हरित विधान के प्रवर्तन में अंतराल | 04 Feb 2022
प्रिलिम्स के लिये:वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972, वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980, पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986, राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम, तटीय विनियमन क्षेत्र अधिसूचना, पर्यावरण प्रभाव आकलन। मेन्स के लिये:पर्यावरण प्रदूषण और गिरावट, भारत में पर्यावरण कानूनों के प्रवर्तन संबंधी मुद्दे। |
चर्चा में क्यों?
वर्ष 2014 और वर्ष 2019 के बीच पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने 11,500 से अधिक पर्यावरण और वन मंज़ूरी प्रदान की हैं।
- हालाँकि संवेदनशील राजनीतिक इच्छाशक्ति एवं प्रभावी अनुपालन तंत्र की अनुपस्थिति के कारण जलवायु परिवर्तन संरक्षण प्रतिबद्धताओं की अनदेखी करने हेतु प्रायः सरकार के विकास रोडमैप की आलोचना की जाती है।
भारत में पर्यावरण संरक्षण का कानूनी ढाँचा:
- संवैधानिक प्रावधान:
- संविधान का अनुच्छेद 48A निर्दिष्ट करता है कि राज्य पर्यावरण की रक्षा एवं सुधार तथा देश के वनों एवं वन्यजीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा।
- अनुच्छेद 51A में प्रावधान है कि प्रत्येक नागरिक पर्यावरण की रक्षा करेगा।
- कानूनी प्रावधान:
भारत में पर्यावरण कानूनों के प्रवर्तन से संबंधित मुद्दे:
- कर्मियों का अभाव: केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के पास हरित कानूनों के तहत क्षेत्रों का सत्यापन करने के लिये 80 से कम अधिकारी हैं जिनसे वर्ष में कम-से-कम एक बार हज़ारों परियोजना स्थलों का दौरा करने की उम्मीद की जाती है।
- राजनीतिक इच्छाशक्ति काअभाव: वर्ष 2006 में आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में सभी पर्यावरण संस्थानों के लिये आवश्यक धनराशि के आवंटन में "मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की अनुपस्थिति" को दोषी ठहराया गया।
- कमोबेश यही स्थिति अभी भी बनी हुई है।
- हरित मंज़ूरी की कमी: निगरानी तंत्र को मज़बूत करने और प्रभावी दंडात्मक उपायों को लागू करने के बजाय सरकारों ने एमनेस्टी (पोस्ट-फैक्टो क्लीयरेंस), प्रोत्साहन (सब्सिडी) या स्व-प्रमाणन पर भरोसा किया है।
- सार्वजनिक भागीदारी का अभाव: भारत में हरित कानून पर्यावरण संरक्षण के संबंध में सार्वजनिक भागीदारी का अभाव बना हुआ है।
- मनमानी को रोकने और पर्यावरण के प्रति जागरूकता व सहानुभूति बढ़ाने के लिये नागरिकों को पर्यावरण संरक्षण में शामिल करने की आवश्यकता है।
भारत में हरित विधानों के उल्लंघन के कुछ उदाहरण:
- केन-बेतवा लिंक परियोजना (KBLP):
- 90 के दशक के मध्य में जब इसे प्रस्तावित किया गया था, KBLP को कई विशेषज्ञों द्वारा इसकी अत्यधिक पर्यावरणीय लागत के लिये अव्यवहारिक माना गया है।
- वर्ष 2011 में इस परियोजना को खारिज़ कर दिया गया था, वर्ष 2016 में इसे केवल तकनीकी-आर्थिक मंज़ूरी प्रदान की गई।
- वर्ष 2017 में पन्ना टाइगर रिज़र्व में क्षतिपूर्ति के तौर पर 60.17 वर्ग किमी. की समान राजस्व भूमि को वन भूमि के तौर पर जोड़ने की शर्त के साथ इसे वनीकरण मंज़ूरी प्रदान की गई।
- अरुणाचल प्रदेश:
- पर्यावरण मंत्रालय और राज्य दोनों 17 वर्षों से 2000 मेगावाट की सुबनसिरी परियोजना को मंज़ूरी देने के लिये वर्ष 2004 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अधिरोपित सबसे महत्त्वपूर्ण शर्त की अनदेखी कर रहे हैं।
- मंत्रालय ने दो बार अस्वीकृत 3,000 मेगावाट की दिबांग बहुउद्देशीय परियोजना को अंतिम वन मंज़ूरी दी, जबकि इस बात से अवगत कराया गया था कि अरुणाचल प्रदेश ने जलग्रहण वाले वनों को राष्ट्रीय उद्यान घोषित करने की प्रमुख पूर्व शर्त का पालन नहीं किया था।
आगे की राह
- पृथक स्वतंत्र विनियमन: एक प्रभावी नियामक निकाय की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ मानक-निर्धारण, निगरानी और प्रवर्तन में स्वतंत्रता है।
- पर्यावरण कानूनों के खंडित सुधार से पहले एक स्वतंत्र निकाय की स्थापना होनी चाहिये।
- दूसरी पीढ़ी का सुधार: पर्यावरण विनियमन हेतु दूसरी पीढ़ी का सुधार, जो पर्यावरण एवं सामुदायिक अधिकारों की रक्षा करने के साथ-साथ उद्योग के लिये समय और लेन-देन लागत को कम करेगा।
- कानूनों का सरलीकरण: बहुलता को कम करने, पुरातन कानूनों को हटाने और नियामक प्रक्रिया को कारगर बनाने के लिये इसकी आवश्यकता है।