प्रथम अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन | 24 Feb 2020
प्रीलिम्स के लिये:प्रथम अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन मेन्स के लिये:न्यायिक सुधार |
चर्चा में क्यों?
नई दिल्ली में 23 फरवरी, 2020 से भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन का आयोजन किया जा रहा है।
सम्मलेन की थीम:
- इस सम्मेलन का विषय ‘न्यायपालिका और बदलती दुनिया’ (Judiciary and the Changing World) है।
सम्मेलन का उद्देश्य:
- इस सम्मेलन का आयोजन 21वीं सदी के तीसरे दशक की शुरुआत में किया जा रहा है जो कि भारत सहित पूरी दुनिया में होने वाले बड़े बदलावों का दशक है।
- इन बदलावों को तर्कसंगत, न्यायसंगत, सर्वहितकारी तथा भविष्य की आवश्यकता के अनुसार होना चाहिये, अत: ‘न्यायपालिका और बदलती दुनिया’ विषय पर मंथन किया जाना बहुत महत्त्वपूर्ण है।
सम्मेलन में चर्चा के प्रमुख मुद्दे:
- सम्मेलन में ‘न्यायपालिका और बदलती दुनिया’ विषय के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक, आर्थिक और तकनीकी पक्षों से जुड़े निम्नलिखित मुद्दों पर चर्चा की गई:
गांधीजी के विचार:
- इस महत्त्वपूर्ण सम्मेलन का आयोजन उस काल खंड में हो रहा है जब भारत राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मना रहा है।
- गांधीजी खुद एक वकील थे और उन्हें बैरिस्टर की उपाधि प्राप्त थी, उनका जीवन ‘सत्य और सेवा’ को समर्पित था, तथा ये मूल्य किसी भी न्याय तंत्र की नींव माने जाते हैं।
- उनकी न्यायिक सोच पर उनकी परवरिश, उनके संस्कार और भारतीय दर्शन के निरंतर अध्ययन का प्रभाव था।
- भारतीय समाज में ‘कानून का नियम’ (Rule of Law) सामाजिक संस्कारों पर आधारित रहा है। यही संस्कार हज़ारों वर्षों से भारत में न्याय के प्रति आस्था और संविधान की प्रेरणा का स्रोत रहा है।
अंबेडकर के विचार:
- अंबेडकर के अनुसार, “संविधान महज़ एक कानूनी दस्तावेज़ नहीं है, यह जीवन को आगे बढ़ाने का माध्यम है और इसका आधार हमेशा ही विश्वास रहा है।”
- इसी भावना को हमारे देश की न्यायपालिका व सर्वोच्च न्यायालय तथा विधायी एवं कार्यकारी शक्तियों ने जीवंत रखा है तथा एक-दूसरे की मर्यादाओं को समझते हुए तमाम चुनौतियों के बीच कई बार देश के लिये संविधान के तीनों स्तंभों ने उचित रास्ता ढूँढा है।
- बीते पाँच वर्षों में भारत की विभिन्न संस्थाओं ने इस परंपरा को और सशक्त किया है। देश में ऐसे करीब 1500 पुराने कानूनों को समाप्त किया गया है, जिनकी आज के दौर में प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी थी।
- समाज को मज़बूती देने वाले अनेक नवीन कानून भी बनाए गए हैं यथा- ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों से जुड़ा कानून, तीन तलाक के खिलाफ कानून, दिव्यांग-जनों के अधिकारों का दायरा बढ़ाने वाला कानून आदि।
विश्व में लैंगिक न्याय:
- दुनिया का कोई भी देश या समाज लैंगिक न्याय के बिना पूर्ण विकास नहीं कर सकता और न ही न्यायप्रियता का दावा कर सकता है। हमारा संविधान समानता के अधिकार के तहत ही लैंगिक न्याय को सुनिश्चित करता है तथा भारत दुनिया के उन बहुत कम देशों में से एक है, जिसने स्वतंत्रता के बाद से ही महिलाओं को वोट देने का अधिकार सुनिश्चित किया।
- आज 70 साल के बाद अब चुनाव में महिलाओं की भागीदारी अपने सर्वोच्च स्तर पर है। अब 21वीं सदी का भारत इस भागीदारी के दूसरे पहलुओं पर भी तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। ‘बेटी-बचाओ, बेटी-पढ़ाओ’ जैसे सफल अभियानों, सैन्य सेवा में बेटियों की नियुक्ति, लड़ाकू पायलटों के चयन की प्रक्रिया हो, या खदानों में रात में काम करने की स्वतंत्रता, कार्यशील महिलाओं को 26 हफ्ते का सहवैतनिक अवकाश जैसे नवीन सुधार लागू किये गए हैं।
विकास और पर्यावरण में संतुलन:
- न्यायपालिका ने विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन की गंभीरता को समझा है तथा उसमें निरंतर मार्गदर्शन किया है। अनेक ‘जनहित याचिकाओं’ (Public Interest litigation- PIL) की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण से जुड़े मामलों को नए सिरे से परिभाषित किया है।
शीघ्र न्याय की अवधारणा:
- शीघ्र न्याय की चुनौती न्यायपालिका के समक्ष हमेशा से रही है। इसका एक हद तक समाधान तकनीक से हो सकता है यथा- अदालत के प्रक्रियागत प्रबंधन में इंटरनेट आधारित तकनीक का प्रयोग, देश के प्रत्येक न्यायालय को ई-न्यायालय एकीकरण मिशन मोड परियोजना से जोड़ना, राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड की स्थापना, कृत्रिम बुद्धिमता और मानवीय विवेक के बीच तालमेल आदि को अपनाना।
- बदलते हुए समय में डेटा सुरक्षा, साइबर अपराध जैसे विषय भी न्यायपालिका के लिये नई चुनौती बनकर उभर रहे हैं। इन चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए इन्हें दूर करने पर विचार किया जाना चाहिये।
आगे की राह:
- नागरिकों की बढ़ती भागीदारी को देखते हुए न्यायिक व्यवस्था का संचालन इस तरह से किया जाए कि यह अपनी राह में आने वाली बाधाओं से निपट सके तथा आम जनता को न्याय दिलाने का वास्तविक उपकरण बन सके।