भारतीय इतिहास
संत कबीर दास जयंती
- 25 Jun 2021
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प्रिलिम्स के लिये:संत कबीर दास के संदर्भ में मेन्स के लिये:भक्ति आंदोलन के संदर्भ में और संबंधित व्यक्तित्व |
चर्चा में क्यों?
24 जून, 2021 को संत कबीर दास (Sant Kabir Das Jayanti) की जयंती मनाई गई।
- कबीर दास जयंती हिंदू चंद्र कैलेंडर (Hindu Lunar Calendar) के अनुसार ज्येष्ठ पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है।
प्रमुख बिंदु:
परिचय:
- संत कबीर दास का जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में हुआ था। वह 15वीं शताब्दी के रहस्यवादी कवि, संत और समाज सुधारक तथा भक्ति आंदोलन के प्रस्तावक थे।
- कबीर की विरासत अभी भी ‘कबीर का पंथ’ (एक धार्मिक समुदाय जो उन्हें संस्थापक मानता है) नामक पंथ के माध्यम से चल रही है।
- शिक्षक: उनका प्रारंभिक जीवन एक मुस्लिम परिवार में बीता, परंतु वे अपने शिक्षक, हिंदू भक्ति नेता रामानंद से काफी प्रभावित थे।
- साहित्य: कबीर दास के लेखन का भक्ति आंदोलन पर बहुत प्रभाव पड़ा तथा इसमें कबीर ग्रंथावली, अनुराग सागर, बीजक और सखी ग्रंथ जैसे शीर्षक शामिल हैं।
- उनके छंद सिख धर्म के ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में पाए जाते हैं।
- उनके प्रमुख कार्यों का संकलन पाँचवें सिख गुरु, गुरु अर्जन देव द्वारा किया गया था।
- उन्होंने अपने दो-पंक्ति के दोहों के लिये सबसे अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की, जिन्हें 'कबीर के दोहे' के नाम से जाना जाता है।
- भाषा: कबीर की कृतियाँ हिंदी भाषा में लिखी गईं, जिन्हें समझना आसान था। लोगों को जागरूक करने के लिये वहअपने लेख दोहों के रूप में लिखते थे।
भक्ति आंदोलन:
- शुरुआत: आंदोलन की शुरुआत संभवत: 6वीं और 7वीं शताब्दी ईस्वी के आसपास तमिल क्षेत्र में हुई और अलवार (विष्णु के भक्त) तथा नयनार (शिव के भक्त), वैष्णव और शैव कवियों की कविताओं के माध्यम से आंदोलन ने काफी लोकप्रियता प्राप्त की।
- अलवार और नयनार अपने देवताओं की स्तुति में तमिल में भजन गाते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करते थे।
- नालयिर दिव्यप्रबंधम अलवारों की एक रचना है। इसे प्रायः तमिल वेद के रूप में वर्णित किया जाता है।
- वर्गीकरण: एक अलग स्तर पर धर्म के इतिहासकार प्रायः भक्ति परंपराओं को दो व्यापक श्रेणियों में वर्गीकृत करते हैं: सगुण (विशेषताओं या गुणों के साथ) और निर्गुण (विशेषताओं या गुणों के बिना)।
- सगुण में ऐसी परंपराएँ शामिल थीं जो शिव, विष्णु और उनके अवतार देवी या देवी के रूपों जैसे विशिष्ट देवताओं की पूजा पर केंद्रित थीं, जिन्हें प्रायः मानवशास्त्रीय रूपों में अवधारणाबद्ध किया जाता था।
- दूसरी ओर निर्गुण भक्ति भगवान के एक अमूर्त रूप की पूजा थी।
सामाजिक व्यवस्था:
- यह आंदोलन भारतीय उपमहाद्वीप के हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों द्वारा भगवान की पूजा से जुड़े कई संस्कारों तथा अनुष्ठानों के लिये उत्तरदायी था। उदाहरण के लिये एक हिंदू मंदिर में कीर्तन, एक दरगाह में कव्वाली (मुसलमानों द्वारा) तथा एक गुरुद्वारे में गुरबानी का गायन।
- वे प्रायः सभी सत्तावादी मठवासी व्यवस्था के विरोधी थे।
- उन्होंने समाज में सभी प्रकार सांप्रदायिक कट्टरता और जातिगत भेदभाव की भी कड़ी आलोचना की।
- उच्च और निम्न दोनों जातियों से आने वाले इन कवियों ने साहित्य का एक दुर्जेय (Formidable) निकाय बनाया जिसने खुद को लोकप्रिय कथाओं में मज़बूती से स्थापित किया।
- उन सभी ने सामाजिक जीवन में वास्तविक मानवीय आकांक्षाओं और सामाजिक संबंधों के क्षेत्र में धर्म की प्रासंगिकता का दावा किया।
- भक्ति कवियों ने ईश्वर के प्रति समर्पण पर ज़ोर दिया।
- आंदोलन की प्रमुख उपलब्धि मूर्ति पूजा का उन्मूलन था।
महिलाओं की भूमिका:
- अंडाल एक महिला अलवार थी और वह खुद को विष्णु की प्रेमिका के रूप में देखती थी।
- कराईकल अम्मैयार शिव की भक्त थीं और उन्होंने अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये कठोर तपस्या का मार्ग अपनाया। उनकी रचनाओं को नयनार परंपरा के भीतर संरक्षित किया गया है।
महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व:
- कन्नड़ क्षेत्र: इस क्षेत्र में आंदोलन 12वीं शताब्दी में बसवन्ना (1105-68) द्वारा शुरू किया गया था।
- महाराष्ट्र: महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन 13वीं सदी के अंत में शुरू हुआ। इसके समर्थकों को वारकरी कहा जाता था।
- इसके सबसे लोकप्रिय नामों में ज्ञानदेव (1275-96), नामदेव (1270-50) और तुकाराम (1608-50) थे।
- असम: श्रीमंत शंकरदेव एक वैष्णव संत थे जिनका जन्म 1449 ईस्वी में असम के नगांव ज़िले में हुआ था। उन्होंने नव-वैष्णव आंदोलन शुरू किया था।
- बंगाल: चैतन्य बंगाल के एक प्रसिद्ध संत और सुधारक थे जिन्होंने कृष्ण पंथ को लोकप्रिय बनाया।
- उत्तरी भारत: इस क्षेत्र में 13वीं से 17वीं शताब्दी तक बड़ी संख्या में कवि फले-फूले, ये सभी भक्ति आंदोलन के काफी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे।