भारतीय राजनीति
मौलिक अधिकार और रिट
- 10 Feb 2020
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प्रीलिम्स के लिये:अनुच्छेद 361, परमादेश मेन्स के लिये:रिट जारी करने का अधिकार क्षेत्र |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया है कि सार्वजनिक पदों पर ‘प्रोन्नति में आरक्षण’ मौलिक अधिकार नहीं है और राज्य को ऐसा करने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता।
निर्णय के मुख्य बिंदु:
- प्रोन्नति में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि ‘प्रोन्नति में आरक्षण’ के लिये परमादेश रिट जारी करने की बाध्यता नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश:
- न्यायालय ने कहा है कि यद्यपि अनुच्छेद 16 (4) और 16 (4-A) राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिये प्रोन्नति में आरक्षण देने का अधिकार देता है लेकिन ऐसा करना राज्य सरकारों की विवेकशीलता पर निर्भर करता है, हालाँकि अगर वे (राज्य) अपने विवेक का प्रयोग करना चाहते हैं तो राज्य को सार्वजनिक सेवाओं में उस वर्ग के प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता दिखाते हुए मात्रात्मक डेटा एकत्र करना होगा।
- इस प्रकार अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के संबंध में आँकड़ों का संग्रहण आरक्षण प्रदान करने के लिये एक पूर्व आवश्यकता है।
- यदि राज्य सरकारों ने आरक्षण प्रदान नहीं करने का निर्णय लिया हो तो इसकी आवश्यकता नहीं है।
परमादेश क्या है?
परमादेश अंग्रेज़ी कॉमन लॉज़ में एक प्रमुख लेख है जिसका अर्थ है ‘साधारण कानूनी उपाय अपर्याप्त होने पर संप्रभु इकाई द्वारा जारी किया गया असाधारण रिट या आदेश’।
- परमादेश का शाब्दिक अर्थ है 'हम आज्ञा देंते हैं’ अर्थात यह किसी व्यक्ति या निकाय को (सार्वजनिक या अर्द्ध-सार्वजनिक) उस स्थिति में कर्त्तव्य पालन का आदेश देता है यदि इन निकायों ने ऐसा कार्य करने से मना कर दिया हो और जहाँ उस कर्त्तव्य के पालन को लागू करने के लिये अन्य पर्याप्त कानूनी उपाय मौजूद नहीं हैं।
- यह रिट तब तक जारी नहीं की जा सकती है जब तक कि कानूनी कर्तव्य सार्वजनिक प्रकृति का नहीं है और आवेदक का कानूनी अधिकार शामिल न हो।
- रिट जारी करने का उपाय एक विवेकाधीन प्रकृति का विषय है क्योंकि यदि अन्य वैकल्पिक उपाय मौजूद हैं तो ऐसे में न्यायालय रिट जारी करने से मना कर सकता है। हालाँकि मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिये वैकल्पिक उपाय उतना वज़न नहीं रखते है जितना कि रिट रखती है।
- रिट को अवर न्यायालयों या अन्य न्यायिक निकायों के खिलाफ भी जारी किया जा सकता है, यदि उन्होंने अपने अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल करने और अपना कर्त्तव्य निभाने से इनकार कर दिया हो।
- रिट को एक निजी व्यक्ति या निकाय के खिलाफ जारी नहीं किया जा सकता है, सिवाय इसके कि जहाँ राज्य और निजी पार्टी की मिलीभगत (Collusion) संविधान या किसी कानून के प्रावधान का उल्लंघन करती हो।
- अनुच्छेद 361 के तहत इसे राष्ट्रपति या राज्यपाल के खिलाफ जारी नहीं किया जा सकता है।
अनुच्छेद 361 (राष्ट्रपति और राज्यपालों तथा राजप्रमुखों का संरक्षण):
- राष्ट्रपति या राज्यपाल या किसी राज्य का प्रमुख अपने कार्यालय की शक्तियों और कर्त्तव्यों के पालन और उसके द्वारा किये जाने वाले किसी भी कार्य के लिये किसी न्यायालय में जवाबदेह नहीं होंगा।
- 1951 में वेंकटरामन बनाम स्टेट ऑफ मद्रास (Venkataramana vs State Of Madras) के मामले में पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने परमादेश रिट जारी की थी। इस मामले में याचिकाकर्ता का अधीनस्थ नागरिक न्यायिक सेवा में चयन नहीं किया गया था। पीठ ने मद्रास राज्य को याचिकाकर्ता के आवेदन पर विचार करने और सांप्रदायिक रोटेशन (Communal Rotation Order) के नियम को लागू किये बिना मेरिट के आधार पर पद संबंधी मामले को निपटाने का आदेश दिया।
रिट संबंधी प्रावधान:
- भारत में सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 32 और उच्च न्यायालय अनुच्छेद 226 के तहत विशेषाधिकार संबंधी रिट जारी कर सकते हैं। ये हैं: बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus), परमादेश (Mandamus), प्रतिषेध (Prohibition), उत्प्रेषण ( Certiorari) और अधिकार-प्रच्छा (Quo-Warranto)।
उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय की रिट अधिकारिता में अंतर:
- उच्चतम न्यायालय की रिट अधिकारिता का प्रभाव संपूर्ण भारत में है, जबकि उच्च न्यायालय की रिट अधिकारिता का विस्तार संबंधित राज्य की सीमा तक ही है।
- उच्चतम न्यायालय केवल मौलिक अधिकारों के हनन की स्थिति में ही रिट जारी कर सकता है, जबकि उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों के अलावा अन्य विषयों के संदर्भ में भी रिट जारी कर सकता है।
- उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय के विरुद्ध प्रतिषेध तथा उत्प्रेषण रिट जारी कर सकता है परंतु उच्च न्यायालय, उच्चतम न्यायालय के विरुद्ध ऐसा नहीं कर सकते हैं।
- उच्चतम न्यायालय अनुच्छेद 32 के तहत दाखिल किये गए रिट की सुनवाई से इनकार नहीं कर सकता जबकि अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय द्वारा रिट को सुनवाई के लिये स्वीकार किया जाना संवैधानिक रूप से अनिवार्य नहीं है।