वैश्विक मृदा सम्मेलन 2024 और भारत में मृदा | 23 Nov 2024

प्रिलिम्स के लिये:

मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, शून्य बजट प्राकृतिक कृषिसतत् विकास लक्ष्य 15, भारत में मृदा के प्रकार

मेन्स के लिये:

मृदा स्वास्थ्य और स्थिरता, सतत् कृषि पद्धतियाँ, भारत के मृदा संरक्षण प्रयास

स्रोत: पी.आई.बी

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में वैश्विक मृदा सम्मेलन (GSC) 2024 नई दिल्ली में आयोजित किया गया, जिसमें खाद्य सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन शमन और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिये मृदा स्वास्थ्य के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया।

वैश्विक मृदा सम्मेलन 2024 क्या है?

  • विषय में: भारतीय मृदा विज्ञान सोसायटी (ISSS) द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मृदा विज्ञान संघ (IUSS) के सहयोग से आयोजित GSC 2024 का उद्देश्य सतत् मृदा/संसाधन प्रबंधन में चुनौतियों का समाधान करना है। 
    • इस कार्यक्रम का उद्देश्य इस बात पर वैश्विक संवाद को बढ़ावा देना था कि किस प्रकार मृदा की देखभाल विभिन्न क्षेत्रों में स्थिरता को बढ़ावा दे सकती है।
  • विषय: खाद्य सुरक्षा से परे मिट्टी की देखभाल: जलवायु शमन परिवर्तन और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएँ।
  • GSC 2024 की मुख्य विशेषताएँ: मृदा स्वास्थ्य को एक गंभीर मुद्दा माना गया, जिसमें मृदा क्षरण से उत्पादकता प्रभावित हो रही है और वैश्विक खाद्य सुरक्षा के लिये खतरा पैदा हो रहा है। 
    • भारत की लगभग 30% मृदा कटाव, लवणता, प्रदूषण और कार्बनिक कार्बन की हानि के कारण क्षतिग्रस्त हो चुकी है।
    • सम्मेलन में मृदा क्षरण से निपटने में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के महत्व पर जोर दिया गया, जो संयुक्त राष्ट्र के सतत् विकास लक्ष्य 15 (SDG 15) के अनुरूप है।
      • SDG 15 का उद्देश्य स्थलीय पारिस्थितिकी प्रणालियों के सतत् उपयोग को संरक्षित करना, पुनर्स्थापित करना और बढ़ावा देना, वनों का स्थायी प्रबंधन करना, मरुस्थलीकरण से निपटना, भूमि क्षरण को रोकना और जैवविविधता की हानि को रोकना है। 

नोट: 

  • ISSS की स्थापना वर्ष 1934 में कलकत्ता में सोसायटी पंजीकरण अधिनियम 1860 के तहत की गई थी। सोसायटी मृदा विज्ञान ज्ञान को बढ़ावा देने के लिये सेमिनार और सम्मेलन आयोजित करती है। 
  • IUSS एक गैर-लाभकारी, गैर-सरकारी वैज्ञानिक संस्था है। यह अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान परिषद (ISC) का हिस्सा है। 
    • IUSS मृदा विज्ञान अनुसंधान और इसके अनुप्रयोगों को बढ़ावा देता है तथा वैज्ञानिकों के बीच वैश्विक सहयोग को बढ़ावा देता है।

भारत में मृदा स्वास्थ्य के संबंध में चिंताएँ क्या हैं?

  • मृदा क्षरण : भारत की एक तिहाई से अधिक मृदा असंवहनीय कृषि पद्धतियों और अप्रभावी मृदा प्रबंधन पद्धतियों के कारण क्षरण के खतरे में है।
  • मृदा अपरदन और उर्वरता की हानि : भारत में प्रति वर्ष प्रति हेक्टेयर 15.35 टन मृदा नष्ट हो जाती है, जिससे फसल उत्पादकता कम हो जाती है और 13.4 मिलियन टन वर्षा आधारित फसलों का नुकसान होता है। 
    • इससे महत्त्वपूर्ण आर्थिक क्षति होती है, साथ ही बाढ़, सूखे में वृद्धि होती है तथा जलाशय क्षमता में 1-2% वार्षिक कमी आती है।
  • मृदा लवणता: लवणता जल अंतःस्यंदन, पोषक तत्त्व अवशोषण और मृदा वातन को कम करके मृदा के स्वास्थ्य को हानि पहुँचाती है, जिससे फसल उत्पादकता में कमी आती है। 
  • यह मृदा संरचना को बाधित करता है, लवण-सहिष्णु जीवों को बढ़ावा देता है, तथा मृदा क्षरण को तीव्र करता है, जिससे अंततः भूमि बंजर हो जाती है।
    • कार्बनिक तत्त्वों और पोषक तत्व स्तर में कमी: एक प्रमुख चिंता का विषय यह है कि भारतीय मृदा में कार्बनिक तत्व असामान्य रूप से कम (लगभग 0.54%) है, जो आवश्यक पोषक तत्वों की कमी को दर्शाता है, जो मृदा की उर्वरता और कृषि उत्पादकता को प्रभावित करता है।
      • भारत की 70% से अधिक मृदा या तो अम्लीय या क्षारीय है, जो प्राकृतिक पोषक चक्र को बाधित करती है। 
      • इसके अतिरिक्त, भारतीय मृदा में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम जैसे आवश्यक पोषक तत्वों की प्राय: कमी रहती है, जिससे स्वास्थ्य संकट में और भी वृद्धि होती है। 
  • मरुस्थलीकरण: यह कार्बनिक पदार्थ, पोषक तत्त्व और नमी को कम करके मृदा को क्षरण की ओर ले जाता है। इसके परिणामस्वरूप मृदा की उर्वरता कम हो जाती है, जिससे कृषि उत्पादकता कम हो जाती है।
    • मरुस्थलीकरण से मृदा-क्षरण में तीव्रता आती है, जैवविविधता में कमी आती है तथा भूमि कृषि के लिये अनुपयुक्त हो जाती है,जिससे खाद्य सुरक्षा पर संकट उत्पन्न होता है।
  • उपजाऊ भूमि का उपयोग : उपजाऊ कृषि भूमि का एक बड़ा भाग गैर-कृषि उद्देश्यों के लिये उपयोग किया जा रहा है, जिससे बहुमूल्य मृदा संसाधनों की हानि हो रही है।

मृदा संरक्षण के लिये भारत की पहल :

भारत में मृदा के बारे में मुख्य तथ्य क्या हैं?

  • मृदा का वर्गीकरण: भारत की विविध विशेषताओं, भू-आकृति, जलवायु क्षेत्रों और वनस्पति प्रकारों ने विभिन्न प्रकार की मृदाओं के विकास में योगदान दिया है।
    • ऐतिहासिक रूप से, भारतीय मृदा को दो मुख्य समूहों में वर्गीकृत किया गया है: उर्वर (उपजाऊ) और ऊसर (अनुर्वर)। 
    • वर्ष 1956 में स्थापित भारतीय मृदा सर्वेक्षण तथा राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण एवं भूमि उपयोग नियोजन ब्यूरो ने गठन, रंग, संरचना और स्थान को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राज्य अमेरिका के कृषि विभाग (USDA) मृदा वर्गीकरण के आधार पर भारतीय मृदाओं का वर्गीकरण किया गया है।
  • भारत में प्रमुख मृदा के प्रकार:

    मृदा का प्रकार

वितरण

विशेषताएँ

उत्पादित मुख्य फसलें

जलोढ़ मृदा

उत्तरी मैदान, नदी घाटियाँ, पूर्वी तट के डेल्टा और गुजरात के मैदान

रेतीली दोमट से लेकर चिकनी मृदा तक; पोटाश की प्रचुरता, फास्फोरस की कमी; खादर (नवीन जलोढ़) और भांगर (पुरानी जलोढ़); रंग हल्के भूरे से लेकर राख जैसे भूरे रंग तक

चावल, गेहूँ, गन्ना, कपास

काली मृदा

दक्कन का पठार (महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु)

चिकनी, गहरी, अपरागम्य; नम होने पर विस्तारित और चिपचिपी हो जाती है, शुष्क होने पर सिकुड़ जाती है एवं उसमें दरार पड़ जाती हैं; लंबे समय तक नमी बनी रहती है; चूना, लोहा, मैग्नेशिया, एल्युमिना एवं पोटाश की प्रचुरता; फास्फोरस, नाइट्रोजन तथा ह्यूमस की कमी होती है।

कपास, ज्वार, दालें एवं बाजरा

लाल और पीली मृदा

पूर्वी और दक्षिणी दक्कन पठार, ओडिशा के कुछ भाग, छत्तीसगढ़, दक्षिणी गंगा का मैदान

क्रिस्टलीय आग्नेय चट्टानों में विकसित होती है; लौह के कारण लाल, हाइड्रेट होने पर पीली; बारीक दाने वाली उपजाऊ मृदा होती है; नाइट्रोजन, फास्फोरस और ह्यूमस की कम मात्रा

गेहूँ, चावल, बाजरा, दालें, मूंगफली

लैटेराइट मृदा

उच्च तापमान एवं वर्षा वाले क्षेत्र (कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, ओडिशा, असम)

तीव्र निक्षालन का परिणाम; लौह ऑक्साइड और पोटाश से भरपूर, कार्बनिक पदार्थ, नाइट्रोजन, फॉस्फेट और कैल्शियम की निम्न मात्रा 

काजू, चाय, कॉफी, रबर, नारियल


शुष्क मृदा


पश्चिमी राजस्थान, पंजाब और हरियाणा

रेतीली और लवणीय; आर्द्रता और ह्यूमस की कमी; उच्च वाष्पीकरण एवं कैल्शियम के कारण 'कंकर' जैसी परतें बन जाना; नाइट्रोजन की कमी, फॉस्फेट सामान्य; रंग- लाल से भूरा

जौ, कपास, बाजरा, दालें

लवणीय मृदा

पश्चिमी गुजरात, पूर्वी तटीय डेल्टा, सुंदरबन (पश्चिम बंगाल), अत्यधिक सिंचाई वाले क्षेत्र (पंजाब, हरियाणा)

सोडियम, पोटेशियम और मैग्नीशियम की अधिकता; शुष्क जलवायु और खराब जल निकासी के कारण खारापन; नाइट्रोजन और कैल्शियम की कमी; सिंचित क्षेत्रों में केशिका क्रिया के कारण लवण की परत का निर्माण

चावल, गेहूँ, जौ (जिप्सम उपयोग के साथ)

पीट मृदा

उच वर्षा और उच्च आर्द्रता वाले क्षेत्र (उत्तरी बिहार, दक्षिणी उत्तराखंड, तटीय पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तमिलनाडु)

उच्च कार्बनिक पदार्थ एवम ह्यूमस; क्षारीय हो सकती है; 40-50% तक कार्बनिक पदार्थ; जलमग्न और दलदली क्षेत्रों में मिलती है

चावल, जूट

वन मृदा

पर्याप्त वर्षा वाले वन क्षेत्र, हिमालय, पश्चिमी और पूर्वी घाट

संरचना और बनावट में भिन्नता; घाटियों में दोमट और गादयुक्त, ऊपरी ढलानों में मोटे दाने वाली; बर्फ से ढके क्षेत्रों में अम्लीय और कम ह्यूमस वाली; निचली घाटियों में उपजाऊ

चाय, कॉफी, मसाले, उष्णकटिबंधीय फल

मृदा परिच्छेदिका

  • परिचय: मृदा परिच्छेदिका का आशय मृदा की ऊर्ध्वाधर संरचना से है जिससे मृदा की विभिन्न क्षैतिज परतों/संस्तर को दर्शाया जाता है जो बनावट, रंग एवं रासायनिक संरचना में भिन्न होती हैं।
    • जलवायु, जीवों और भूमि सतह की अंतःक्रियाओं के माध्यम से विकसित मृदा संस्तर कार्बनिक (O) या खनिज (A, E, B, C) हो सकते हैं।

मृदा की प्रमुख परतें:

  • O- संस्तर (कार्बनिक परत): इसमें पत्तियाँ, टहनियाँ और काई जैसे अविघटित कार्बनिक पदार्थ होते हैं।
  • A- संस्तर (शीर्ष मृदा): कार्बनिक पदार्थ और खनिजों से भरपूर, पौधों की वृद्धि में सहायक, मुलायम और छिद्रयुक्त।
  • E- संस्तर  (अपवाहन परत): निक्षालन (पानी द्वारा खनिजों का निष्कासन) के कारण एक हल्की, पोषक तत्त्वों से रहित परत।
  • B- संस्तर (अधोमृदा): ऊपरी परतों से निक्षालित खनिजों को एकत्रित करता है, इसमें लोहा, मृदा और कार्बनिक यौगिक होते हैं। 
  • C- संस्तर (मूल परत): यह टूटी हुई आधारशिला या सैप्रोलाइट से बनी होने के कारण मृदा का पुर्णतः विकास नही हो पता है, जिससे इसमें बहुत कम कार्बनिक पदार्थ होते हैं।
  • R-संस्तर (आधारशिला): मृदा परिच्छेदिका के आधार पर अपक्षयित आधारशिला।

मृदा की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिये क्या किया जा सकता है?

  • नीतियाँ: SHC जैसी अधिक व्यापक योजनाएँ विकसित करनी चाहिये, जिससे किसानों को मृदा की पोषक स्थिति के बारे में विस्तृत जानकारी मिल सके। इससे किसानों को उर्वरक उपयोग एवं मृदा प्रबंधन के बारे में सूचित निर्णय लेने में मदद मिलेगी।
  • कार्बन पृथक्करण: मृदा कार्बन पृथक्करण वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) को कार्बनिक रूप में संग्रहीत करके मृदा स्वास्थ्य को बढ़ाता है, जिससे उर्वरता और जल प्रतिधारण में सुधार होता है। कवर क्रॉपिंग एवं कम जुताई जैसी प्रथाएँ कार्बन के स्तर और स्थिरता को बढ़ाती हैं।
  • सतत् कृषि पद्धतियाँ: भारत मृदा की गुणवत्ता में सुधार, कटाव को कम करने और फसल की पैदावार बढ़ाने के लिये बड़े पैमाने पर बिना जुताई वाली कृषि को अपनाया जा सकता है, जैसा कि ब्राज़ील में सफलतापूर्वक कार्यान्वित किया गया है।
    • यह सतत् अभ्यास बेहतर उत्पादकता और पर्यावरण संरक्षण सुनिश्चित करता है।
    • फसल चक्र, कृषि वानिकी और जैविक कृषि  जैसी सतत् कृषि पद्धतियाँ मृदा स्वास्थ्य और पर्यावरण संरक्षण के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।

निष्कर्ष:

वैश्विक मृदा सम्मेलन 2024 द्वारा खाद्य सुरक्षा और जलवायु प्रबंधन सुनिश्चित करने के लिये सतत् मृदा प्रबंधन की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है। भारत को मृदा क्षरण को दूर करने के लिये बेहतर कृषि पद्धतियों और नीतियों को अपनाना चाहिये। दीर्घकालिक कृषि और आर्थिक स्थिरता के लिये मृदा स्वास्थ्य को मज़बूत करना महत्त्वपूर्ण है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: मृदा स्वास्थ्य खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।" मृदा क्षरण के संबंध में भारत के सामने आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिये साथ ही स्थायी समाधान सुझाइये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रश्न. भारत की काली कपासी मृदा का निर्माण किसके अपक्षय के कारण हुआ है?

(a) भूरी वन मृदा
(b) विदरी  ज्वालामुखीय चट्टान
(c) ग्रेनाइट और शिस्ट
(d) शेल और चूना-पत्थर

उत्तर: (b)

व्याख्या:

  • काली मृदा, कपास उगाने के लिये आदर्श है इसे रेगुर मृदा या काली कपास मृदा के नाम से भी जाना जाता है। काली मृदा के निर्माण के लिये चट्टान सामग्री के साथ-साथ जलवायु परिस्थितियाँ भी महत्त्वपूर्ण कारक हैं। काली मृदा दक्कन (बेसाल्ट) क्षेत्र की प्रमुख पहचान है जो उत्तर-पश्चिमी दक्कन के पठारमें फैपायी जाती है और इसका निर्माण लावा प्रवाह या विदरी ज्वालामुखीय चट्टान से हुआ है।
  • दक्कन के पठार में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के कुछ हिस्से शामिल हैं। काली मृदा, गोदावरी व कृष्णा के ऊपरी भाग तथा उत्तरी महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के कुछ हिस्से में पाई जाती हैं।
  • रासायनिक रूप से काली मृदा चूना, लोहा, मैग्नेशिया और एल्युमीनियम के संदर्भ में समृद्ध है। इसमें पोटाश भी होता है। लेकिन इसमें फॉस्फोरस, नाइट्रोजन और कार्बनिक पदार्थों की कमी होती है। मृदा का रंग गहरे काले से लेकर भूरे रंग तक होता है।

अतः विकल्प (b) सही है।


प्रश्न. भारत की लेटराइट मिट्टियों के संबंध में निम्नलिखित कथनों में से कौन-से सही हैं? (2013)

  1. यह साधारणतः लाल रंग की होती है।
  2.  यह नाइट्रोजन और पोटाश से समृद्ध होती है।
  3.  उनका राजस्थान और उत्तर प्रदेश में अच्छा विकास हुआ है।
  4.  इन मिट्टियों में टैपियोका और काजू की अच्छी उपज होती है।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1, 2 और 3
(b) केवल 2, 3 और 4
(c) केवल 1 और 4
(d) केवल 2 और 3

उत्तर: (c)