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भारतीय राजनीति

अवमानना का आधार

  • 13 Jan 2021
  • 9 min read

चर्चा में क्यों?

कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका (PIL) पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है, जो कि न्यायालय की अवमानना अधिनियम (Contempt of Courts Act), 1971 के प्रावधान की संवैधानिक वैधता को चुनौती देती है, जिसके अंतर्गत न्यायलय की ‘निंदा अथवा निंदा के प्रयास’ को न्यायालय की अवमानना माना गया है।

  • लोक जनहित याचिका (PIL) सार्वजनिक हित की रक्षा के लिये (जनता के लाभ के लिये कोई भी कार्य) किसी व्यक्ति द्वारा की गई कानूनी कार्रवाई से संबंधित है।

प्रमुख बिंदु:

अवमानना का आधार:

  • न्यायिक अवमानना अधिनियम, 1971 (Contempt of Court Act, 1971) के अनुसार, न्यायालय की अवमानना का अर्थ किसी न्यायालय की गरिमा तथा उसके अधिकारों के प्रति अनादर प्रदर्शित करना है।
    • 'न्यायालय की अवमानना' शब्द को संविधान द्वारा परिभाषित नहीं किया गया है।
    • हालाँकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 129 ने सर्वोच्च न्यायालय को स्वयं की अवमानना की स्थिति में दंड देने की शक्ति प्रदान की है। अनुच्छेद 215 ने उच्च न्यायालयों को समान शक्ति प्रदान की है।
  • न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 में नागरिक और आपराधिक दोनों प्रकार की अवमानना को परिभाषित किया गया है।
    • नागरिक अवमानना: न्यायालय के किसी भी निर्णय, डिक्री, निर्देश, आदेश, रिट अथवा अन्य किसी प्रक्रिया या किसी न्यायालय को दिये गए उपकरण के उल्लंघन के प्रति अवज्ञा को नागरिक अवमानना कहते हैं।
    • आपराधिक अवमानना: न्यायिक अवमानना अधिनियम, 1971 की धारा 2 ( C) के अंतर्गत न्यायालय की आपराधिक अवमानना का अर्थ न्यायालय से जुड़ी किसी ऐसी बात के प्रकाशन से है, जो लिखित, मौखिक, चिह्नित , चित्रित या किसी अन्य तरीके से न्यायालय की अवमानना करती हो।
  • अधिनियम की धारा 5 में कहा गया है कि किसी मामले के अंतिम निर्णय की योग्यता पर "निष्पक्ष आलोचना" या "निष्पक्ष टिप्पणी" अवमानना नहीं होगी। परंतु "निष्पक्ष" क्या है, इसका निर्धारण न्यायाधीशों की व्याख्या पर निर्भर है।

याचिकाकर्त्ताओं के तर्क:

  • अधिनियम की धारा 2(c)(i), अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत मुक्त भाषण और अभिव्यक्ति की गारंटी के अधिकार का उल्लंघन करती है जिस पर अनुच्छेद 19(2) के द्वारा युक्ति-युक्त निर्बंधन नहीं लगाया गया है।
  • याचिकाकर्त्ताओं द्वारा अधिनियम की धारा 2(c)(ii) और धारा 2(c)(iii) की संवैधानिक वैधता को चुनौती नहीं दी गयी है, उनके द्वारा तर्क दिया कि न्यायालयों को प्राकृतिक न्याय तथा निष्पक्षता के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए आपराधिक अवमानना की कार्रवाई हेतु नियम और दिशा-निर्देशों तैयार करने चाहिये।
  • याचिकाकर्त्ताओं का कहना है कि प्रायः न्यायाधीशों के स्वयं के मामलों में अवमानना देखी जा सकती है, जिससे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन होता है और सार्वजनिक विश्वास प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता है।

प्रमुख मुद्दे:

व्यक्तिपरकता:

  • 'निंदा' (Scandalising) शब्द व्यक्ति-निष्ठ है और संबंधित व्यक्ति की धारणा पर निर्भर करता है। जब तक न्यायालय की निंदा करने वाले ’शब्द' (कानून की किताब में) मौजूद हैं, तब तक सत्ता की कार्यवाही एकतरफा होगी।
  • न्यायाधीशों की यह आदत हो गयी है कि वह अपने चरित्र पर व्यक्तिगत हमलों को न्यायालय की अवमानना मानते हैं।
    • प्रायः न्यायाधीश यह भूल जाते हैं कि अवमानना का कानून न्यायाधीशों की रक्षा के लिये नहीं बल्कि न्यायपालिका की रक्षा हेतु है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन:

  • एक लोकतांत्रिक गणराज्य में एक मज़बूत न्यायपालिका उस देश की जनता की शक्ति है। इसे संविधान में निर्धारित लक्ष्यों जैसे- जनता के लिये सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय को सुनिश्चित करने तथा उनके मौलिक अधिकारों को बनाए रखने के लिये काम करना चाहिये।
  • इन उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए अगर न्यायपालिका काम नहीं कर रही है तो एक व्यक्ति को इसे इंगित करने की स्वतंत्रता होनी चाहिये और इसे आपराधिक अवमानना नहीं कहा जा सकता है क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है।

‘न्यायपालिका की निंदा’ को न्यायालय की अवमानना के रूप में न मानने का यूनाइटेड किंगडम का निर्णय:

  • भारत में न्यायालय की अवमानना से संबंधित कानून ब्रिटिश कानूनों से लिये गए हैं, किंतु यूनाइटेड किंगडम ने स्वयं वर्ष 2013 में यह कहते हुए ‘न्यायपालिका की निंदा’ को न्यायालय की अवमानना के रूप में न मानने का निर्णय किया था कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरुद्ध है, जबकि ‘न्यायालय की अवमानना’ के अन्य रूपों जैसे न्यायालय की कार्यवाही में व्यवधान अथवा हस्तक्षेप आदि को बरकरार रखा था।
  • ब्रिटेन द्वारा न्यायपालिका की निंदा को ‘न्यायालय की अवमानना’ के एक आधार के रूप में समाप्त करने का एक प्राथमिक कारण ‘रचनात्मक आलोचना’ को बढ़ावा देना है।
  • यह प्राकृतिक न्याय के मूल सिद्धांतों में से एक- ‘कोई भी व्यक्ति अपने स्वयं के मामले में न्यायाधीश नहीं हो सकता’, की अवहेलना करता है।
  • इस प्रकार न्यायालय स्वयं को अवमानना कार्यवाही के माध्यम से एक न्यायाधीश, न्याय पीठ और वधिक तीनों की शक्तियाँ प्रदान करता है, जिससे प्रायः विकृत परिणामों को बढ़ावा मिलता है।

आगे की राह: 

  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी मौलिक अधिकारों में सबसे अधिक मौलिक है जिस पर  कम-से-कम प्रतिबंध आरोपित होने चाहिये। न्यायालय की अवमानना का कानून केवल ऐसे प्रतिबंध आरोपित कर सकता है जो न्यायिक संस्थाओं की वैधता को बनाए रखने हेतु आवश्यक हैं। कानून को न्यायाधीशों को संरक्षण देने के बजाए न्यायपालिका की रक्षा करने की आवश्यकता है।
  • उचित जाँच के बिना जारी किया गया अवमानना नोटिस उन लोगों के लिये कठिनाई उत्पन्न कर सकता है जो सार्वजनिक जीवन जुड़े हुए  हैं। स्वतंत्रता का नियम होना चाहिये जिस पर  प्रतिबंध को एक अपवाद के रूप में शामिल किया जाना चाहिये।
  • वर्तमान में यह अधिक महत्त्वपूर्ण है कि न्यायालय स्वयं पर लगाए गए आरोपों पर चिंता व्यक्त करते हुए उन्हें गंभीरता से ले बजाए इसके कि आरोप लगाने वाले व्यक्ति को अवमानना की कार्रवाई के खतरे से डराया जाए, साथ ही अवमानना की कार्रवाई को और अधिक पारदर्शी बनाए जाने की अभी आवश्यकता है।

स्रोत: द हिंदू

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