मृत्युदंड पर सर्वोच्च न्यायालय की सलाह | 10 Feb 2022
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चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने सात वर्ष की बच्ची के साथ बलात्कार और हत्या के दोषी एक व्यक्ति की मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया।
- यह निर्णय मृत्युदंड के विरोध के कारणों हेतु एक महत्त्वपूर्ण मिसाल बन सकता है।
वर्तमान मामले पर SC का फैसला:
- सर्वोच्च न्यायलय ने आजीवन कारावास की सज़ा के आदेश को बिना किसी छूट के संशोधित करते हुए 30 साल की सज़ा में बदल दिया।
- सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रायल जजों को सलाह दी कि उन्हें केवल अपराध की भयानक प्रकृति और समाज पर इसके हानिकारक प्रभाव के कारण उन्हें आजीवन कारावास के कारकों पर समान रूप से विचार करना चाहिये।
- SC ने दंडशास्त्र (Penology) के सिद्धांतों के विकास का उल्लेख किया और कहा कि "मानव जीवन के संरक्षण" के सिद्धांत को समायोजित करने के लिये दंडशास्त्र आवश्यक है।
- पेनोलॉजी अपराध विज्ञान का एक उप-घटक है जो आपराधिक गतिविधियों को दबाने के अपने प्रयासों में विभिन्न समाजों के दर्शन और व्यवहार से संबंधित है।
- SC ने कहा, मृत्युदंड एक निवारक और "मामलों में उचित सज़ा हेतु समाज के आह्वान की प्रतिक्रिया" के रूप में कार्य करता है।
- दंड का सिद्धांत "समाज के अन्य दायित्वों को संतुलित करने के लिये विकसित किया गया है, जिसमें मानव जीवन को संरक्षण प्रदान करना और समाज की रक्षा एवं सेवा करना शामिल है।
मृत्युदंड:
- मौत की सजा, जिसे मृत्युदंड भी कहा जाता है, किसी अपराधी को एक आपराधिक कृत्य के लिये अदालत द्वारा मिलने वाला सर्वोच्च दंड है। आमतौर पर यह हत्या, बलात्कार, देशद्रोह आदि अत्यंत गंभीर मामलों में दिया जाता है।
- मृत्युदंड को सबसे खराब अपराधों के लिये सबसे उपयुक्त सज़ा एवं प्रभावी निवारक के रूप में देखा जाता है। हालाँकि इसका विरोध करने वाले इसे अमानवीय मानते हैं। इस प्रकार मौत की सज़ा की नैतिकता बहस का विषय है और दुनिया भर में कई मानवाधिकारवादी व समाजवादी लंबे समय से मौत की सज़ा को खत्म करने की मांग कर रहे हैं।
मृत्युदंड के पक्ष में तर्क:
- प्रतिशोध:: प्रतिशोध के प्रमुख सिद्धांतों में से एक यह है कि लोगों को उनके अपराध की गंभीरता के अनुपात में वह सज़ा मिलनी चाहिये जिसके वे हकदार हैं।
- इस तर्क में कहा गया है कि हत्या करने वाला व्यक्ति किसी के जीवन जीने का अधिकार छीन लेता है जिसके कारण उसके जीवन का अधिकार भी समाप्त हो जाता है। इस प्रकार मृत्युदंड एक प्रकार का प्रतिकार होता है।
- निवारण: मृत्युदंड को अक्सर इस तर्क के साथ उचित ठहराया जाता है कि सज़ायाफ्ता हत्यारों को मृत्युदंड देकर हम हत्यारों को लोगों को मारने से रोक सकते हैं।
- अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि मृत्युदंड पीड़ितों के परिवारों को संतुष्टि प्रदान करने का कार्य करता है।
मृत्युदंड के विपक्ष में तर्क:
- निरोध अप्रभावी: सांख्यिकीय साक्ष्य इस बात की पुष्टि नहीं करते हैं कि यह निवारक प्रक्रिया कार्य करती है। ऐसे कोई भी प्रमाण नहीं हैं जिनसे ये निर्धारित किया जा सके कि मृत्युदंड से बलात्कार और हत्या जैसे अपराधों की संख्या में कमी आई है।
- वर्ष 2013 से बलात्कार के मामलों में मृत्यु निर्धारित की गई है (आईपीसी की धारा 376 A), फिर भी आमतौर पर बलात्कार की घटनाएँ सामने आती रहती हैं और वास्तव में बलात्कार की क्रूरता कई गुना बढ़ गई है। यह हर किसी को यह सोचने के लिये मज़बूर करता है कि अपराध के लिये मृत्युदंड एक प्रभावी निवारक है।
- बेगुनाह को सज़ा मिलने की आशंका: मृत्युदंड के खिलाफ सबसे आम तर्क यह है कि न्याय प्रणाली में गलतियों या खामियों के कारण देर-सबेर निर्दोष लोग मारे जा सकते हैं।
- एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार, जब तक मानवीय न्याय दोषपूर्ण रहेगा, तब तक निर्दोषों को फांँसी देने के जोखिम को समाप्त नहीं किया जा सकता है।
- अधिकांश विकसित देशों में सज़ा के रूप में मृत्युदंड को समाप्त कर दिया गया है।
- पुनर्वास का अभाव: मृत्युदंड कैदी का पुनर्वास नहीं करता है जिससे वह समाज में वापसी कर सके।
भारतीय संदर्भ में मृत्युदंड की स्थिति:
- 1955 के आपराधिक प्रक्रिया (संशोधन) अधिनियम (Cr PC) से पहले भारत में मृत्युदंड नियम और आजीवन कारावास एक अपवाद था।
- इसके अलावा न्यायालय मृत्युदंड के स्थान पर हल्का दंड देने हेतु स्पष्टीकरण देने को बाध्य था।
- वर्ष 1955 के संशोधन के बाद न्यायालय मृत्युदंड या आजीवन कारावास देने के लिये स्वतंत्र था।
- सीआरपीसी, 1973 की धारा 354 (3) के अनुसार, न्यायालयों को अधिकतम दंड देने हेतु लिखित में कारण बताना आवश्यक है।
- वर्तमान में स्थिति इसके विपरीत है जिसमें गंभीर अपराध के लिये आजीवन कारावास की सज़ा एक नियम है और मृत्युदंड की सज़ा एक अपवाद।
- इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र द्वारा मृत्युदंड के खिलाफ वैश्विक रोक के बावजूद भारत में मृत्युदंड बरकरार है।
- भारत का दृष्टिकोण है कि निर्दयी, जान-बूझकर और नृशंस हत्या के दोषी अपराधियों को कम सज़ा देने से इस कानून की प्रभावशीलता कम हो जाएगी जिसका परिणाम न्याय का उपहास होगा।
- इस संदर्भ में वर्ष 1967 की विधि आयोग की 35वीं रिपोर्ट में मृत्युदंड को समाप्त करने के प्रस्ताव को खारिज़ कर दिया गया था।
- भारत में आधिकारिक आंँकड़ों के अनुसार, वर्ष 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से 720 लोगों को फांँसी हुई है जो कि अधीनस्थ न्यायालय द्वारा मौत की सज़ा पाने वाले लोगों का एक छोटा सा अंश है।
- अधिकांश मामलों में मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदल दिया गया था और कुछ मामलों में उच्च न्यायालयों द्वारा बरी कर दिया गया था।
मृत्युदंड पर सर्वोच्च न्यायालय के अन्य निर्णय
- जगमोहन सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य वाद (1973): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद-21 के अनुसार, जीवन से वंचित करना संवैधानिक रूप से अनुमेय है यदि यह कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार किया जाता है।
- इस प्रकार CrPC और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 के तहत कानूनी रूप से स्थापित प्रक्रियाओं के अनुसार, मुकदमे के बाद सुनाई गई मौत की सज़ा अनुच्छेद-21 के तहत असंवैधानिक नहीं है।
- राजेंद्र प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य वाद (1973): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यदि एक व्यक्ति का आपराधिक कृत्य योजनाबद्ध एवं खतरनाक तरीके से सामाजिक सुरक्षा को खतरे में डालता है, तो उसके मौलिक अधिकारों को समाप्त किया जा सकता है।
- बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य वाद (1980): सर्वोच्च न्यायालय ने 'दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों' की उक्ति को प्रतिपादित किया, जिसके अनुसार 'दुर्लभतम मामलों' को छोड़कर किसी भी अन्य मामले में मृत्युदंड नहीं दिया जाना चाहिये।
- ‘दुर्लभतम मामलों’ को निम्नलिखित आधार पर परिभाषित किया जा सकता है:
- जब हत्या बेहद क्रूर, हास्यास्पद, शैतानी, विद्रोही, या निंदनीय तरीके से की जाती है ताकि समुदाय में तीव्र और अत्यधिक आक्रोश पैदा हो।
- जब हत्या के पीछे का मकसद पूरी तरह से भ्रष्टता और क्रूरता है।
- ‘दुर्लभतम मामलों’ को निम्नलिखित आधार पर परिभाषित किया जा सकता है:
- माछी सिंह बनाम पंजाब राज्य वाद (1983): सर्वोच्च न्यायालय ने किसी भी मामले को ‘दुर्लभतम मामले’ की श्रेणी में शामिल करने अथवा न करने हेतु अपने विचार प्रस्तुत किये।
आगे की राह
- केवल सज़ा बढ़ाने के बजाय, महिलाओं एवं बच्चों के खिलाफ अपराधों से निपटने के लिये व्यापक सामाजिक सुधारों, निरंतर शासन संबंधी प्रयासों और जाँच एवं रिपोर्टिंग तंत्र को मज़बूत करने की आवश्यकता है।