चरागाह भूमि एवं पशुपालन | 06 Jun 2024

प्रिलिम्स के लिये:

संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम अभिसमय डेटा, मरुस्थलीकरण से निपटने के लिये  संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (UNCCD), भूमि क्षरण

मेन्स के लिये:

संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम अभिसमय के आँकड़े, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

हाल ही में संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम अभिसमय (UN Convention on Combating Desertification- UNCCD) की रिपोर्ट में चरागाहों एवं चरवाहों के बारे में कहा गया है कि भारत में लाखों चरवाहों को उनके अधिकारों की बेहतर मान्यता और बाज़ारों तक पहुँच की आवश्यकता है।

नोट:

  • चरागाह भूमि: चरागाह भूमि या रेंजलैंड विशाल प्राकृतिक परिदृश्य हैं जिनका उपयोग मुख्य रूप से पशुधन और वन्य जीवन को चराने के लिये किया जाता है। इनमें घास, झाड़ियाँ और खुले छत्र (Canopy) वाले पेड़ बहुतायत में होते हैं।
  • चरवाहे या पशुचारक: पशुचारक वे लोग हैं जो प्राकृतिक चरागाहों पर पशुधन पालते हैं। वे अक्सर खानाबदोश या अर्ध-खानाबदोश जीवन शैली जीते हैं, अपने झुंडों को मौसम के अनुसार ताज़े चरागाहों और जल स्रोतों तक पहुँचने के लिये ले जाते हैं।

संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम अभिसमय (UNCCD):

UNCCD रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष:

  • चरागाह भूमि की स्थिति:
    • चरागाह भूमि 80 मिलियन वर्ग किलोमीटर में विस्तृत है, जो पृथ्वी की सतह का लगभग 54% है, जो कि विश्व में सबसे बड़ा भू-आवरण उपयोग प्रकार है। इनमें से:
      • चरागाह भूमि का 78% लगभग शुष्क भूमि पर पाया जाता है, मुख्यतः उष्णकटिबंधीय और समशीतोष्ण अक्षांशों में।
      • विश्व भर में 12% संरक्षित चरागाह हैं।
      • इनमें से लगभग 40-45% भूमि क्षीण हो चुकी है, जिससे विश्व की खाद्य आपूर्ति के छठे भाग तथा ग्रह के कार्बन भण्डार के एक तिहाई भाग के लिये जोखिम उत्पन्न हो गया है।
      • चरागाह भूमि वैश्विक खाद्य उत्पादन का 16% तथा पालतू शाकाहारी जानवरों के लिये 70% चारे का उत्पादन करती है, जिनमें सबसे अधिक अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में होता है।
      • चरागाह भूमि का क्षरण: जलवायु परिवर्तन, जनसंख्या वृद्धि, भूमि उपयोग परिवर्तन और बढ़ती कृषि भूमि के कारण विश्व की लगभग आधी चरागाह भूमि क्षीण हो गई है।
    • भारत में थार रेगिस्तान से लेकर हिमालय के घास के मैदानों तक चरागाह भूमि, लगभग 1.21 मिलियन वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत है।
      • रिपोर्ट के अनुसार, भारत के 5% से भी कम घास के मैदान संरक्षित क्षेत्रों के अंतर्गत आते हैं। भारत में वर्ष 2005 तथा वर्ष 2015 के बीच कुल घास के मैदान का क्षेत्रफल 18 मिलियन हेक्टेयर से घटकर 12 मिलियन हेक्टेयर रह गया।
      • अनुमान है कि भारत के कुल भू-भाग का लगभग 40% भाग चरागाह के लिये उपयोग किया जाता है।

  • भारत में पशुपालकों की स्थिति और आर्थिक योगदान:
    • विश्व स्तर पर अनुमानतः 500 मिलियन पशुपालक पशुधन उत्पादन एवं संबद्ध व्यवसायों में संलग्न हैं।
    • भारत में लगभग 13 मिलियन पशुपालक हैं, जो गुज्जर, बकरवाल, रेबारी, रायका, कुरुबा और मालधारी सहित 46 समूहों में विभाजित हैं।
    • 2020 की रिपोर्ट "भारत में चरवाहों के लिये लेखांकन" के अनुसार, भारत में विश्व की पशुधन आबादी का 20% हिस्सा है और लगभग 77% पशुओं को चरवाहा प्रणालियों में पाला जाता है, जहाँ उन्हें या तो झुंड में रखा जाता है या सार्वजनिक भूमि पर चरने की अनुमति दी जाती है।
    • पशुपालक, पशुपालन और दुग्ध उत्पादन के माध्यम से अर्थव्यवस्था में योगदान देते हैं।
    • पशुधन क्षेत्र राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में 4% और कृषि आधारित सकल घरेलू उत्पाद में कुल 26% का योगदान देता है।
    • रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि वन अधिकार अधिनियम, 2006 जैसे कानूनों ने देश के विभिन्न राज्यों में चरवाहों को चराई के अधिकार प्राप्त करने में सहायता की है। 
      • एक उल्लेखनीय सफलता यह थी कि उच्च न्यायालय के एक निर्णय के बाद वन गुज्जरों (एक अर्ध-खानाबदोश, इस्लामी समुदाय जो मुख्य रूप से उत्तरी भारत (उत्तराखंड), पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों में पाया जाता है) को उत्तराखंड के राजाजी राष्ट्रीय उद्यान में चराई का अधिकार तथा भूमि का मालिकाना हक प्राप्त हुआ।
    • भारत वर्तमान में विश्व का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक है, जो वैश्विक डेयरी उत्पादन में लगभग 23% का योगदान देता है। पशुपालन एवं डेयरी विभाग की रिपोर्ट के अनुसार, यह भैंस के मांस  उत्पादन में भी अग्रणी है, साथ ही यह भेड़ व बकरी के मांस का शीर्ष निर्यातक है तथा यहाँ पशुपालक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

पशुचारण क्या है?

  • परिचय:
    • संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (Food and Agriculture Organization- FAO) के अनुसार, पशुपालन पशुधन उत्पादन पर आधारित आजीविका प्रणाली है।
    • इसमें पशुपालन, डेयरी, मांस, ऊन और चमड़ा उत्पादन शामिल हैं।
  • विशेषताएँ:
    • गतिशीलता: चरवाहे अक्सर मौसमी चरागाहों और जल स्रोतों तक पहुँचने के लिये अपने झुंड के साथ विचरण करते हैं। यह गतिशीलता चरागाह संसाधनों की स्थिरता को प्रबंधित करने में सहायता करती है और किसी एक क्षेत्र में अतिचारण को समाप्त करने के लिये कार्य करती है।
      • उदाहरण: अरब क्षेत्र की बेडौइन जनजातियाँ पानी और हरे चरागाहों की तलाश में अपने झुंडों के साथ विचरण करती हैं।
    • पशुपालन: पशुधन की देखभाल और प्रबंधन पशुपालक जीवन का मुख्य हिस्सा है। इसमें प्रजनन, भोजन, शिकारियों और बीमारियों से पशुओं की सुरक्षा शामिल है।
    • सांस्कृतिक परंपराएँ: पशुपालक समुदायों में अक्सर समृद्ध सांस्कृतिक परंपराएँ होती हैं, जिनमें विशिष्ट सामाजिक संरचनाएँ, अनुष्ठान, पशुपालन तथा पर्यावरण से संबंधित विविध प्रणालियाँ शामिल होती हैं।
    • आर्थिक प्रणाली: पशुधन चरवाहों के लिये एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक संपत्ति है, जो भोजन (माँस, दुग्ध ), पशु आधारित सामग्री (ऊन, खाल) और व्यापारिक सामान प्रदान करता है। कुछ चरवाहे समुदाय व्यापार या पूरक कृषि में भी संलग्न हैं।
    • पर्यावरण के प्रति अनुकूलन: पशुपालकों की परंपरा अपने पर्यावरण के प्रति काफी अनुकूलित होती हैं तथा आवागमन और संसाधनों के उपयोग के संबंध में निर्णय लेने के लिये पारंपरिक पारिस्थितिक ज्ञान का उपयोग करती हैं।
  • पशुपालक समुदायों के उदाहरण:
    • गुज्जर (जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश), रायका/रेबारी (राजस्थान और गुजरात), गद्दी (हिमाचल प्रदेश), बकरवाल (जम्मू और कश्मीर), मालधारी (गुजरात), धनगर (महाराष्ट्र) आदि।
    • पूर्वी अफ्रीका के मासाई: केन्या और तंज़ानिया में अपने मवेशी चराने के लिये प्रसिद्ध।
    • मंगोलियन खानाबदोश: मंगोलियन मैदानों में घोड़ों, भेड़ों, बकरियों, ऊँटों और याक के अपने झुंड के लिये प्रसिद्ध।
    • उत्तरी यूरोप के सामी: ये पारंपरिक रूप से नॉर्वे, स्वीडन, फिनलैंड और रूस में रेन्डियर हेरिंग शामिल है।

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भारत में पशुपालकों के सामने क्या समस्याएँ हैं?

  • चरवाहे की भूमि के अधिकारों को मान्यता न मिलना: कई चरवाहे समुदाय पारंपरिक रूप से पीढ़ियों से आम चरागाह की भूमि का इस्तेमाल करते आए हैं। हालाँकि इन भूमि पर अक्सर स्पष्ट स्वामित्व या आधिकारिक मान्यता का अभाव होता है।
    • इससे पशुपालकों के लिये अपने चरागाह मार्गों तक पहुँच सुनिश्चित करना तथा उनकी रक्षा करना कठिन हो जाता है, जिससे अन्य भूमि उपयोगकर्त्ताओं के साथ टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
  • जनसंख्या वृद्धि और भूमि विखंडन: भारत की बढ़ती जनसंख्या भूमि संसाधनों पर दबाव डाल रही है। जो भूमि कभी चरागाह के लिये उपलब्ध थी, उसे अब कृषि या विकास परियोजनाओं हेतु उपयोग किया जा रहा है।
    • चरागाह भूमि का यह विखंडन पारंपरिक प्रवास मार्गों को बाधित करता है और पशुओं के लिये भोजन की उपलब्धता को सीमित करता है।
  • आजीविका संबंधी खतरे: ऊपर वर्णित मुद्दे चरागाह भूमि तक पहुँच को सीमित करते हैं, जिससे पशुपालकों की पशुधन को प्रभावी ढंग से पालने की क्षमता प्रभावित होती है।
    • इसके अतिरिक्त वाणिज्यिक फार्मों से प्रतिस्पर्द्धा और पशुधन उत्पादों की अस्थिर बाज़ार कीमतों के कारण उनके लिये सभ्य जीवनयापन (Decent Living) करना कठिन हो सकता है।
  • गतिहीन अवस्था: सरकारी नीतियाँ कभी-कभी चरवाहों को एक ही स्थान पर बसने के लिये प्रोत्साहित करती हैं। हालाँकि, यह सामाजिक सेवाओं तक पहुँच प्रदान करने के लिये लाभकारी लग सकता है, लेकिन पारंपरिक प्रवासी पैटर्न को बाधित कर सकता है और उनके पशुधन प्रबंधन की दक्षता को कम कर सकता है।
  • पशु चिकित्सा और दवाइयों तक पहुँच का अभाव: कई पशुपालक समुदायों, विशेषकर खानाबदोश समुदायों के पास, अपने पशुओं के लिये पशु चिकित्सा देखभाल और आवश्यक दवाओं तक सीमित पहुँच उपलब्ध है।
    • इससे पशुओं में बीमारियाँ और मृत्यु हो सकती है तथा उनकी आज़ीविका पर भी बुरा प्रभाव पड़ सकता है।
  • विपणन के लिये बिचौलियों पर निर्भरता: चरवाहों के पास अक्सर बाज़ारों तक सीधी पहुँच नहीं होती और वे अपने पशुधन उत्पादों को बेचने के लिये बिचौलियों पर निर्भर रहते हैं। इससे शोषण हो सकता है, क्योंकि बिचौलिये उत्पादों की न्यूनतम कीमत की पेशकश कर सकते हैं, जिससे चरवाहों को बहुत कम लाभ होता है।

UNCCD रिपोर्ट की प्रमुख सिफारिशें क्या हैं?

  • जलवायु-स्मार्ट प्रबंधन: जलवायु परिवर्तन से निपटने वाली रणनीतियों को चरागाह योजनाओं में एकीकृत करना। इससे अधिक कार्बन संग्रहण करने में सहायता मिलेगी और साथ ही यह भूमि भविष्य की चुनौतियों के प्रति अधिक प्रतिरोधी बनेगी।
  • चारागाहों की रक्षा करना: चरागाह भूमि, विशेष रूप से स्वदेशी लोगों के प्रबंधन के अंतर्गत आने वाली भूमि, को अन्य उपयोगों के लिये परिवर्तित करने पर रोक लगाना। इससे इन स्थानों पर जीवन की विशिष्ट विविधता बरकरार रहेगी।
  • उपयोग के माध्यम से संरक्षण: संरक्षित क्षेत्रों के अंतर्गत और बाह्य दोनों स्थानों पर चरागाहों को संरक्षित करने के लिये कार्यप्रणाली तैयार करना। इससे भूमि और उस पर निर्भर रहने वाले जानवरों दोनों को लाभ होता है, जिससे स्वस्थ एवं अधिक उत्पादक पशुधन उत्पादन होता है।
  • पशुचारण-आधारित समाधान: पारंपरिक चराई प्रथाओं और नई रणनीतियों का समर्थन करना जो जलवायु परिवर्तन, अतिचारण एवं अन्य खतरों के कारण चरागाहों को होने वाली हानि को न्यूनतम करे।
  • एक साथ कार्य करना: ऐसी लचीली प्रबंधन प्रणालियाँ और नीतियाँ विकसित करना जिनमें सभी शामिल हों। इससे स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाया जा सकेगा और यह सुनिश्चित हो सकेगा कि चरागाह भूमि पूरे समाज को लाभ प्रदान करती रहे।

और पढ़ें: NGT ने बन्नी घास के मैदानों में चरवाहों के अधिकारों को बरकरार रखा

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

चरवाही के महत्त्व पर चर्चा कीजिये। चरवाहे समुदायों के सामने आने वाली चुनौतियों पर प्रकाश डालें और स्थायी चरवाहे प्रथाओं को सुनिश्चित करते हुए इन चुनौतियों का समाधान करने के उपायों का सुझाव दीजिये। 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. राष्ट्रीय स्तर पर, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये कौन-सा मंत्रालय केंद्रक अभिकरण (नोडल एजेंसी) है? (2021)

(a) पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय
(b) पंचायती राज मंत्रालय
(c) ग्रामीण विकास मंत्रालय
(d) जनजातीय कार्य मंत्रालय

उत्तर: (d)


प्रश्न. निम्नालिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)

  1. भारतीय वन अधिनियम, 1927 में हाल में हुए संशोधन के अनुसार, वन निवासियों को वनक्षेत्रों में उगने वाले बाँस को काट गिराने का अधिकार है।
  2. अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारंपरिक बनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के अनुसार, बाँस एक गौण वनोपज है।
  3. अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006, वन निवासियों को गौण वनोपज के स्वामित्व की अनुमति देता है।

उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 3
(d) 1,2 और 3

उत्तर: (b)


प्रश्न. भारत के संविधान की किस अनुसूची के अधीन जनजातीय भूमि का, खनन के लिये निजी पक्षकारों को अंतरण अकृत और शून्य घोषित किया जा सकता है? (2019)

(a) तीसरी अनुसूची
(b) पाँचवीं अनुसूची
(c) नौवीं अनुसूची
(d) बारहवीं अनुसूची

उत्तर: (b)


मेन्स:

 प्रश्न. ग्रामीण क्षेत्रों में कृषीतर रोज़गार और आय का प्रबंध करने में पशुधन पालन की बड़ी संभाव्यता है। भारत में इस क्षेत्रक की प्रोन्नति करने के उपयुक्त उपाय सुझाइए। (2015)