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UAPA अधिनियम के तहत दोषसिद्धि की निम्न दर

  • 12 Feb 2021
  • 7 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में गृह मंत्रालय द्वारा राज्यसभा में प्रस्तुत किये गए आंँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2016-2019 के मध्य गैर-कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1967 के तहत केवल 2.2% मामलों में ही न्यायालय में दोषसिद्ध हुए हैं।

मंत्रालय ने ‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो’ (National Crime Records Bureau- NCRB) द्वारा संकलित ‘भारत में अपराध 2019’ ( Crime in India 2019) रिपोर्ट के आंँकड़ों का उद्धरण प्रस्तुत किया है।

प्रमुख बिंदु:

  • अधिनियम:
    • UAPA को मूलतः वर्ष 1967 में पारित किया गया था। यह आतंकवादी एवं विध्वंसकारी गतिविधियाँ निरोधक कानून- टाडा (वर्ष 1995 में व्यपगत) और आतंकवाद निरोधक अधिनियम- पोटा (वर्ष 2004 में निरस्त) का विकसित या उन्नत रूप है।
  • मुख्य प्रावधान:
    • वर्ष 2004 तक "गैर-कानूनी" गतिविधियों को क्षत्रीय अलगाव और अलगाव या विघटन से संबंधित कार्यों के लिये संदर्भित किया जाता था। वर्ष 2004 के संशोधन के बाद "आतंकवादी अधिनियम" को अपराधों की श्रेणी में शामिल किया गया।
    • यह अधिनियम केंद्र सरकार को पूर्ण शक्ति प्रदान करता है, जिसके द्वारा यदि केंद्र किसी गतिविधि को गैर-कानूनी घोषित करता है तो वह आधिकारिक राजपत्र के माध्यम से इसकी घोषणा कर सकता है।
    • UAPA के तहत जांँच एजेंसी गिरफ्तारी के बाद अधिकतम 180 दिनों के अंदर चार्जशीट दायर कर सकती है और अदालत को सूचित करने के बाद इस अवधि को और बढ़ाया जा सकता है।
    • इसे भारतीय और विदेशी दोनों पर आरोपित किया जा सकता है। यह अधिनियम विदेशी और भारतीय दोनों ही अपराधियों पर समान रूप से लागू होता है।
    • इसमें मृत्युदंड और आजीवन कारावास को उच्चतम दंड माना गया है।
  • वर्ष 2019 में संशोधन:
    • अगस्त 2019 में संसद ने गैर-कानूनी गतिविधियांँ (रोकथाम) संशोधन विधेयक, 2019 (Unlawful Activities (Prevention) Amendment Bill, 2019) को स्पष्ट किया और कहा कि इस अधिनियम के तहत उस व्यक्ति को
    • आतंकवादी के रूप में चिह्नित किया जाए जो या तो आतंकवाद से संबंधित गतिविधियों में हिस्सा लेता है या आतंकवाद हेतु पृष्ठभूमि या आधार निर्मित करता है, आतंकवाद को बढ़ावा देता है या अन्यथा आतंकवाद में शामिल होता है।
    • पहले से ही "आतंकवादी संगठन" के रूप में नामित संगठनों हेतु इस प्रकार के प्रावधान कानून के भाग 4 और 6 में मौजूद हैं।
    • यह अधिनियम, राष्ट्रीय जांँच एजेंसी (National Investigation Agency- NIA) के महानिदेशक को उक्त एजेंसी द्वारा मामले की जांँच करने के दौरान संपत्ति की ज़ब्ती या कुर्की का अधिकार देता है।
    • यह अधिनियम राज्य में DSP या ACP या उससे ऊपर के रैंक के अधिकारी द्वारा की जाने वाली जाँच के अलावा आतंकवाद के मामलों की जाँच करने के लिये NIA के इंस्पेक्टर या उससे ऊपर के रैंक के अधिकारी को अधिकार देता है।
  • UAPA से संबंधित मुद्दे:
    • व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन: यह अधिनियम राज्य को उन व्यक्तियों को हिरासत में लेने और गिरफ्तार करने के असीमित अधिकार प्रदान करता है जो आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त पाए जाते हैं। इस प्रकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदान व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के विपरीत यह अधिनयम राज्य को अधिक शक्ति प्रदान करता है।
    • असहमति के अधिकार पर अप्रत्यक्ष प्रतिबंध: असहमति का अधिकार स्वतंत्र भाषण और अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का एक हिस्सा है, अत: अनुच्छेद 19 (2) के अलावा इसे किसी भी परिस्थिति में समाप्त नहीं किया जा सकता है।
    • UAPA, 2019 आतंकवाद को रोकने के लिये असहमति के अधिकार पर अप्रत्यक्ष प्रतिबंध लगाने हेतु सत्तारूढ़ सरकार को सशक्त बनाता है, जो एक विकासशील लोकतांत्रिक समाज के लिये हानिकारक है।
    • संघवाद को समाप्त करना: कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह अधिनयम संघीय ढांँचे की भावना के विपरीत है क्योंकि यह आतंकवाद के मामलों में राज्य पुलिस के अधिकार की उपेक्षा करता है, यह देखते हुए कि 'पुलिस' भारतीय संविधान की 7वीं अनुसूची के तहत राज्य सूची का विषय है।

आगे की राह:

  • दुरुपयोग को रोकना: आतंकवाद निस्संदेह एक बड़ा खतरा है जिसे समाप्त करने के लिये कड़े आतंकवाद विरोधी कानूनों की आवश्यकता है लेकिन यह तभी संभव है जब UAPA के प्रावधानों का पूर्ण रूप से पालन किया जाए।
  • मौलिक स्वतंत्रता और राज्य के हित के बीच संतुलन बनाए रखना: सुरक्षा प्रदान करने के लिये व्यक्तिगत स्वतंत्रता और राज्य के दायित्व के मध्य संतुलन स्थापित करना एक दुविधा का कार्य है। अत: व्यावसायिक ईमानदारी सुनिश्चित करना, निष्पक्षता के सिद्धांत का पालन करना और किसी भी गलत कार्य से बचाव करना अधिकारियों पर निर्भर करता है।
  • न्यायिक समीक्षा: कथित दुरुपयोग के मामलों की सावधानी पूर्वक जांँच करने में न्यायपालिका की अहम भूमिका होती है। न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) के माध्यम से कानून के तहत मध्यस्थता और विषय की जाँच होनी चाहिये।

स्रोत: द हिंदू

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