सामाजिक न्याय
पॉलीग्राफ और नार्को परीक्षण
- 05 Oct 2020
- 12 min read
प्रिलिम्स के लियेपॉलीग्राफ परीक्षण, नार्को परीक्षण, अनुच्छेद 20 (3) मेन्स के लियेपॉलीग्राफ और नार्को परीक्षण का नैतिक और संवैधानिक पक्ष |
चर्चा में क्यों?
उत्तर प्रदेश सरकार के प्रवक्ता ने हाल ही में स्पष्ट तौर पर कहा है कि हाथरस दुष्कर्म मामले की जाँच के तहत पॉलीग्राफ और नार्को परीक्षण किये जाएंगे।
- सरकार के अनुसार, इस मामले में शामिल पुलिस अधिकारियों के अलावा सभी अभियुक्तों और पीड़ित पक्ष के सभी लोगों का पॉलीग्राफ और नार्को परीक्षण किया जाएगा।
क्या होता है पॉलीग्राफ और नार्को परीक्षण?
- पॉलीग्राफ परीक्षण
- पॉलीग्राफ परीक्षण इस धारणा पर आधारित है कि जब कोई व्यक्ति झूठ बोलता है तो उस स्थिति में उसकी शारीरिक प्रतिक्रियाएँ किसी सामान्य स्थिति में उत्पन्न होने वाली शारीरिक प्रतिक्रियाओं से अलग होती हैं।
- इस प्रक्रिया के दौरान कार्डियो-कफ (Cardio-Cuffs) या सेंसिटिव इलेक्ट्रोड (Sensitive Electrodes) जैसे अत्याधुनिक उपकरण व्यक्ति के शरीर से जोड़े जाते हैं और इनके माध्यम से रक्तचाप, स्पंदन, श्वसन, पसीने की ग्रंथि में परिवर्तन और रक्त प्रवाह आदि को मापा जाता है। साथ ही इस दौरान उनसे प्रश्न भी पूछे जाते हैं।
- इस प्रक्रिया के दौरान व्यक्ति की प्रत्येक शारीरिक प्रतिक्रिया को कुछ संख्यात्मक मूल्य दिया जाता है, ताकि आकलन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि वह व्यक्ति सच कह रहा है अथवा झूठ बोल रहा है।
पॉलीग्राफ परीक्षण- इतिहास
- जानकारों का मानना है कि इस प्रकार का पहला परीक्षण 19वीं सदी में इतालवी क्रिमिनोलॉजिस्ट सेसारे लोंब्रोसो द्वारा किया गया था, जिन्होंने पूछताछ के दौरान आपराधिक संदिग्धों के रक्तचाप (Blood Pressure) में बदलाव को मापने के लिये एक मशीन का इस्तेमाल किया था।
- इसी प्रकार के उपकरण बाद में वर्ष 1914 में अमेरिकी मनोवैज्ञानिक विलियम मार्स्ट्रन और वर्ष 1921 में कैलिफोर्निया के पुलिस अधिकारी जॉन लार्सन द्वारा भी बनाए गए थे।
- नार्को परीक्षण
- पॉलीग्राफ परीक्षण के विपरीत नार्को परीक्षण में व्यक्ति को सोडियम पेंटोथल (Sodium Pentothal) जैसी दवाओं का इंजेक्शन दिया जाता है, जिससे वह व्यक्ति कृत्रिम निद्रावस्था या बेहोश अवस्था में पहुँच जाता है। इस दौरान जिस व्यक्ति पर यह परीक्षण किया जाता है उसकी कल्पनाशक्ति तटस्थ अथवा बेअसर हो जाती है और उससे सही सूचना प्राप्त करने या जानकारी के सही होने की उम्मीद की जाती है।
- हाल के कुछ वर्षों में जाँच एजेंसियों द्वारा जाँच के दौरान नार्को परीक्षण किया जाता रहा है और अधिकांश लोग इसे संदिग्ध अपराधियों से सही सूचना प्राप्त करने के लिये यातना और ‘थर्ड डिग्री’ के विकल्प के रूप में देखते हैं।
- हालाँकि इन दोनों ही विधियों में वैज्ञानिक रूप से 100 प्रतिशत सफलता दर प्राप्त नहीं हुई है और चिकित्सा क्षेत्र में भी ये विधियाँ विवादास्पद बनी हुई हैं।
नार्को परीक्षण- इतिहास
- जानकार मानते हैं कि नार्को शब्द, ग्रीक शब्द 'नार्के ’(जिसका अर्थ बेहोशी अथवा उदासीनता होता है) से लिया गया है और इसका उपयोग एक नैदानिक और मनोचिकित्सा तकनीक का वर्णन करने के लिये किया जाता है।
- इस प्रकार के परीक्षण की शुरुआत सर्वप्रथम वर्ष 1922 में हुई थी, जब टेक्सास (अमेरिका) के एक प्रसूति रोग विशेषज्ञ (Obstetrician) रॉबर्ट हाउस ने दो कैदियों के परीक्षण हेतु नशीली दवाओं का प्रयोग किया था।
भारतीय संविधान और पॉलीग्राफ तथा नार्को परीक्षण
- भारत में पॉलीग्राफ और नार्को परीक्षण से संबंधित कानूनों को समझने के लिये हम संविधान के अनुच्छेद 20 (3) का विश्लेषण कर सकते हैं।
- संविधान के अनुच्छेद 20 (3) के अनुसार, किसी अपराध के लिये संदिग्ध किसी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध गवाह बनने के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता है।
- इस प्रकार संविधान के अनुच्छेद 20 (3) के मुख्यतः तीन घटक हैं:
- यह किसी अभियुक्त से संबंधित अधिकार है।
- यह गवाह बनने की विवशता के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है।
- यह ऐसी विवशता के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति को स्वयं के खिलाफ सबूत पेश करने पड़ सकते हैं।
- उल्लेखनीय है कि वर्ष 2010 के ‘सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य’ वाद में सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने अपने निर्णय में कहा था कि अभियुक्त की सहमति के बिना किसी भी प्रकार का ‘लाई डिटेक्टर टेस्ट’ (Lie Detector Test) नहीं किया जा सकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि जो लोग स्वैच्छिक रूप से इस प्रकार के परीक्षण का विकल्प चुनते हैं, उन्हें उनके वकील से मिलने की इजाज़त होनी चाहिये और वकील तथा पुलिस प्रशासन द्वारा उस व्यक्ति को इस प्रकार के परीक्षण के सभी शारीरिक, भावनात्मक और कानूनी निहितार्थ के बारे समझाया जाना चाहिये।
- सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने वर्ष 2000 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा प्रकाशित ‘लाई डिटेक्टर टेस्ट के प्रशासन संबंधी दिशा-निर्देशों’ का सख्ती से पालन करने को कहा था।
लाई डिटेक्टर टेस्ट के प्रशासन संबंधी दिशा-निर्देश
- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा वर्ष 2000 में प्रकाशित ‘लाई डिटेक्टर टेस्ट के प्रशासन संबंधी दिशा-निर्देशों’ के अनुसार,
- अभियुक्तों की सहमति के बिना कोई लाई डिटेक्टर टेस्ट नहीं कराया जाना चाहिये। साथ ही अभियुक्त को यह विकल्प दिया जाना चाहिये कि वह परीक्षण करवाना चाहता है अथवा नहीं।
- यदि अभियुक्त अथवा आरोपी स्वैच्छिक रूप से परीक्षण का चुनाव करता है तो उसे उसके वकील तक पहुँच प्रदान की जानी चाहिये और पुलिस तथा वकील का दायित्त्व है कि वे अभियुक्त को इस तरह के परीक्षण के शारीरिक, भावनात्मक और कानूनी निहितार्थ के बारे में बताएँ।
- परीक्षण के संबंध में अभियुक्तों की सहमति न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज की जानी चाहिये। साथ ही मजिस्ट्रेट के समक्ष सुनवाई के दौरान अभियुक्त का प्रतिनिधित्व विधिवत रूप से एक वकील द्वारा किया जाना चाहिये।
- परीक्षण के दौरान अभियुक्त द्वारा दिये गए बयान को ‘इकबालिया बयान’ नहीं माना जाएगा और लाई डिटेक्टर टेस्ट को किसी एक स्वतंत्र एजेंसी (जैसे अस्पताल) द्वारा अभियुक्त के वकील की उपस्थिति में किया जाएगा।
अभियुक्त के अतिरिक्त अन्य लोगों का परीक्षण
- ‘सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य’ वाद में ही सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा था कि किसी भी व्यक्ति को जबरन इस प्रकार के परीक्षण के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता है, चाहे वह आपराधिक मामले की जाँच के संदर्भ में हो अथवा किसी अन्य स्थिति में।
- इस प्रकार न्यायालय ने अपने निर्णय में परीक्षण के लिये सहमति की आवश्यकता के सिद्धांत के दायरे को अभियुक्त के अतिरिक्त अन्य लोगों जैसे- गवाहों, पीड़ितों और परिवार वालों आदि तक विस्तृत कर दिया था।
- न्यायालय ने कहा था कि किसी भी व्यक्ति की सहमति के बिना उसे इस प्रकार के परीक्षण के लिये मजबूर करना उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता में दखल देने जैसा है।
- तीन सदस्यीय पीठ के मुताबिक, यद्यपि महिलाओं के साथ दुष्कर्म संबंधी अपराधों के मामलों में जाँच में तेज़ी लाने की आवश्यकता है, किंतु इसके बावजूद पीड़िता को जबरन परीक्षण का सामना करने के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह मानसिक गोपनीयता (Mental Privacy) में अनुचित हस्तक्षेप होगा।
पॉलीग्राफ और नार्को परीक्षण के हालिया उपयोग
- अधिकांश मामलों में जाँच एजेंसियाँ आरोपी या संदिग्धों पर किये जाने वाले ऐसे परीक्षणों की अनुमति लेती हैं, किंतु पीड़ितों या गवाहों पर यह परीक्षण शायद ही कभी किया गया हो।
- कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि जाँच एजेंसियाँ इस तरह की मांग कर सकती हैं कि ये परीक्षण उनकी जाँच में मदद करने के लिये हैं, किंतु इस संबंध में किसी व्यक्ति द्वारा परीक्षणों के लिये दी गई सहमति अथवा इनकार करना उसके निर्दोष होने अथवा अपराधी होने को प्रतिबिंबित नहीं करता है।
- बीते वर्ष जुलाई माह में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) ने उत्तर प्रदेश के उन्नाव में दुष्कर्म पीड़िता को मारने वाले ट्रक के ड्राइवर और हेल्पर का इस प्रकार के परीक्षण कराए जाने की मांग की थी।
- CBI ने ही पंजाब नेशनल बैंक (PNB) के कथित धोखाधड़ी मामले में एक आरोपी के परीक्षण की भी मांग की थी, लेकिन न्यायालय ने अभियुक्त की सहमति न होने की स्थिति में याचिका खारिज कर दी थी।