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विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

नैरो-लाइन सीफर्ट-1 (एनएलएस-1) गैलेक्सी: सुदूर गामा रे उत्सर्जक आकाशगंगा

  • 16 Apr 2021
  • 10 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में खगोलविदों ने एक नई नैरो-लाइन सीफर्ट-1 (Narrow-Line Seyfert 1- NLS1) नामक सक्रिय आकाशगंगा का पता लगाया है। इसकी पहचान सुदूर गामा रे उत्सर्जक आकाशगंगा के रूप में की गई है।

प्रमुख बिंदु

अध्ययन:

  • आर्यभट्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ ऑब्ज़र्वेशनल साइंसेज़ (Aryabhatta Research Institute of Observational Sciences) के वैज्ञानिकों ने अन्य संस्थानों के शोधकर्त्ताओं के सहयोग से लगभग 25,000 चमकीले सक्रिय ग्लैक्टिक न्यूकली (Active Galactic Nuclei) का अध्ययन स्लोन डिजिटल स्काई सर्वे (Sloan Digital Sky Survey) से किया। 
    • AGN ब्रह्मांड में सबसे शक्तिशाली, लंबे समय तक रहने वाली और चमकदार वस्तुओं के स्थिर स्रोत हैं। इनसे होने वाले उत्सर्जन सामान्यतः एक्स-रे और अवरक्त बैंड में अधिक चमक और अल्ट्रावायलेट में अत्यधिक चमक के साथ इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम रूप में फैले होते हैं।
    • SDSS एक प्रमुख मल्टी-स्पेक्ट्रल इमेजिंग और स्पेक्ट्रोस्कोपिक रेडशिफ्ट सर्वे (Multi-Spectral Imaging and Spectroscopic Redshift Survey) है जो न्यू मैक्सिको, संयुक्त राज्य अमेरिका में अपाचे प्वाइंट वेधशाला में एक समर्पित 2.5 मीटर चौड़े कोण वाले ऑप्टिकल टेलीस्कोप का उपयोग करता है।
      • इसने ब्रह्मांड के अब तक के सबसे विस्तृत त्रि-आयामी मानचित्रों का निर्माण आकाश के एक-तिहाई गहरे बहु-रंगीन चित्रों और तीन मिलियन से अधिक खगोलीय पिंडों के साथ किया है।

अध्ययन के निष्कर्ष:

  • उन्हें एक अनोखी वस्तु मिली जो एक उच्च रेडशिफ्ट (1 से अधिक) में स्थित उच्च-ऊर्जा गामा किरणों का उत्सर्जन कर रही थी।
    • इसकी पहचान गामा किरण उत्सर्जक एनएलएस-1 ग्लैक्सी के रूप में की गई है। यह अंतरिक्ष में दुर्लभ है।
    • नई गामा रे उत्सर्जक एनएलएस-1 तब बनता है जब ब्रह्मांड 4.7 अरब वर्ष (वर्तमान ब्रह्मांड 13.8 बिलियन वर्ष पुराना है) पुराना होता है।

रेडशिफ्ट

रेडशिफ्ट के विषय में:

  • यह आकाशगंगाओं और आकाशीय पिंडों से प्रकाश का लंबे रेडियो तरंग की ओर विस्थापन है।
  • इससे खगोलविदों को अंतरिक्ष में पिंडों की गति और अदृश्य ग्रहों तथा आकाशगंगाओं की गतिविधियों के विषय में खोज करने एवं प्रारंभिक ब्रह्मांड के बारे में जानकारी इकट्ठा करने में मदद मिलती है।

महत्त्व:

  • खगोलविद ब्रह्मांड के विस्तार और इसके सबसे दूर (सबसे पुरानी) स्थित पिंडों की दूरी मापने के लिये रेडशिफ्ट का उपयोग करते हैं।

मापन:

  • स्पेक्ट्रोस्कोपी रेडशिफ्ट को मापने का सबसे सटीक तरीका है।
    • जब सफेद प्रकाश की किरण त्रिकोणीय प्रिज़्म से टकराती है तो वह विभिन्न घटकों (ROYGBIV) में अलग हो जाती है, जिसे स्पेक्ट्रम (स्पेक्ट्रा) कहा जाता है।
  • खगोलविद विभिन्न तत्त्वों द्वारा निर्मित स्पेक्ट्रा को देख सकते हैं और इनकी तुलना तारों के स्पेक्ट्रा से कर सकते हैं। पिंडों के पास आने या दूर जाने के विषय में तारों के स्पेक्ट्रा की अवशोषण या उत्सर्जन रेखाओं (दिखाई देने वाली) को स्थानांतरित करके जाना जा सकता है।

Redshifts

  • खगोलविदों को रेडशिफ्ट पैरामीटर (z) दूरी (आकाशगंगा, ग्रह आदि) की गणना करने में मदद करता है।
    • Z का मूल्य बढ़ने पर पिंड की दूरी बढ़ जाती है।

इस्तेमाल किये गए उपकरण:

  • शोध के लिये वैज्ञानिकों ने विश्व के सबसे बड़े जमीनी टेलीस्कोप अमेरिका के हवाई स्थित जापान के 8.2 एम सुबारू टेलीस्कोप (8.2 m Subaru Telescope) का इस्तेमाल किया।
  • इसकी शक्तिशाली प्रकाश संग्रह क्षमता आकाशीय पिंडों के प्रकाश को संग्रह कर सकती है। सुबारू टेलीस्कोप की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसका मुख्य फोकस अन्य बड़े टेलीस्कोपों की तुलना में व्यापक क्षेत्र तक है।

महत्त्व:

  • एनएलएस-1 से गामा किरण का उत्सर्जन इस बात को चुनौती देता है कि कैसे सापेक्षवादी कणों के स्रोत बनते हैं क्योंकि एनएलएस-1 एजीएन का अनूठा वर्ग है जिसे कम द्रव्यमान के ब्लैक होल (Black Hole) से ऊर्जा मिलती है और इसे घुमावदार आकाशगंगा में होस्ट (Host) किया जाता है। 
  • सापेक्षवादी जेट:
    • कुछ सक्रिय आकाशगंगाओं के केंद्र में स्थित सुपरमैसिव ब्लैक होल जो कि प्रकाश की गति से चलने वाले विकिरण और कणों के शक्तिशाली जेट का निर्माण करते हैं, सापेक्षवादी जेट (Relativistic Jet) कहलाते हैं।
    • माना जाता है कि ये जेट ब्रह्मांड में सबसे तेज़ गति से चलने वाले कणों के स्रोत हैं जो कि कॉस्मिक किरणें हैं।
  • रेड शिफ्ट पर एक-दूसरे से बड़े एनएलएस-1 का पता लगाने की विधि वर्तमान में मौजूद नहीं थी।
  • इस खोज से ब्रह्मांड में गामा रे उत्सर्जक एनएलएस-1 आकाशगंगाओं के पता लगाने का मार्ग प्रशस्त होगा। 

आर्यभट्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ ऑब्ज़र्वेशनल  साइंसेज

  • यह नैनीताल, उत्तराखंड में स्थित देश का खगोल भौतिकी और वायुमंडलीय विज्ञान से संबंधित एक अग्रणी अनुसंधान संस्थान है।
  • सर्वप्रथम इसकी स्थापना 20 अप्रैल, 1954 को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा वाराणसी में की गई, तदुपरांत वर्ष 1955 में नैनीताल एवं वर्ष 1961 में इसे अपने वर्तमान स्थान मनोरापीक में ले जाया गया। इस संस्था का प्राथमिक उद्देश्य खगोल भौतिकी के तारकीय, सौर और सैद्धांतिक शाखाओं में आधुनिक खगोल भौतिकी अनुसंधान को विकसित करना है। यहाँ आने वालों को साफ आकाश वाली रातों में दूरबीन के माध्यम से कुछ खगोलीय पिंड भी दिखाए जाते हैं।

आकाशगंगा

  • एक आकाशगंगा गैस, धूल और अरबों सितारों एवं उनके सौर प्रणालियों का एक विशाल संग्रह है, जो गुरुत्वाकर्षण द्वारा एक साथ बँधे होते हैं।
  • पृथ्वी मिल्की वे आकाशगंगा (Milky Way Galaxy) का हिस्सा है, जिसमें बीच में सुपरमैसिव ब्लैकहोल भी है।

Solar-system

ब्लैक होल

  • यह अंतरिक्ष में उपस्थित ऐसा छिद्र है जहाँ गुरुत्व बल इतना अधिक होता है कि यहाँ से प्रकाश का पारगमन नहीं होता।
  • इस अवधारणा को वर्ष 1915 में अल्बर्ट आइंस्टीन द्वारा प्रमाणित किया गया था लेकिन ब्लैक होल शब्द का इस्तेमाल सबसे पहले अमेरिकी भौतिकविद् जॉन व्हीलर ने वर्ष 1960 के दशक के मध्य में किया था।
  • आमतौर पर ब्लैक होल की दो श्रेणियाँ होती हैं:
    • पहली श्रेणी- ऐसे ब्लैक होल जिनका द्रव्यमान सौर द्रव्यमान (एक सौर द्रव्यमान हमारे सूर्य के द्रव्यमान के बराबर होता है) से दस सौर द्रव्यमान के बीच होता है। बड़े पैमाने पर तारों की समाप्ति से इनका निर्माण होता है।
    • दूसरी श्रेणी सुपरमैसिव ब्लैक होल की है। ये जिस सौरमंडल में पृथ्वी है उसके सूर्य से भी अरबों गुना बड़े होते हैं।

गामा रे खगोल विज्ञान

  • यह गामा किरणों का उत्सर्जन करने वाले खगोलीय पिंडों और घटनाओं का अध्ययन करता है। गामा-रे दूरबीनों को उच्च ऊर्जा की खगोल भौतिकी प्रणालियों का निरीक्षण करने के लिये बनाया गया है।
  • पृथ्वी का वायुमंडल गामा किरणों को अवरुद्ध करता है, इसलिये अवलोकन उच्च ऊँचाई वाले गुब्बारे या अंतरिक्षयान द्वारा किये जाते हैं।
  • गामा-रे खगोल विज्ञान अति दूर स्थित पिंडों का पता लगाने का अद्वितीय साधन है। वैज्ञानिक इन उच्च ऊर्जा पर ब्रह्मांड की खोज करके नई भौतिकी की खोज, सिद्धांतों का परीक्षण और प्रयोग कर सकते हैं जो पृथ्वी से जुड़ी प्रयोगशालाओं में संभव नहीं है।

स्रोत: पी.आई.बी.

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