सीलबंद कवर न्यायशास्त्र | 17 Mar 2022
प्रिलिम्स के लिये:सर्वोच्च न्यायालय, भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI), सीलबंद कवर न्यायशास्त्र। मेन्स के लिये:न्यायपालिका, भारतीय संविधान, मौलिक अधिकार, मुहरबंद कवर न्यायशास्त्र। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में बिहार सरकार के खिलाफ एक आपराधिक अपील पर सुनवाई करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) ने एक वकील को अदालत में 'सीलबंद कवर रिपोर्ट' प्रस्तुत करने के लिये कहा है।
- बीते कुछ दिनों में विभिन्न न्यायालयों द्वारा ‘सीलबंद कवर न्यायशास्त्र’ का प्रायः इस्तेमाल किया गया है, उदाहरण के लिये राफेल फाइटर जेट समझौता (2018), बीसीसीआई सुधार मामला, भीमा कोरेगाँव मामला (2018) आदि।
‘सीलबंद कवर न्यायशास्त्र’ क्या है?
- यह सर्वोच्च न्यायालय और कभी-कभी निचली अदालतों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली एक प्रथा है, जिसके तहत सरकारी एजेंसियों से ‘सीलबंद लिफाफों’ में जानकारी मांगी जाती है और यह स्वीकार किया जाता है कि केवल न्यायाधीश ही इस सूचना को प्राप्त कर सकते हैं।
- यद्यपि कोई विशिष्ट कानून ‘सीलबंद कवर’ के सिद्धांत को परिभाषित नहीं करता है, सर्वोच्च न्यायालय इसे सर्वोच्च न्यायालय के नियमों के आदेश XIII के नियम 7 और 1872 के भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 123 से उपयोग करने की शक्ति प्राप्त करता है।
- सर्वोच्च न्यायालय के आदेश XIII के नियम 7:
- नियम के अनुसार, यदि मुख्य न्यायाधीश या अदालत कुछ सूचनाओं को सीलबंद लिफाफे में रखने का निर्देश देते हैं या इसे गोपनीय प्रकृति का मानते हैं, तो किसी भी पक्ष को ऐसी जानकारी की सामग्री तक पहुँच की अनुमति नहीं दी जाएगी, सिवाय इसके कि मुख्य न्यायाधीश स्वयं आदेश दे कि विपरीत पक्ष को इसे एक्सेस करने की अनुमति दी जाए।
- इसमें यह भी उल्लेख किया गया है कि सूचना को गोपनीय रखा जा सकता है यदि इसके प्रकाशन को जनता के हित में नहीं माना जाता है।
- वर्ष 1872 के भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 123:
- इस अधिनियम के तहत राज्य के मामलों से संबंधित आधिकारिक अप्रकाशित दस्तावेज़ों की रक्षा की जाती है और एक सरकारी अधिकारी को ऐसे दस्तावेज़ों का खुलासा करने के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता है।
- अन्य उदाहरण जहाँ गोपनीयता या विश्वास के तहत जानकारी मांगी जा सकती है, इसका प्रकाशन जाँच में बाधा डालता है जैसे- विवरण (Details) जो पुलिस केस डायरी का हिस्सा है।
- सर्वोच्च न्यायालय के आदेश XIII के नियम 7:
सीलबंद कवर न्यायशास्त्र से संबंधित मुद्दे:
- पारदर्शिता और जवाबदेही के सिद्धांतों के खिलाफ:
- यह भारतीय न्याय प्रणाली की पारदर्शिता और जवाबदेही के सिद्धांतों के अनुकूल नहीं है, क्योंकि यह एक खुली अदालत के विचार के विरुद्ध है, जहाँ निर्णय सार्वजनिक जाँच के अधीन हो सकते हैं।
- न्याय-निर्णयन की किसी भी प्रक्रिया में विशेष रूप से जिसमें मौलिक अधिकार शामिल हैं, इसके विवादों से संबंधित साक्ष्य " दोनों पक्षों के साथ साझा किये जाने चाहिये।"
- दलीलों का दायरा कम करना:
- अदालत के फैसलों में स्वेच्छाचारिता के दायरे को बढ़ाना, क्योंकि न्यायाधीशों को अपने फैसलों के लिये तर्क देना होता है, जो तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक की वे गोपनीय रूप से प्रस्तुत की गई जानकारी पर आधारित न हों।
- आगे इसका विरोध किया जाता है कि जब कैमरे के समक्ष सुनवाई जैसे मौजूदा प्रावधान पहले से ही संवेदनशील जानकारी को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करते हैं तो क्या राज्य को गोपनीयता के साथ जानकारी प्रस्तुत करने का ऐसा विशेषाधिकार दिया जाना चाहिये।
- अदालत के फैसलों में स्वेच्छाचारिता के दायरे को बढ़ाना, क्योंकि न्यायाधीशों को अपने फैसलों के लिये तर्क देना होता है, जो तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक की वे गोपनीय रूप से प्रस्तुत की गई जानकारी पर आधारित न हों।
- निष्पक्ष परीक्षण और न्याय-निर्णयन में बाधा:
- यह भी तर्क दिया जाता है कि आरोपी पक्षों को ऐसे दस्तावेज़ो तक पहुँच प्रदान नहीं करना उनके निष्पक्ष परीक्षण और न्याय-निर्णयन के मार्ग में बाधा डालता है।
- मनमानी प्रकृति:
- सीलबंद कवर अलग-अलग न्यायाधीशों पर निर्भर होते हैं जो सामान्य अभ्यास के बजाय किसी विशेष मामले में एक बिंदु की पुष्टि करना चाहते हैं। यह अभ्यास को तदर्थ और मनमाना बनाता है।
सीलबंद कवर न्यायशास्त्र पर सर्वोच्च न्यायालय का दृष्टिकोण:
- मॉडर्न डेंटल कॉलेज बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2016) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इज़रायल के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, अहरोन बराक द्वारा प्रस्तावित आनुपातिकता के परीक्षण को अपनाया, जिसके अनुसार "संवैधानिक अधिकार की एक सीमा संवैधानिक रूप से अनुमेय होगी यदि:
- इसे एक उचित उद्देश्य के लिये नामित किया गया है।
- इस तरह की सीमा को लागू करने के लिये किये गए उपाय तर्कसंगत रूप से उस उद्देश्य की पूर्ति से जुड़े हों।
- किये गए उपाय इसलिये आवश्यक हैं क्योंकि ऐसा कोई वैकल्पिक उपाय मौजूद नहीं है जो समान रूप से उसी उद्देश्य को कम सीमा के साथ प्राप्त कर सके।
- उचित उद्देश्य को प्राप्त करने के महत्त्व और संवैधानिक अधिकार की सीमा निर्धारित करने के सामाजिक महत्त्व के बीच एक उचित संबंध (‘proportionality stricto sensu’ or ‘balancing’) हो।
- के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017) मामले में इस बात को दोहराया गया था।
- पी. गोपालकृष्णन बनाम केरल राज्य के मामले में 2019 के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि आरोपी द्वारा दस्तावेज़ों का खुलासा करना संवैधानिक रूप से अनिवार्य है, भले ही जाँच जारी हो क्योंकि दस्तावेज़ों से मामले की जाँच में सफलता मिल सकती है।
- वर्ष 2019 में INX मीडिया मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रवर्तन निदेशालय (ED) द्वारा सीलबंद लिफाफे में जमा किये गए दस्तावेज़ों के आधार पर पूर्व केंद्रीय मंत्री को जमानत देने से इनकार करने के अपने फैसले को आधार बनाने के लिये दिल्ली उच्च न्यायालय की आलोचना की थी।
आगे की राह
- न्यायिक समीक्षा की प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह कार्यपालिका को जवाबदेह ठहराती है।
- कार्यपालिका को अपने कार्यों का दृढ़ता से जवाब देना चाहिये- विशेष रूप से तब जब मौलिक अधिकारों, जैसे कि स्वतंत्रत अभिव्यक्ति में कटौती की जाती है। भारत का संविधान कार्यपालिका को ऐसे अधिकारों का उल्लंघन करने वाले मनमाने आदेश पारित करने की छूट नहीं देता है।
- एक न्यायालय जो किसी भी कार्यकारी कार्रवाई के दौरान मूकदर्शक बना रहता है, वह अपरिष्कृत रूप से लोकतांत्रिक विनाश को दर्शाता है।
- जब किसी कार्रवाई पर मौलिक अधिकारों को कम करने का आरोप लगाया जाता है, तो न्यायालय आनुपातिकता की दृष्टि से कार्रवाई की वैधता की जाँच करने के लिये बाध्य होता है।