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भारतीय कृषि का महिलाकरण : आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18

  • 31 Jan 2018
  • 6 min read

चर्चा में क्यों?
हाल ही में जारी आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 के अनुसार पुरुषों का गाँवों से शहरों की ओर पलायन होने की वजह से कृषि श्रमबल में महिलाओं की हिस्सेदारी में वृद्धि हो रही है। मसलन कृषक, उद्यमी और श्रमबल में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ी है।

कृषि का महिलाकरण 

  • कृषि श्रमबल में महिलाओं की लगातार बढ़ती भागीदारी को कृषि का महिलाकरण कहा जाता है।
  • राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) के आँकड़ों से पता चलता है कि पिछले तीन दशकों में कृषि क्षेत्र में महिलाओं एवं  पुरुषों  दोनों की संख्या में गिरावट आई है।
  • जहाँ पुरुषों में संख्या 81% से घटकर 63% हो गई है, वहीं महिलाओं की संख्या 88% से घटकर 79% ही हुई है, क्योंकि महिलाओं की जनसंख्या में गिरावट पुरुषों की जनसंख्या में गिरावट से काफी कम है, इसलिये इस प्रवृति को “भारतीय कृषि का महिलाकरण” कहा जा सकता है।
  • आर्थिक रूप से सक्रिय 80% महिलाएँ कृषि क्षेत्र में कार्यरत हैं। इनमें से 33% मज़दूरों के रूप में और 48% स्व-नियोजित किसानों के रूप में कार्य कर रही हैं।

कृषि में महिलाओं की भूमिका का महत्त्व

  • महिलाओं ने खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और स्थानीय कृषि-जैव विविधता (Agro-Biodiversity) को सुरक्षित बनाने में अहम भूमिका निभाई है।
  • ग्रामीण महिलाओं ने विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों के प्रयोग और प्रबंधन का एक एकीकृत ढाँचा विकसित किया है जिससे दैनिक जीवन की ज़रूरतें पूरी की जाती हैं। महिला कृषि विकास और संबद्ध गतिविधियों में महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाती हैं। 
  • भारत सहित अधिकतर विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था में ग्रामीण महिलाओं का सबसे अधिक योगदान है। वैश्विक स्तर पर ऐसा देखा गया है कि महिलाओं को अधिकार दिये जाने के बाद कृषि उत्पादकता में सुधार हुआ है।
  • भारत में लगभग 18% खेतिहर परिवारों का नेतृत्व महिलाएँ ही करती हैं। कृषि का ऐसा कोई कार्य नहीं है जिसमें महिलाओं की भागीदारी न हो। 

कृषि के महिलाकरण की चुनौतियाँ और समाधान 

  • जनगणना 2011 के अनुसार, कुल महिला मुख्य श्रमिकों में से 55% कृषि श्रमिक और 24% कृषि मज़दूर के अंतर्गत कार्यरत थीं। किंतु प्रचालित भू-जोतों (Operational Holdings) के स्वामित्व में महिलाओं का हिस्सा महज़ 12.8% है जो भू-स्वामित्व में लैंगिक असमानता को दर्शाता है।
  • महिलाओं की जमीन, जल, साख-सुविधाओं और प्रौद्योगिकी तक पहुँच की कमी एक प्रमुख चुनौती है।
  • इन महिलाओं की सहायता के लिये आर्थिक सर्वेक्षण ने लिंग-विशिष्ट उपायों की आवश्यकता को रेखाकिंत किया है। भारत की स्थिति को देखते हुए ग्रामीण महिलाओं को कृषि संबंधी प्रशिक्षण दिये जाने की आवश्यकता है। 
  • कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सतत् विकास के लिये महिलाओं की कृषि और खाद्य उत्पादन में योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती। महिलाओं की भूमि संसाधनों, साख सुविधाओं, बीज, बाज़ार आदि तक पहुँच संबंधी समस्याओं का समाधान किया जाना चाहिये।
  • लघु और सीमांत भू–जोतों की उत्पादकता बढ़ाने, महिलाओं को ग्रामीण अर्थव्यवस्था में प्रगति की सक्रिय एजेंटों के रूप में एकीकृत करने और कृषि विस्तार सेवाओं में महिलाओं की विशेषज्ञता के साथ ही पुरुषों और महिलाओं की भागीदारी को बढाने के लिये लिंग-विशिष्ट उपायों पर आधारित एक समावेशी और परिवर्तनकारी कृषि नीति की आवश्यकता है। 

महिलाओं को कृषि की मुख्यधारा में लाने के लिये निम्नलिखित कदम उठाए गए हैं-

  • सभी योजनाओं, कार्यक्रमों और विकास संबंधित गतिविधियों में किये जाने वाले बजट आवंटन में महिलाओं के लिये 30% हिस्सा निर्धारित किया जाना सुनिश्चित किया गया है।
  • महिलाओं के लिये कल्याणकारी कार्यक्रमों, योजनाओं और महिला केंद्रित गतिविधियों पर ज़ोर देने की शुरुआत की गई है।
  • क्षमता विकास गतिविधियों और छोटी बचत के ज़रिये महिला स्वयं सहायता समूहों पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है। विभिन्न निर्णय लेने वाले निकायों में उनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिये उन्हें तमाम तरीके की सूचनाएँ मुहैया कराने के इंतजाम किये गए हैं।
  • कृषि में महिलाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका को मान्यता देते हुए कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने प्रत्येक वर्ष 15 अक्तूबर को महिला किसान दिवस घोषित किया है।
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