भारतीय राजनीति
अस्वीकृत चेक से संबंधित मामलों के लिये फास्ट-ट्रैक कोर्ट
- 06 Mar 2021
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चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय की एक संवैधानिक पीठ ने सीमित समय के लिये अस्वीकृत चेक से संबंधित मामलों की सुनवाई के लिये फास्ट-ट्रैक कोर्ट स्थापित करने का प्रस्ताव दिया है।
- इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने चेक बाउंस/अस्वीकृत चेक से संबंधित मामलों की पेंडेंसी की समस्या को हल करने के लिये एक समिति के गठन का सुझाव दिया।
प्रमुख बिंदु
- सर्वोच्च न्यायालय का प्रस्ताव: न्यायालय ने परक्राम्य लिखत अधिनियम, 2018 की धारा 138 के तहत फास्ट-ट्रैक कोर्ट स्थापित करने का सुझाव दिया है।
- अतिरिक्त न्यायालय स्थापित करने की शक्ति: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 247 के तहत सरकार के पास संसद द्वारा अधिनियमित कानूनों के बेहतर प्रशासन के लिये ‘अतिरिक्त न्यायालय’ स्थापित करने की शक्ति है, जिसमें चेक से संबंधित परक्राम्य लिखत अधिनियम भी शामिल है।
- अनुच्छेद 247: यह अनुच्छेद संसद को संघ सूची में शामिल किसी भी विषय के संबंध में उसके द्वारा बनाए गए कानूनों या किसी मौजूदा कानूनों के बेहतर प्रशासन के लिये कुछ ‘अतिरिक्त न्यायालयों’ को स्थापित करने की शक्ति देता है।
- अतिरिक्त न्यायालय स्थापित करने की शक्ति: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 247 के तहत सरकार के पास संसद द्वारा अधिनियमित कानूनों के बेहतर प्रशासन के लिये ‘अतिरिक्त न्यायालय’ स्थापित करने की शक्ति है, जिसमें चेक से संबंधित परक्राम्य लिखत अधिनियम भी शामिल है।
- अस्वीकृत चेक मामलों की पेंडेंसी: चेक बाउंस/अस्वीकृत चेक के मामलों की पेंडेंसी ट्रायल कोर्ट में 30 प्रतिशत से 40 प्रतिशत बैकलॉग के लिये उत्तरदायी है, साथ ही उच्च न्यायालयों में ऐसे मामलों की बड़ी संख्या लंबित है।
परक्राम्य लिखत
- ये एक प्रकार के हस्ताक्षरित दस्तावेज़ होते हैं, जिनके तहत किसी निर्दिष्ट व्यक्ति या हस्ताक्षर करने वाले व्यक्ति को एक विशिष्ट राशि के भुगतान का वादा किया जाता है।
- यह हस्तांतरण योग्य होते हैं यानी ये धारक को नकदी के रूप में धन लेने अथवा लेनदेन के लिये उपयुक्त तरीके से या उनकी पसंद के अनुसार इसका उपयोग करने की अनुमति देते हैं।
- प्रतिज्ञा पत्र (Promissory Note), बिल और चेक आदि को परक्राम्य लिखत के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
अस्वीकृत चेक
- दूसरे शब्दों में, चेक बाउंस/अस्वीकृत चेक एक ऐसी स्थिति है, जिसमें बैंक भुगतानकर्त्ता को चेक की राशि का भुगतान करने से इनकार कर देता है।
- चेक बाउंस होना एक दंडनीय अपराध है और ऐसी स्थिति में दो वर्ष तक की कैद या मौद्रिक जुर्माना अथवा दोनों सज़ा दी जा सकती है।
- यदि बैंक भुगतानकर्त्ता को राशि का भुगतान कर देता है तो उस चेक को स्वीकृत चेक कहा जाता है। वहीं यदि बैंक आदाता को राशि का भुगतान करने से इनकार करता है, तो चेक को अस्वीकृत माना जाता है।
- चेक: यह एक परक्राम्य लिखत है। चेक भुगतानकर्त्ता के अलावा किसी भी व्यक्ति द्वारा परक्राम्य नहीं होते हैं। चेक को आदाता के बैंक खाते में जमा करना आवश्यक होता है।
- चेक के लेखक को आहर्ता (Drawer), जिसके पक्ष में चेक जारी किया जाता है उसे आदाता (Payee) तथा भुगतान के लिये जिस बैंक को निर्देशित किया जाता है उसे आहर्ती (drawee) कहा जाता है।
न्यायालय में मामलों की पेंडेंसी
- आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार, न्यायिक प्रणाली में लगभग 3.5 करोड़ मामले लंबित हैं, खासकर ज़िला और अधीनस्थ अदालतों में।
- पेंडिंग मामलों में लगभग 87.54 प्रतिशत मामले ज़िला और अधीनस्थ न्यायालयों में हैं।
- 64 प्रतिशत से अधिक मामले 1 वर्ष से अधिक समय से लंबित हैं।
- वर्ष 2018 में भारतीय ज़िला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में दीवानी और फौजदारी मामलों के लिये औसत निपटान समय यूरोपीय परिषद के सदस्यों की तुलना में क्रमशः 4.4 और 6 गुना अधिक था।
- निचली अदालतों में महज़ 2,279, उच्च न्यायालयों में 93 और सर्वोच्च न्यायालय में केवल एक अतिरिक्त पद के साथ, शत-प्रतिशत निपटान दर प्राप्त की जा सकती है।
- सुधार
- कार्य दिवसों की संख्या में वृद्धि।
- कानूनी प्रणाली के प्रशासनिक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करने के लिये ‘भारतीय न्यायालय और अधिकरण सेवा’ की स्थापना की जा सकती है।
- न्यायालयों की दक्षता में सुधार के लिये प्रौद्योगिकी का प्रयोग किया जा सकता है, उदाहरण के लिये ‘ई-कोर्ट मिशन मोड प्रोजेक्ट’ और इसके अलावा कानून एवं न्याय मंत्रालय द्वारा ‘राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड’ को चरणों में लागू किया जा रहा है।
- बेहतर न्यायालय प्रबंधन: 13वें वित्त आयोग द्वारा सुझाए गए पेशेवर न्यायालय प्रबंधकों की नियुक्ति की जा सकती है। न्यायालय प्रबंधक या समकक्ष पेशेवर वर्तमान परिदृश्य में अत्यंत उपयोगी हो सकते हैं और न्याय वितरण में तभी सुधार आ सकता है जब न्यायालय अपने प्रशासन में पेशेवरों की सहायता स्वीकार करें और उन्हें अपनाएँ।
- अधिक से अधिक महत्वपूर्ण मामलों को जल्द निपटाने के लिये ट्रिब्यूनल, फास्ट ट्रैक कोर्ट और स्पेशल कोर्ट की स्थापना की जा सकती है।
- वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR), लोक अदालत, ग्राम न्यायालय जैसे तंत्रों का प्रभावी ढंग से उपयोग किया जाना चाहिये।
आगे की राह
- न्याय वितरण प्रणाली में देरी के मूल कारणों की पहचान करने और न्याय वितरण प्रणाली में सुधार के लिये सार्थक समाधान प्रदान करने हेतु व्यापक विचार-विमर्श, बहस और परामर्श के माध्यम से व्यापक आत्मनिरीक्षण किये जाने की आवश्यकता है।
- न्यायिक सुधार को यदि गंभीरता से लिया जाए, तो शीघ्र और प्रभावी न्याय प्रदान करने में मदद साबित हो सकता है और वैश्विक न्यायिक प्रक्रियाओं से संबंधित विश्व बैंक और अन्य संस्थानों एवं संगठनों की रिपोर्टों में भारत की स्थिति में सुधार कर सकता है।