्ति इस घोषणा में निर्धारित सभी अधिकारों और स्वतंत्रताओं का बिना किसी प्रकार के भेदभाव ( जैसे जाति, रंग, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीतिक या अन्य राय, राष्ट्रीय या सामाजिक मूल, संपत्ति, जन्म या अन्य स्थिति) के हकदार है।
  • सभी मनुष्य गरिमा और अधिकारों के संदर्भ में स्वतंत्र एवं समान पैदा होते हैं। वे तर्क और विवेक से संपन्न हैं तथा उन्हें भाईचारे की भावना से एक दूसरे के प्रति कार्य करना चाहिये।

निष्कर्ष:

  • तलाक के  संदर्भ में आवेदन करने के लिये अनिवार्य एक वर्ष की अवधि के पीछे मूल उद्देश्य मूल रूप से जोड़ों को एक-दूसरे और विभिन्न पारिवारिक संस्कृति को समझने के लिये उचित समय प्रदान करना है। यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक वैवाहिक मामले में यह दृष्टिकोण एक ही परिणाम के साथ काम करता है इसलिये विषाक्त वैवाहिक संबंधों से छुटकारा पाने के लिये कुछ अन्य उपचारात्मक उपाय होने चाहिये।
  •  केरल उच्च न्यायालय मूल रूप से उन जोड़ों के गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार को संरक्षित करने का प्रयास कर रहा है जो अपने विवाहित जीवन में गंभीर कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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