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पॉलीग्राफ टेस्ट

  • 21 Aug 2024
  • 11 min read

प्रिलिम्स के लिये:

पॉलीग्राफ टेस्ट, केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI), नार्को-विश्लेषण परीक्षण, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC)

मेन्स के लिये:

पॉलीग्राफ, नार्को टेस्ट, वैधानिक निहितार्थ, संबंधित न्यायालय के निर्णय, कार्यान्वयन में चुनौतियाँ और आगे की राह 

स्रोत: इकॉनोमिक्स टाइम्स

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) को कोलकाता मेडिकल कॉलेज में एक स्नातकोत्तर डॉक्टर के बलात्कार और हत्या मामले में मुख्य संदिग्ध पर पॉलीग्राफ टेस्ट करने के लिये अधिकृत किया गया है। 

  • पॉलीग्राफ टेस्ट जाँचकर्त्ताओं को संदिग्ध के बयानों की एकरूपता की जाँच करने और संभावित छल या धोखे की पहचान करने में मदद करेगा।

पॉलीग्राफ टेस्ट क्या है?

  • परिचय:
    • पॉलीग्राफ या लाय डिटेक्टर टेस्ट (झूठ का पता लगाने हेतु परिक्षण) की प्रक्रिया के तहत व्यक्ति से कई सवाल पूछे जाते हैं और जब वह उनका जवाब देता है तो उस दौरान उसके शारीरिक संकेतकों, जैसे: रक्तचाप, नाड़ी, श्वसन और त्वचा की चालकता आदि का आकलन कर रिकॉर्ड किया जाता है। 
    • यह परीक्षण इस धारणा पर आधारित है कि जब कोई व्यक्ति झूठ बोलता है तो जो शारीरिक क्रियाएँ होती हैं, वह आमतौर पर होने वाली क्रियाओं से भिन्न होती हैं।
    • प्रत्येक क्रिया को एक संख्यात्मक मान दिया जाता है, ताकि यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि व्यक्ति सच बोल रहा है, धोखा दे रहा है, या अनिश्चित है।
    • पॉलीग्राफ जैसा एक परीक्षण सबसे पहले 19वीं शताब्दी में इतालवी अपराध विज्ञानी शेजारे लोम्ब्रोजो द्वारा किया गया था, जिन्होंने पूछताछ के दौरान आपराधिक संदिग्धों के रक्तचाप में परिवर्तन को मापने के लिये एक मशीन का प्रयोग किया था।
  • नार्को-विश्लेषण परीक्षण से अलग:
    • नार्को विश्लेषण परीक्षण में अभियुक्त को सोडियम पेंटोथल इंजेक्ट करना शामिल है, जो एक सम्मोहन या बेहोशी की स्थिति उत्पन्न करता है और आपराधिक संदिग्धों की कथित तौर पर कल्पना को बेअसर कर देता है।
    • इस अवस्था में व्यक्ति झूठ बोलने में असमर्थ हो जाता है और केवल सटीक तथ्य ही बताता है।
  • परीक्षणों की सटीकता:
    • पॉलीग्राफ और नार्को परीक्षण वैज्ञानिक रूप से 100% सटीक साबित नहीं हुए हैं और चिकित्सा क्षेत्र में विवादास्पद बने हुए हैं।
    • इसके बावज़ूद जाँच एजेंसियों ने हाल ही में संदिग्धों से सच्चाई उगलवाने के लिये यातना के बजाय ‘आसान विकल्प’ के रूप में इन परीक्षणों का प्रयोग किया है।

नोट:

  • ब्रेन मैपिंग: यह एक ऐसा परीक्षण है, जो मस्तिष्क की शारीरिक रचना और कार्य का अध्ययन करने के लिये इमेजिंग का उपयोग करता है। यह डॉक्टरों को यह निर्धारित करने में मदद कर सकता है कि मस्तिष्क का कार्य सामान्य है या नहीं और मस्तिष्क के उन क्षेत्रों की पहचान करता है जो गति, भाषण और दृष्टि को नियंत्रित करते हैं।

पॉलीग्राफ टेस्ट की कानूनी स्वीकार्यता क्या है?

  • अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन: आरोपी की सहमति के बिना किये गए पॉलीग्राफ, नार्को-एनालिसिस और ब्रेन मैपिंग टेस्ट भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन करते हैं, जो आत्म-दोष के विरुद्ध अधिकार की रक्षा करता है।
    • यह अनुच्छेद सुनिश्चित करता है कि किसी भी अपराध के लिये आरोपी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य बनने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता है।
  • सहमति की आवश्यकता: चूँकि इन परीक्षणों में आरोपी द्वारा संभावित रूप से आत्म-दोषपूर्ण जानकारी प्रदान करना शामिल है, इसलिये संवैधानिक अधिकारों के उल्लंघन से बचने के लिये उनकी सहमति प्राप्त करना अनिवार्य है।
  • न्यायिक और मानवाधिकार संबंधी चिंताएँ: नार्को-एनालिसिस और इसी तरह के परीक्षणों का उपयोग न्यायिक प्रामाणिकता और मानवाधिकारों, विशेष रूप से व्यक्तिगत अधिकारों तथा स्वतंत्रता के संबंध में महत्त्वपूर्ण चिंताएँ उत्पन्न करता है।
  • न्यायालय की आलोचना: न्यायालयों ने प्रायः इन परीक्षणों की आलोचना की है क्योंकि ये मानसिक यातना दे सकते हैं, जो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन और गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन करते हैं।

पॉलीग्राफ टेस्ट से संबंधित ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?

  • सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य मामला 2010: सर्वोच्च न्यायालय ने नार्को परीक्षणों की वैधता और स्वीकार्यता पर फैसला सुनाया जिसमें स्थापित किया गया कि नार्को या लाय डिटेक्टर परीक्षणों का अनैच्छिक प्रशासन किसी व्यक्ति की "मानसिक गोपनीयता" में घुसपैठ है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि नार्को परीक्षण संविधान के अनुच्छेद 20(3) के तहत आत्म-दोषी ठहराए जाने के खिलाफ मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है, जिसमें कहा गया है कि किसी भी अपराध के लिये आरोपी को स्वयं के खिलाफ साक्ष्य/गवाह बनने के लिये मज़बूर नहीं किया जाएगा।
      • आत्म-दोष एक कानूनी सिद्धांत है, जिसके तहत किसी व्यक्ति को किसी आपराधिक मामले में स्वयं के विरुद्ध सूचना देने या गवाही देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता।
  • डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामला, 1997: सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि अनैच्छिक रूप से पॉलीग्राफ और नार्को परीक्षण कराना अनुच्छेद 21 या जीवन एवं स्वतंत्रता के अधिकार के संदर्भ में क्रूर, अमानवीय तथा अपमानजनक व्यवहार माना जाएगा।
  • बॉम्बे राज्य बनाम काठी कालू ओघद, 1961 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि संविधान के अनुच्छेद 20(3) के तहत आत्म-दोषी ठहराए जाने के खिलाफ अधिकार भौतिक साक्ष्य (जैसे उंगलियों के निशान, लिखावट, रक्त और आवाज़ के नमूने) स्वैच्छिक रूप से दी गई जानकारी और पहचान प्रक्रियाओं (जैसे लाइन-अप एवं फोटो एरे) तक विस्तारित नहीं होता है।
  • सर्वोच्च न्यायालय की अन्य टिप्पणियाँ: नार्को परीक्षण साक्ष्य के रूप में विश्वसनीय या निर्णायक नहीं हैं क्योंकि वे मान्यताओं एवं संभावनाओं पर आधारित हैं।
    • स्वैच्छिक रूप से प्रशासित परीक्षण परिणामों की सहायता से बाद में खोजी गई कोई भी जानकारी या सामग्री साक्ष्य अधिनियम, 1872 (अब भारतीय साक्ष्य अधिनियम) की धारा 27 के अंतर्गत स्वीकार की जा सकती है।
      • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 के अनुसार पुलिस हिरासत में अभियुक्त द्वारा दी गई जानकारी तभी स्वीकार्य होगी जब उससे किसी तथ्य का पता चले। 
      • केवल सूचना का वह भाग ही सिद्ध किया जा सकता है जो प्रकट किये गए तथ्य से सीधे संबंधित हो, भले ही वह स्वीकारोक्ति हो या न हो।
    • न्यायालय ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) द्वारा वर्ष 2000 में प्रकाशित ‘अभियुक्त पर पॉलीग्राफ परीक्षण के लिये दिशानिर्देशों’ का सख्ती से पालन किया जाना चाहिये।

पॉलीग्राफ टेस्ट के संबंध में NHRC द्वारा जारी दिशा-निर्देश

  • स्वैच्छिक सहमति: अभियुक्त को पॉलीग्राफ परीक्षण के लिये स्वेच्छा से अपनी सहमति देनी होगी तथा उनके पास परीक्षण से मना करने का विकल्प भी होना चाहिये।
  • सूचित सहमति: परीक्षण के लिये सहमति देने से पहले आरोपी को इसके उद्देश्य, प्रक्रिया एवं विधिक निहितार्थों के विषय में पूरी सूचना होनी चाहिये। यह सूचना पुलिस तथा आरोपी के अधिवक्ता द्वारा प्रदान की जानी चाहिये।
  • अभिलिखित सहमति: पॉलीग्राफ परीक्षण के लिये अभियुक्त की सहमति न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष अभिलिखित की जानी चाहिये।
  • दस्तावेज़: न्यायालय की कार्यवाही के समय पुलिस को यह साक्ष्य प्रस्तुत करने होंगे कि आरोपी पॉलीग्राफ टेस्ट कराने के लिये सहमत था। यह दस्तावेज़ अधिवक्ता द्वारा न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं।
  • बयानों का स्पष्टीकरण: अभियुक्त को यह समझना चाहिये कि पॉलीग्राफ परीक्षण के समय दिये गए बयानों को पुलिस को दिये गए बयान माना जाता है, न कि स्वीकारोक्ति।
  • न्यायिक विचार: पॉलीग्राफ टेस्ट के परिणामों पर विचार करते समय न्यायाधीश अभियुक्त की अभिरक्षा की अवधि एवं पूछताछ जैसे कारकों पर विचार करता है।

दृष्टि मेन्स टेस्ट:

प्रश्न: पॉलीग्राफ टेस्ट क्या है? आपराधिक जाँच में पॉलीग्राफ टेस्ट के महत्त्व पर चर्चा कीजिये।

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