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शासन व्यवस्था

जन विश्वास (प्रावधानों में संशोधन) विधेयक, 2022

  • 30 Dec 2022
  • 7 min read

प्रिलिम्स के लिये:

जन विश्वास (प्रावधानों में संशोधन) विधेयक, 2022, पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986, सार्वजनिक देयता बीमा अधिनियम, 1991 और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000

मेन्स के लिये:

सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप, कुछ अपराधों का गैर-अपराधीकरण

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्र सरकार ने संसद में जन विश्वास (प्रावधानों में संशोधन) विधेयक, 2022 पेश किया।

प्रमुख बिंदु 

  • कुछ अपराधों का गैर-अपराधीकरण:  
    • विधेयक के तहत कुछ अधिनियमों में कारावास की सज़ा वाले कई अपराधों को केवल अर्थ दंड लगाकर अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है।
    • उदाहरण के लिये:   
      • कृषि उपज (ग्रेडिंग और मार्किंग) अधिनियम, 1937 के तहत नकली ग्रेड पदनाम चिह्न तीन वर्ष तक के कारावास और पाँच हज़ार रुपए तक के ज़ुर्माने के साथ दंडनीय है। ग्रेड पदनाम चिह्न वर्ष 1937 अधिनियम के तहत वस्तु की गुणवत्ता को दर्शाता है।  
        • यह विधेयक इसके स्थान पर आठ लाख रुपए के ज़ुर्माने का प्रावधान करता है।
      • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के तहत एक वैध अनुबंध के उल्लंघन में व्यक्तिगत जानकारी का खुलासा करने पर तीन साल तक की कैद या पाँच लाख रुपए तक का जुर्माना, या दोनों हो सकते हैं।
        • यह विधेयक इसके स्थान पर 25 लाख रुपए तक के ज़ुर्माने का प्रावधान करता है।
      • उदाहरण के लिये पेटेंट अधिनियम, 1970 के तहत भारत में पेटेंट के रूप में गलत प्रतिनिधित्त्व वाली वस्तु बेचने वाले व्यक्ति पर एक लाख रुपए तक का ज़ुर्माना लगाया जा सकता है।
        • कुछ अधिनियमों में दंड के बजाय ज़ुर्माना लगाकर अपराधमुक्त कर दिया गया है।
          • यह विधेयक अर्थदंड (फाइन) के स्थान पर ज़ुर्माने (पेनाल्टी) का प्रावधान करता है, जो दस लाख रुपए तक हो सकता है। दावा जारी रखने की स्थिति में प्रतिदिन एक हज़ार रुपए का अतिरिक्त ज़ुर्माना देना होगा।
  • अर्थदंड और ज़ुर्माने में संशोधन:  
    • यह विधेयक निर्दिष्ट अधिनियमों के तहत विभिन्न अपराधों के लिये अर्थदंड और ज़ुर्माने में वृद्धि करता है।    
      • इसके अलावा इन अर्थदंड और ज़ुर्माने को प्रति तीन वर्ष में न्यूनतम राशि के 10% तक बढ़ाया जाएगा। 
  • निर्णायक अधिकारियों की नियुक्ति:
    • विधेयक के अनुसार, केंद्र सरकार दंड निर्धारित करने के उद्देश्य से एक या एक से अधिक न्यायनिर्णयन अधिकारियों की नियुक्त कर सकती है। निर्णायक अधिकारी: (i) व्यक्तियों को साक्ष्य के लिये समन भेज सकते हैं और (ii) संबंधित अधिनियमों के उल्लंघन की जाँच कर सकते हैं।  
  • अपीलीय तंत्र:
    • विधेयक न्यायनिर्णयन अधिकारी द्वारा पारित आदेश से परेशान किसी भी व्यक्ति के लिये अपीलीय तंत्र को भी निर्दिष्ट करता है।  
      • उदाहरण के लिये पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत आदेश के 60 दिनों के भीतर राष्ट्रीय हरित अधिकरण में अपील दायर की जा सकती है।

विधेयक को लाने के पीछे उद्देश्य: 

  • आपराधिक मामलों में वृद्धि:
    • दशकों से विधिवेत्ता  इस बात से चिंतित हैं कि आपराधिक कानून सिद्धांतहीन रूप से विकसित हुआ है।
    • राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के अनुसार, 4.3 करोड़ लंबित मामलों में से लगभग 3.2 करोड़ मामले आपराधिक कार्यवाही से संबंधित हैं।
  • राजनीतिक उद्देश्य: 
    • गलत आचरण हेतु दंडित करने के विपरीत अपराधीकरण अक्सर सरकारों के लिये एक मज़बूत छवि पेश करने का उपकरण बन जाता है।
    • सरकारें इस तरह के फैसलों का समर्थन बहुत कम करती हैं। इस घटना को विद्वानों द्वारा "अतिअपराधीकरण" कहा गया है।
  • जेलों में क्षमता से अधिक कैदी:

विधेयक का दायरा:

  • विधेयक 'अर्द्ध-गैरअपराधीकरण' (Quasi-Decriminalisation) को भी अपने दायरे में ला सकता है।
  • ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन द्वारा जारी रिपोर्ट जेल्ड फॉर डूइंग बिज़नेस के अनुसार, भारत में कुल 843 आर्थिक विधानों, नियमों तथा विनियमों में 26,134 से अधिक कारावास संबंधी उपखंड हैं जो भारत में व्यवसायों एवं आर्थिक गतिविधियों को विनियमित करते हैं।
    • इस आलोक में विधेयक के तहत गैर-अपराध की श्रेणी में शामिल किये गए अपराधों की संख्या केवल भारत के नियामक ढाँचे में अल्प मात्रा में गिरावट को दर्शाती है।
  • न केवल व्यापार सुगमता बल्कि उन सभी बुराइयों, जो हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली को प्रभावित करती हैं, के दृष्टिकोण से भी 'गैर-अपराधीकरण' के लिये विचार किये जाने वाले विनियामक अपराधों की प्राथमिकता निर्धारित करने की आवश्यकता है।
  • यह विधेयक सरकार की इस सहमति के अनुरूप है कि गैर-अपराधीकरण नियामक क्षेत्र तक सीमित होना चाहिये।

स्रोत: द हिंदू

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