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भारतीय राजव्यवस्था

लैंगिक अंतराल और न्यायपालिका में संवेदीकरण

  • 03 Dec 2020
  • 11 min read

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में भारत के महान्यायवादी के.के. वेणुगोपाल ने उच्चतम न्यायालय में दाखिल एक लिखित सुझाव में न्यायपालिका के सदस्यों के बीच लिंग संवेदीकरण को बढ़ाने की आवश्यकता पर विशेष ज़ोर दिया है।   

  • उन्होंने उच्चतर न्यायपालिका में लंबे समय से महिला न्यायाधीशों की संख्या में बनी हुई कमी को भी रेखांकित किया।

प्रमुख बिंदु:

  • पृष्ठभूमि: 
    • उच्चतम न्यायालय ने यौन अपराधियों के लिये ज़मानत की शर्तें निर्धारित करते हुए  महान्यायवादी और अन्य लोगों से पीड़ितों के प्रति लिंग संवेदनशीलता में सुधार के तरीकों पर अपनी सिफारिशें प्रस्तुत करने को कहा था।
    • गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय की पीठ ने ऐसे यौन अपराध के अपराधी जो आगे चलकर पीड़ितों का और अधिक उत्पीड़न करते हैं, के लिये न्यायालयों द्वारा जमानत की शर्तों के निर्धारण के संदर्भ में विचार आमंत्रित किये थे। 
      • हाल ही में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने यौन अपराध के आरोपी एक व्यक्ति को जमानत की शर्त के रूप में पीड़ित से राखी बंधवाने की बात कही थी। 
  • न्यायपालिका में लैंगिक अंतराल पर डेटा: 
    • वर्तमान में उच्चतम न्यायालय में मात्र दो महिला न्यायाधीश है, जबकि उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश के पद के लिये 34 सीटें आरक्षित हैं, इसके अलावा भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद पर आज तक किसी भी महिला न्यायाधीश को नियुक्त नहीं किया गया है। 
    • देश के उच्चतम न्यायालय और सभी उच्च न्यायालयों में निर्धारित 1,113 की क्षमता के विपरीत केवल 80 महिला न्यायाधीश ही कार्यरत हैं। 
      • इन 80 महिला न्यायाधीशों में से उच्चतम न्यायालय में मात्र 2 और अन्य देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में कार्यरत हैं, यह संख्या कुल न्यायाधीशों का मात्र 7.2% ही है।
      • देश के 26 न्यायालयों (उच्च न्यायालय सहित) के डेटा के अध्ययन से पता चलता है कि देश में सबसे अधिक महिला न्यायाधीशों की संख्या हरियाणा और पंजाब उच्च न्यायालय (कुल 85 न्यायाधीशों में से 11 महिला न्यायाधीश) में है, इसके बाद मद्रास उच्च न्यायालय दूसरे स्थान पर है जहाँ कुल 75 में से 9 महिला न्यायाधीश हैं। दिल्ली और महाराष्ट्र उच्च न्यायालय में 8-8 महिला न्यायाधीश हैं।   
      • मणिपुर, मेघालय, पटना, त्रिपुरा, तेलंगाना, और उत्तराखंड उच्च न्यायालय  में कोई भी महिला न्यायाधीश कार्यरत नहीं है। 
    • वर्तमान में न्यायाधिकरणों या निचली अदालतों में महिला न्यायाधीशों की संख्या का आँकड़ा एकत्र करने के लिये कोई भी केंद्रीय प्रणाली नहीं है।
      • वरिष्ठ अधिवक्ताओं के मामले में वर्तमान में उच्चतम न्यायालय में कुल 403 पुरुष वरिष्ठ अधिवक्ताओं की तुलना में केवल 17 महिलाएँ ही हैं।
      • इसी प्रकार दिल्ली उच्च न्यायालय में 229 पुरुषों के मुकाबले केवल 8 वरिष्ठ महिला अधिवक्ता और बॉम्बे उच्च न्यायालय में 157 पुरुषों के मुकाबले केवल 6 वरिष्ठ महिला अधिवक्ता हैं। 
  • न्यायपालिका में महिला प्रतिनिधित्त्व का महत्त्व: 
    • वर्ष 2030 का सतत् विकास एजेंडा और सतत् विकास लक्ष्य (विशेष रूप से लक्ष्य-5 और 16) लैंगिक समानता और न्यायपालिका जैसे सार्वजनिक संस्थानों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की वैश्विक ज़िम्मेदारी को रेखांकित करते हैं।
    • महिला न्यायाधीशों के लिये समानता प्राप्त करना न केवल इसलिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह महिलाओं का अधिकार है बल्कि यह और अधिक न्यायसंगत कानून व्यवस्था की स्थापना के लिये भी आवश्यक है। महिला न्यायाधीश न्यायपालिका को मज़बूत बनाने के साथ-साथ न्याय प्रणाली के प्रति जनता के विश्वास को बनाए रखने में सहायता करती हैं।
    • न्यायपालिका महिलाओं न्यायाधीशों का प्रवेश न्यायाप्रणाली को और अधिक पारदर्शी, समावेशी तथा लोगों (जिनके जीवन को वे प्रभावित करते हैं) के प्रतिनिधि के रूप में स्थापित करने की दिशा में एक सकारात्मक कदम है।
    • महिला न्यायाधीश न्यायालयों की वैधता में वृद्धि करती हैं, साथ ही एक सशक्त संदेश भी देती है कि न्यायालय न्याय का सहारा लेने वालों के लिये सुलभ और हमेशा खुले हैं। 
    • महिला न्यायाधीश अपने न्यायिक कार्यों में उन अनुभवों को लाती हैं जो इसे और अधिक व्यापक तथा सहानुभूति पूर्ण दृष्टिकोण प्रदान करते हैं।
    • महिलाओं की उपस्थिति से अधिनिर्णयन में अधिक व्यापकता आती है, क्योंकि महिला न्यायाधीश ऐसे विचार सामने लाती हैं, जिस पर उनकी अनुपस्थिति में ध्यान नहीं दिया गया होता और इस प्रकार चर्चा का दायरा बढ़ जाता है, जो  गैर-विचारशील या अनुचित निर्णयों की संभावनाओं को रोकता है।
    • इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए कि कैसे कानून और नियम लैंगिक रूढ़ियों पर आधारित हो सकते हैं, या वे महिलाओं और पुरुषों पर कैसे अलग-अलग प्रभाव डाल सकते हैं, एक लैंगिक परिप्रेक्ष्य, अधिनिर्णयन की निष्पक्षता को बढ़ाता है, जो अंततः पुरुषों और महिलाओं दोनों को लाभान्वित करता है। 
  • सुझाव
    • न्यायालयों को यह स्पष्ट करना चाहिये कि इस तरह की टिप्पणी (मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का मुद्दा) पूर्णतः अस्वीकार्य है और यह पीड़ित तथा संपूर्ण समाज को व्यापक पैमाने पर नुकसान पहुँचा सकती है।
    • आवश्यक है कि न्यायालयों द्वारा जारी किये जाने वाले आदेश कुछ निश्चित न्यायिक मानकों के अनुरूप हों, साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है कि भविष्य में इस प्रकार की टिप्पणियाँ न की जाएँ।
    • सर्वोच्च न्यायालय को निचली अदालतों और न्यायाधिकरणों में महिला न्यायाधीशों के आँकड़ों के संग्रह से संबंधित दिशा-निर्देश देने चाहिये, साथ ही विभिन्न उच्च न्यायालयों में भी वरिष्ठ अधिवक्ताओं से संबंधित डेटा भी एकत्र किया जाना चाहिये।
    • न्यायपालिका के सभी स्तरों पर महिलाओं का अधिक-से-अधिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाना चाहिये, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय भी शामिल है और यदि संभव हो तो इस पहल की शुरुआत भी सर्वोच्च न्यायालय से ही की जानी चाहिये।
      • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों के साथ परामर्श के बाद नियुक्त किया जाता है, जो वरिष्ठ हों अथवा जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा आवश्यक समझा जाए।
      • अन्य न्यायाधीशों को राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के ऐसे अन्य न्यायाधीशों के साथ परामर्श के बाद नियुक्त किया जाता है, जो वरिष्ठ हों अथवा जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा आवश्यक समझा जाए। ध्यातव्य है कि CJI के अलावा अन्य किसी भी न्यायाधीश की नियुक्ति हेतु राष्ट्रपति के लिये CJI के साथ परामर्श करना बाध्यकारी है।
    • आवश्यक है कि न्यायपालिका में सभी आवश्यक पदों पर महिलाओं के कम-से-कम 50 प्रतिशत प्रतिनिधित्त्व के लक्ष्य को प्राप्त किया जाए, साथ ही सभी अधिवक्ताओं को लिंग संवेदीकरण के विषय पर प्रशिक्षित करना आवश्यक है। 
      • रुढ़िवादी और पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण वाले न्यायाधीशों को यौन हिंसा के मामलों से निपटने के लिये लिंग संवेदीकरण के विषय पर प्रशिक्षित किया जाना आवश्यक है, ताकि वे ऐसे मामलों में महिलाओं के प्रति संवेदनशील हो सकें।

आगे की राह

  • मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का आदेश और इसी तरह के अन्य उदाहरण यह स्पष्ट करते हैं कि न्यायालयों को तत्काल हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है। महिलाओं के प्रतिनिधित्व में सुधार का महत्त्वपूर्ण निर्णय न्यायपालिका का है और यौन हिंसा से जुड़े मामलों में अधिक संतुलित एवं सशक्त दृष्टिकोण की ओर एक लंबा रास्ता तय करना है।
  • एक न्यायालय के लंबे समय से स्थापित जनसांख्यिकी को बदलने से संस्थान को एक नई रोशनी में विचार करने के लिये और अधिक उत्तरदायी बनाया जा सकता है तथा संभावित रूप से आगे आधुनिकीकरण एवं सुधार की ओर अग्रसर हो सकता है। चूँकि न्यायालय की संरचना अधिक विविध हो जाती है, इसलिये इसकी प्रथागत प्रथाएँ कम होती जाती हैं, फलस्वरूप पुराने तरीके जो अक्सर व्यवहार के अस्थिर संहिता या केवल जड़ता पर आधारित होते हैं, अब पर्याप्त नहीं हैं।

स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस

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