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भारतीय राजनीति

दल-बदल विरोधी कानून में परिवर्तन की आवश्यकता

  • 15 Jul 2021
  • 9 min read

प्रिलिम्स के लिये

दल-बदल विरोधी कानून, गैर-सरकारी विधेयक, दसवीं अनुसूची

मेन्स के लिये 

दल-बदल विरोधी कानून तथा हाल ही में प्रस्तावित परिवर्तन, गैर-सरकारी सदस्य

चर्चा में क्यों?

गोवा विधानसभा में विपक्ष के नेता दल-बदल विरोधी कानून (Anti-Defection Law) से जुड़े विभिन्न मुद्दों के समाधान हेतु केंद्र सरकार को सिफारिश करने के लिये एक गैर-सरकारी सदस्य के प्रस्ताव को पेश करने के लिये तैयार हैं।

प्रमुख बिंदु 

दल-बदल विरोधी कानून के बारे में :

  • दसवीं अनुसूची ( जिसे ‘दल-बदल विरोधी कानून’ के नाम से जाना जाता था) को  वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से पारित किया गया तथा यह किसी अन्य राजनीतिक दल में दल-बदल के आधार पर निर्वाचित सदस्यों की अयोग्यता का प्रावधान निर्धारित करती है।
  • दल-बदल विरोधी कानून के तहत अयोग्यता के आधार इस प्रकार हैं: 
    • यदि एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता को छोड़ देता है। 
    • यदि वह पूर्व अनुमति प्राप्त किये बिना अपने राजनीतिक दल या ऐसा करने के लिये अधिकृत किसी व्यक्ति द्वारा जारी किसी भी निर्देश के विपरीत सदन में मतदान करता है या मतदान से दूर रहता है।
      • उसकी अयोग्यता के लिये पूर्व शर्त के रूप में ऐसी घटना के 15 दिनों के भीतर उसकी पार्टी या अधिकृत व्यक्ति द्वारा मतदान से मना नहीं किया जाना चाहिये।
    • यदि कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
    • यदि छह महीने की समाप्ति के बाद कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
  • 1985 के अधिनियम के अनुसार, एक राजनीतिक दल के निर्वाचित सदस्यों के एक-तिहाई सदस्यों द्वारा 'दलबदल' को 'विलय' माना जाता था।
    • लेकिन 91वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 ने इसे बदल दिया और दल-बदल विरोधी कानून में एक राजनीतिक दल को किसी अन्य राजनीतिक दल में या उसके साथ विलय करने की अनुमति दी गई है, बशर्ते कि उसके कम-से-कम दो-तिहाई सदस्य विलय के पक्ष में हों।
  • इस प्रकार अयोग्य सदस्य उसी सदन की एक सीट के लिये किसी भी राजनीतिक दल के लिये चुनाव लड़ सकते हैं।
  • दल-बदल के आधार पर अयोग्यता संबंधी प्रश्नों पर निर्णय के लिये उसे सदन के सभापति या अध्यक्ष के पास भेजा जाता है, जो कि 'न्यायिक समीक्षा' के अधीन होता है।

दल-बदल विरोधी कानून से संबंधित मुद्दे:

  • प्रतिनिधि लोकतंत्र को कमज़ोर करना: दलबदल विरोधी कानून के लागू होने के पश्चात् सांसद या विधायक को पार्टी के निर्देशों का पूर्ण रूप से पालन करना होता है।
    • यह उन्हें किसी भी मुद्दे पर अपने निर्णय के अनुरूप वोट देने की स्वतंत्रता नहीं देता है जिससे प्रतिनिधि लोकतंत्र कमज़ोर होता है।
  • विधायिका को कमज़ोर करना: एक निर्वाचित विधायक या सांसद की मुख्य भूमिका नीति, विधेयक/बिल और बजट की जाँच करना और निर्णय लेना है।
    • इसके विपरीत सांसद किसी भी वोट का समर्थन या विरोध करने के लिये पार्टी के समर्थन में सिर्फ एक संख्या बनकर रह जाता है।
  • संसदीय लोकतंत्र को कमज़ोर करना: संसदीय रूप में सरकार प्रश्नों और प्रस्तावों के माध्यम से प्रतिदिन जवाबदेह होती है और उसे किसी भी समय लोकसभा के अधिकांश सदस्यों का समर्थन खो देने पर हटाया जा सकता है।
    • दल-बदल विरोधी कानून के चलते विधायकों को मुख्य रूप से राजनीतिक दल के प्रति जवाबदेह बनाकर जवाबदेही की इस शृंखला को तोड़ा गया है। 
    • इस प्रकार दल-बदल विरोधी कानून संसदीय लोकतंत्र की अवधारणा के खिलाफ काम कर रहा है।
  • अध्यक्ष की विवादास्पद भूमिका: कई उदाहरणों में अध्यक्ष (आमतौर पर सत्ताधारी दल से) ने अयोग्यता पर निर्णय लेने में देरी की है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले को रोकने की कोशिश की है कि अध्यक्ष (स्पीकर) को तीन महीने में मामले का फैसला करना है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि अगर स्पीकर ऐसा नहीं करता है तो क्या होगा।
  • विभाजन की कोई मान्यता नहीं: 91वें संवैधानिक संशोधन 2004 के कारण दल-बदल विरोधी कानून ने दल-बदल विरोधी शासन को एक अपवाद बनाया।
  • इसके अनुसार यदि किसी दल के दो-तिहाई सदस्य 'विलय' के लिये सहमत हों तो इसे दल-बदल नहीं माना जाएगा।
    • हालाँकि यह संशोधन एक विधायक दल में 'विभाजन' को मान्यता नहीं देता है बल्कि इसके बजाय 'विलय' को मान्यता देता है।

प्रस्तावित परिवर्तन:

  • एक विकल्प यह है कि ऐसे मामलों को सीधे उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय को एक स्पष्ट निर्णय हेतु भेजा जाए, जो कि 60 दिनों की अवधि के भीतर दिया जाना चाहिये।
  • दूसरा विकल्प यह है कि अगर किसी पार्टी या पार्टी नेतृत्व के संबंध में कोई मतभेद है, तो उसे इस्तीफा देने और लोगों को नया जनादेश का अधिकार हो।
  • इन परिवर्तनों में एक निर्वाचित प्रतिनिधि के लिये लोगों के प्रति जवाबदेह और ज़िम्मेदार होने की आवश्यकता की परिकल्पना की गई है।

आगे की राह:

  • अंतर-पार्टी लोकतंत्र को मज़बूत करना: यद्यपि सरकार की स्थिरता एक मुद्दा है जो कि लोगों के अपने दलों से अलग होने के कारण है, इसके लिये पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र को मज़बूत करना होगा।
  • राजनीतिक दलों को विनियमित करना: भारत में राजनीतिक दलों को नियंत्रित करने वाले कानून की प्रबल आवश्यकता है। इस तरह के कानून में राजनीतिक दलों को आरटीआई के तहत लाया जाना चाहिये, साथ ही पार्टी के भीतर लोकतंत्र को मज़बूत करना चाहिये।
  • निर्णायक शक्तियों से अध्यक्ष को राहत देना: सदन के अध्यक्ष का दल-बदल के मामले में अंतिम प्राधिकारी होना शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को प्रभावित करता है।
    • इस संदर्भ में इस शक्ति को उच्च न्यायपालिका या चुनाव आयोग (दूसरी एआरसी रिपोर्ट द्वारा अनुशंसित) को हस्तांतरित करने से दल-बदल के खतरे को रोका जा सकता है।
  • दल-बदल विरोधी कानून के दायरे को सीमित करना: प्रतिनिधि लोकतंत्र को दल-बदल विरोधी कानून के हानिकारक प्रभाव से बचाने के लिये कानून का दायरा केवल उन कानूनों तक सीमित किया जा सकता है, जहाँ सरकार की हार से विश्वास की हानि हो सकती है।

स्रोत- इंडियन एक्सप्रेस

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