सामाजिक न्याय
मध्य प्रदेश में शिशु मृत्युदर में बढ़ोत्तरी
- 25 Jul 2020
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प्रीलिम्स के लिये:शिशु मृत्युदर, मातृ मृत्युदर, जन्मदर, मृत्युदर,राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, मेन्स के लिये:शिशु मृत्युदर संबंधित मुद्दे तथा सरकार के प्रयास |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में रजिस्ट्रार जनरल इंडिया (Registrar General India) के कार्यालय के अनुसार, मध्य प्रदेश में शिशु मृत्युदर (Infant Mortality Rate- IMR) वर्ष 2018 में पिछले वर्ष अर्थात् वर्ष 2017 की तुलना में 47 से बढ़कर 48 हो गई है।
- रजिस्ट्रार जनरल का कार्यालय गृह मंत्रालय केअधीन है। यह नमूना पंजीकरण प्रणाली बुलेटिन (Sample Registration System bulletin) जारी करता है, जिसके द्वारा राज्यों के जन्मदर, मृत्युदर एवं शिशु मृत्युदर के अनुमानित आँकड़ें प्रस्तुत किये जाते हैं।
प्रमुख बिंदु:
- देश में औसत शिशु मृत्युदर प्रति 1,000 जीवित जन्मे बच्चों पर 32 है जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों में औसत शिशु मृत्युदर 36 तथा शहरी क्षेत्रों में 23 हैं।
- मध्य प्रदेश में ग्रामीण क्षेत्रों में शिशु मृत्युदर 52 तथा शहरी क्षेत्रों में शिशु मृत्युदर 36 हैं।
- मध्य प्रदेश में देश में सर्वाधिक शिशु मृत्युदर (48/1000) है।
- वर्ष 2018 में राज्य में बालकों में शिशु मृत्युदर 1,000 जीवित बालकों पर 51 तथा बालिकाओं में शिशु मृत्युदर 1,000 जीवित बालिकाओं पर 46 रही।
- मध्य प्रदेश में 1,000 जीवित जन्मों में से 26 शिशुओं की मृत्यु अर्थात् आधे से अधिक शिशुओं की मृत्यु जन्म के पहले सात दिनों के भीतर हुई है।
- मध्य प्रदेश के बाद सर्वाधिक शिशु मृत्युदर के मामले में उत्तर प्रदेश का द्वितीय स्थान है जहाँ शिशु मृत्युदर (43/1000) है तथा बड़े राज्यों में सबसे कम शिशु मृत्युदर (7/1000) केरल में है।
शिशु मृत्युदर: शिशु मृत्युदर द्वारा प्रति 1000 जीवित जन्मे बच्चों में से एक वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मौत की संख्या को प्रदर्शित करता है।
मातृ मृत्युदर: यह गर्भावस्था या उसके प्रबंधन से संबंधित किसी भी कारण से (आकस्मिक या अप्रत्याशित कारणों को छोड़कर) प्रति 100,000 जीवित जन्मों में मातृ मृत्यु की वार्षिक संख्या है।
जन्मदर: जन्मदर से तात्पर्य प्रति वर्ष 1000 व्यक्तियों पर जीवित शिशुओं की कुल संख्या से है।
मृत्युदर: मृत्युदर से तात्पर्य प्रति 1000 जीवित जन्मे शिशुओं में से 1 वर्ष या इससे कम उम्र के शिशुओं की कुल संख्या से है।
शिशु मृत्युदर के कारण:
- समय से पहले प्रसव, संक्रमण, जन्म के समय रक्त में ऑक्सीजन की कमी (Birth Asphyxiation) एवं जटिल प्रसव के दौरान उपचार की देरी शिशु मृत्युदर को बढ़ाती है।
शिशु मृत्युदर से संबंधित मुद्दे/चिंताएँ:
- जन्म अंतराल (Birth Spacing): ज्यादातर मामलों में दो बच्चों का जन्म तीन वर्ष के जन्मान्तराल के बजाए एक-डेढ़ वर्ष के अंतराल में ही हुआ होता है इसके परिणामस्वरूप कम वज़न वाले शिशुओं का समय से पहले ही प्रसव (Premature Deliveries) हो जाता है।
- उच्च कुपोषण (High Malnutrition): गर्भवती होने के साथ-साथ स्तनपान कराने वाली माताओं में उच्च कुपोषण का स्तर अक्सर शिशुओं की मृत्यु का कारण बनता है।
- मातृ स्वास्थ्य (Maternal Health): इसका असर शिशु मृत्युदर पर भी पड़ता है। वर्ष 2015 से वर्ष 2017 के मध्य, मध्य प्रदेश में मातृ मृत्युदर अनुपात 188/100000 दर्ज किया गया जो देश के औसत मातृ मृत्युदर अनुपात 122/100000 की तुलना में अधिक है।
- प्रसव पूर्व देखभाल (Antenatal Care): राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-4 (2015-16) के अनुसार, केवल 11.4% माताओं को ही पूर्ण प्रसव पूर्व उचित देखभाल मिल पाती है।
समाधान:
- राज्यों की प्रतिक्रिया (Response of States): स्वास्थ्य राज्य सूची का विषय है जिसके तहत राज्य सरकार स्वास्थ्य देखभाल की ज़िम्मेदारी राज्य सरकार की होती। इसके लिये मानव एवं वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता के संबंध में राज्यों की मज़बूत प्रतिबद्धता की आवश्यकता है।
- प्रसवपूर्व और प्रसवोत्तर देखभाल (Antenatal and Postnatal Care): प्रसवपूर्व और प्रसवोत्तर देखभाल में पर्याप्त स्वास्थ्य जांच, संस्थागत प्रसव और दवा की आवश्यकता पर ध्यान देना ज़रूरी है।
- प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल का पुनरूद्धार (Revamping of Primary Health Care): प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली को सुविधाओं, प्रशिक्षित चिकित्सा पेशेवरों और चिकित्सा उपकरणों को विकसित किये जाने की आवश्यकता है।
- बाल चिकित्सा गहन देखभाल इकाईयाँ (Paediatric Intensive Care Units): शिशु मृत्युदर को कम करने के लिये, जन्मजात बच्चों की देखभाल के लिये ‘इंटेंसिव यूनिट केयर’ (Intensive Care Unit- ICUs) स्थापित किये जाने चाहिये।
- जनशक्ति का संवर्द्धन (Enhancement of Manpower): जनशक्ति के संवर्द्धन के तहत- डॉक्टरों, कुशल आशा कार्यकर्त्ताओं और नर्सों को प्राथमिक स्वास्थ्य पर विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में संस्थागत प्रसव कराने के लिये बेहतर चिकित्सीय सहायता प्राप्त होनी चाहिये।
- डिजिटलीकरण (Digitisation): राष्ट्रीय स्वास्थ्य पोर्टल का उपयोग जननी सुरक्षा योजना के माध्यम से संस्थागत प्रसव के लिये एकल बिंदु के रूप में किया गया है।
सरकारी प्रयास:
- राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन: राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन ( National Health Mission- NHM) में दो उप-मिशन शामिल हैं पहला, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (National Rural Health Mission- NRHM) जो वर्ष 2005 में शुरू किया गया है दूसरा, राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन (National Urban Health Mission- NUHM) जो वर्ष 2013 में शुरू किया गया है।
- यह मिशन समान, सस्ती और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं तक लोगों की सार्वभौमिक पहुँच को सुनिश्चित करता है जो लोगों की आवश्यकताओं के प्रति जवाबदेह और उत्तरदायी है।
- भारत नवजात कार्य योजना: इसे वर्ष 2014 में ‘सिंगल डिजिट नेशनल मोर्टेलिटी रेट’ (Single Digit Neonatal Mortality Rate) तथा ‘सिंगल डिजिट स्टील बर्थ रेट’ (Single Digit Still-birth Rate) के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये शुरू किया गया था।
- अन्य योजनाएँ: जननी सुरक्षा योजना (Janani Suraksha Yojana- JSY), जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम (Janani Shishu Suraksha Karyakaram- JSSK), प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना Pradhan Mantri Matru Vandana Yojana- PMMVY) आदि कुछ अन्य प्रमुख योजनाएँ है जिन्हें संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देने के लिए शुरू किया गया ताकि शिशु मृत्युदर को कम किया जा सके।
आगे की राह:
सतत् विकास लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए शिशु मृत्युदर के स्तर को नीचे लाने के प्रयास किए जा रहे हैं, जिसके तहत वर्ष 2025 तक शिशु मृत्युदर को 1,000 जीवित जन्मों पर 23 लाना है। हालांँकि इसके लिये उपचारात्मक देखभाल के बजाय निवारक उपायों की आवश्यकता है। धन की उपलब्धता (केंद्र से) के साथ-साथ राज्यों द्वारा इसके लिये विवेकपूर्ण तरीके से योजना बनाने, नीतियों के प्रभावी कार्यान्वयन एवं आवश्यक स्वास्थ्य बुनियादी ढाँचे की आवश्यकता है। पोषण अभियान (POSHAN Abhiyan) की भांति अलग-अलग योजनाओं के बेहतर समन्वय, अभिसरण और समग्र एकीकरण सुनिश्चित करने के लिये विभिन्न मंत्रालय एक-दूसरे के साथ सहयोग करने की आवश्यकता हैं ।