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चुनावी बॉण्ड (Electoral Bonds)

  • 08 Apr 2022
  • 7 min read

प्रिलिम्स के लिये:

चुनावी बॉण्ड

मेन्स के लिये:

चुनावी बॉण्ड, चुनावी फंडिंग, राजनीति का अपराधीकरण, नीतियों का निर्माण तथा कार्यान्वयन से उत्पन्न मुद्दे।

चर्चा में क्यों?

सर्वोच्च न्यायालय इलेक्टोरल बॉण्ड स्कीम, 2018 को चुनौती देने वाली एक लंबित याचिका पर सुनवाई करेगा।

  • दो गैर-सरकारी संगठनों- कॉमन कॉज़ और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) ने इस योजना को चुनौती देते हुए आरोप लगाया है कि यह ‘लोकतंत्र को विकृत’ (Distorting Democracy) कर रही है

चुनावी बाॅण्ड: 

  • चुनावी बॉण्ड बिना किसी अधिकतम सीमा के 1,000 रुपए, 10,000 रुपए, 1 लाख रुपए, 10 लाख रुपए और 1 करोड़ रुपए के गुणकों में जारी किये जाते हैं।
  • भारतीय स्टेट बैंक इन बॉण्ड्स को जारी करने और भुनाने (Encash) के लिये अधिकृत बैंक है, ये बॉण्ड जारी करने की तारीख से पंद्रह दिनों तक वैध रहते हैं।
  • यह बॉण्ड एक पंजीकृत राजनीतिक पार्टी के निर्दिष्ट खाते में प्रतिदेय होता है।
  • बॉण्ड किसी भी व्यक्ति (जो भारत का नागरिक है) द्वारा जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्तूबर के महीनों में प्रत्येक दस दिनों की अवधि हेतु खरीद के लिये उपलब्ध होते हैं, जैसा कि केंद्र सरकार द्वारा निर्दिष्ट किया गया है।
  • एक व्यक्ति या तो अकेले या अन्य व्यक्तियों के साथ संयुक्त रूप से बॉण्ड खरीद सकता है।
  • बॉण्ड पर दाता के नाम का उल्लेख नहीं किया जाता है।
    • चुनावी बॉण्ड की खरीद के माध्यम से राजनीतिक दलों को 20,000 रुपए से कम का योगदान देने वाले दाताओं को अपना पहचान विवरण जैसे- पैन (PAN) आदि देने की आवश्यकता नहीं होती।
  • चुनावी बॉण्ड योजना का प्रमुख उद्देश्य भारत में चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता लाना था।
    • सरकार ने इस योजना को "कैशलेस-डिजिटल अर्थव्यवस्था" की ओर बढ़ रहे देश में ‘चुनावी सुधार’ के रूप में वर्णित किया।

चुनावी बॉण्ड की आलोचना:

  • मूल विचार के विपरीत:
    • चुनावी बॉण्ड योजना की मुख्य आलोचना यह की जाती है कि यह अपने मूल विचार यानी चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता लाने के ठीक विपरीत काम करता है।
    • उदाहरण के लिये आलोचकों का तर्क है कि चुनावी बॉण्ड की गुमनामी केवल व्यापक जनता और विपक्षी दलों तक की सीमित होती है।
  • जबरन वसूली की संभावना:
    • चूँकि इस तरह के बॉण्ड सरकारी स्वामित्व वाले बैंकों (SBI) के माध्यम से बेचे जाते हैं, ऐसे में कई आलोचकों का मानना है कि सरकार इसके माध्यम से यह जान सकती है कि कौन लोग विपक्षी दलों को वित्तपोषण प्रदान कर रहे हैं। 
    • परिणामस्वरूप यह प्रकिया केवल तत्कालीन सरकार को ही धन उगाही की अनुमति देती है और सत्ताधारी पार्टी को अनुचित लाभ प्रदान करती है।
  • लोकतंत्र के लिये चुनौती: वित्त अधिनियम 2017 में संशोधन के माध्यम से केंद्र सरकार ने राजनीतिक दलों को चुनावी बॉण्ड के ज़रिये प्राप्त राशि का खुलासा करने से छूट दी है।
    • इसका मतलब है कि मतदाता यह नहीं जान पाएंगे कि किस व्यक्ति, कंपनी या संगठन ने किस पार्टी को और किस हद तक वित्तपोषित किया है।
    • हालाँकि एक प्रतिनिधि लोकतंत्र में नागरिक उन लोगों के लिये अपना वोट डालते हैं जो संसद में उनका प्रतिनिधित्व करेंगे।
  • ‘जानने के अधिकार’ से समझौता: भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्वीकार किया है कि ‘जानने का अधिकार’ विशेष रूप से चुनावों के संदर्भ में भारतीय संविधान के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद 19) का एक अभिन्न अंग है।
  • स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के खिलाफ: चुनावी बॉण्ड नागरिकों को इस संदर्भ में कोई विवरण नहीं देते हैं।
    • उक्त गुमनामी उस समय की सरकार पर लागू नहीं होती है, जो कि भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) से डेटा की मांग करके दाता के विवरण तक पहुँच सकती है।
    • इसका मतलब यह है कि सत्ता में बैठी सरकार इस जानकारी का लाभ उठा सकती है और स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव को बाधित कर सकती है।
  • क्रोनी कैपिटलिज़्म: चुनावी बॉण्ड योजना राजनीतिक चंदे पर पहले से मौजूद सभी सीमाओं को हटा देती है और प्रभावी रूप से अच्छे संसाधन वाले निगमों को चुनावों के लिये धन देने की अनुमति देती है जिससे क्रोनी कैपिटलिज़्म का मार्ग प्रशस्त होता है।
    • क्रोनी कैपिटलिज़्म एक आर्थिक प्रणाली है जो व्यापारिक नेताओं और सरकारी अधिकारियों के बीच घनिष्ठ, पारस्परिक रूप से लाभप्रद संबंधों की विशेषता है।

आगे की राह 

  • भ्रष्टाचार के दुष्चक्र को तोड़ने और लोकतांत्रिक राजनीति की गुणवत्ता की कमी के लिये साहसिक सुधारों के साथ-साथ राजनीतिक वित्तपोषण के प्रभावी विनियमन की आवश्यकता है।
  • संपूर्ण शासनतंत्र को अधिक जवाबदेह और पारदर्शी बनाने हेतु मौजूदा कानूनों में खामियों को दूर करना महत्त्वपूर्ण है।
  • मतदाता जागरूकता अभियानों की मांग कर पर्याप्त बदलाव लाने में भी मदद कर सकते हैं। यदि मतदाता उन उम्मीदवारों और पार्टियों को अस्वीकार करते हैं जो उन परअधिक खर्च करते हैं या उन्हें रिश्वत देते हैं तो लोकतंत्र एक कदम और आगे बढ़ जाएगा।

स्रोत: द हिंदू 

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