इंदौर शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 11 नवंबर से शुरू   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली अपडेट्स


सामाजिक न्याय

श्वसन प्रणाली पर पराली जलाने का प्रभाव

  • 08 Nov 2021
  • 9 min read

प्रिलिम्स के लिये: 

पार्टिकुलेट मैटर-2.5, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, विश्व स्वास्थ्य संगठन

मेन्स के लिये:

श्वसन प्रणाली पर पराली जलाने का प्रभाव, पराली जलाने के अन्य प्रभाव

चर्चा में क्यों?

पंजाब में किये गए एक हालिया अध्ययन के मुताबिक, पराली जलाने के कारण होने वाले प्रदूषण ने स्थानीय स्तर पर फेफड़ों की कार्यक्षमता को काफी प्रभावित किया है और यह ग्रामीण पंजाब में महिलाओं के लिये विशेष रूप से हानिकारक साबित हुआ है।

  • यह अध्ययन मुख्यतः दो चरणों में आयोजित किया गया था: पहला अक्तूबर 2018 में और दूसरा मार्च-अप्रैल 2019 में।

प्रमुख बिंदु

  • उच्च PM2.5 स्तर:
    • दोनों चरणों के बीच ‘PM2.5’ (पार्टिकुलेट मैटर-2.5) की सांद्रता 100 ग्राम/घनमीटर से बढ़कर 250 ग्राम/घनमीटर अथवा दोगुनी से अधिक हो गई।
      • PM2.5 उन कणों को संदर्भित करता है, जिनका व्यास 2.5 माइक्रोमीटर से कम होता है (मानव बाल की तुलना में 100 गुना अधिक पतला)।
      • इसके कारण श्वसन संबंधी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं और दृश्यता में भी कमी होती है। यह एक अंतःस्रावी विघटनकर्त्ता है, जो इंसुलिन स्राव और इंसुलिन संवेदनशीलता को प्रभावित कर सकता है, इस प्रकार यह मधुमेह में योगदान देता है।
    • अध्ययन के दौरान इसका स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित वायु गुणवत्ता मानकों से लगभग 10-15 गुना अधिक पाया गया, हालाँकि भारत के केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) द्वारा अनुमेय मानक विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों से अधिक हैं।
      • विश्व स्वास्थ्य संगठन: PM2.5 की वार्षिक औसत सांद्रता 5 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से अधिक नहीं होनी चाहिये, जबकि 24 घंटे का औसत एक्सपोज़र 15 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से अधिक नहीं होना चाहिये।
      • केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड: PM2.5 की वार्षिक औसत सांद्रता 40 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से अधिक नहीं होनी चाहिये, जबकि 24 घंटे का औसत एक्सपोज़र 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से अधिक नहीं होना चाहिये।
  • प्रभाव:
    • सभी आयु समूहों (10-60 वर्ष) में सांस लेने में तकलीफ, त्वचा पर चकत्ते, आँखों  में खुजली आदि सहित अधिकांश लक्षणों में दो से तीन गुना वृद्धि देखी गई।
      • सबसे अधिक श्वसन संबंधी शिकायतें बुजुर्ग आबादी (>40-60) द्वारा दर्ज की गई थीं।
    • PM2.5 सांद्रता में वृद्धि के साथ फेफड़ों की कार्यक्षमता में गिरावट दर्ज की गई।
      • पुरुषों में फेफड़ों की कार्यक्षमता में 10-14% की गिरावट हुई और सभी आयु वर्ग की महिलाओं में लगभग 15-18% की गिरावट देखी गई।

पराली जलाना: 

  • परिचय:
    • पराली जलाना, अगली फसल बोने के लिये फसल के अवशेषों को खेत में आग लगाने की क्रिया है।
    • इसी क्रम में सर्दियों की फसल (रबी की फसल) की बोआई हरियाणा और पंजाब के किसानों द्वारा कम अंतराल पर की जाती है तथा अगर सर्दी की छोटी अवधि के कारण फसल बोआई में देरी होती है तो उन्हें काफी नुकसान हो सकता है, इसलिये पराली को जलाना पराली की समस्या का सबसे सस्ता और तीव्र तरीका है।
    • पराली जलाने की यह प्रक्रिया अक्तूबर के आसपास शुरू होती है और नवंबर में अपने चरम पर होती है, जो दक्षिण-पश्चिम मानसून की वापसी का समय भी है।
  • पराली जलाने का प्रभाव:
    • प्रदूषण:
      • खुले में पराली जलाने से वातावरण में बड़ी मात्रा में ज़हरीले प्रदूषक उत्सर्जित होते हैं जिनमें मीथेन (CH4), कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (VOC) और कार्सिनोजेनिक पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन जैसी हानिकारक गैसें होती हैं।
      • वातावरण में छोड़े जाने के बाद ये प्रदूषक वातावरण में फैल जाते हैं, भौतिक और रासायनिक परिवर्तन से गुज़र सकते हैं तथा अंततः स्मॉग की मोटी चादर बनाकर मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं।
    • मिट्टी की उर्वरता:
      • भूसी को ज़मीन पर जलाने से मिट्टी के पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं, जिससे यह कम उर्वरक हो जाती है।
    • गर्मी उत्पन्न होना:
      • पराली जलाने से उत्पन्न गर्मी मिट्टी में प्रवेश करती है, जिससे नमी और उपयोगी रोगाणुओं को नुकसान होता है।
  • पराली जलाने के विकल्प:
    • पराली का स्व-स्थाने (In-Situ) प्रबंधन: ज़ीरो-टिलर मशीनों और जैव-अपघटकों के उपयोग द्वारा फसल अवशेष प्रबंधन।
    • इसी प्रकार, बाह्य-स्थाने (Ex-Situ) प्रबंधन : जैसे मवेशियों के चारे के रूप में चावल के भूसे का उपयोग करना।
    • प्रौद्योगिकी का उपयोग- उदाहरण के लिये टर्बो हैप्पी सीडर (Turbo Happy Seeder-THS) मशीन, जो पराली को जड़ समेत उखाड़ फेंकती है और साफ किये गए क्षेत्र में बीज भी बो सकती है। इसके बाद पराली को खेत के लिये गीली घास के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
    • फसल पैटर्न बदलना: यह गहरा और अधिक मौलिक समाधान है।
    • बायो एंजाइम-पूसा: भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (Indian Agriculture Research Institute) ने बायो एंजाइम-पूसा (bio enzyme-PUSA) के रूप में एक परिवर्तनकारी समाधान पेश किया है।
      • यह अगले फसल चक्र के लिये उर्वरक के खर्च को कम करते हुए जैविक कार्बन और मृदा स्वास्थ्य में वृद्धि  करता है।
  • अन्य कार्य योजना:
    • पंजाब, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र  (NCR) राज्यों और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (GNCTD)  ने कृषि पराली जलाने की समस्या से निपटने के लिये वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग द्वारा दी गई रूपरेखा के आधार पर निगरानी के लिये विस्तृत कार्य योजना तैयार की है।

Respiratory-Health

आगे की राह

  • पराली जलाने पर अंकुश लगाने के लिये जुर्माना लगाना भारतीय सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के लिहाज़ से बेहतर विकल्प नहीं है। हमें वैकल्पिक समाधानों पर ध्यान देने की ज़रूरत है।
  • यद्यपि सरकार मशीनों का वितरण कर रही है, किंतु स्व-स्थानिक प्रबंधन के लिये सभी को मशीनें नहीं मिल पाती हैं। सरकार को उनकी उपलब्धता सभी के लिये सुनिश्चित करनी चाहिये।
  • इसी तरह  बाह्य-स्थाने (Ex-Situ) उपचार प्रबंधन में कुछ कंपनियों ने अपने उपयोग के लिये पराली इकट्ठा करना शुरू कर दिया है, किंतु इस दृष्टिकोण को और अधिक बढ़ावा दिया जाना आवश्यक है।

स्रोत: द हिंदू

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2