चुनावी बॉण्ड | 21 Jan 2022
प्रिलिम्स के लिये:चुनावी बॉण्ड। मेन्स के लिये:चुनावी बॉण्ड, इलेक्शन फंडिंग, राजनीति के अपराधीकरण से जुड़े मुद्दे। |
चर्चा में क्यों?
पांँच राज्यों में आगामी विधानसभा चुनावों से पहले चुनावी बॉण्ड (Electoral Bonds) की 19वी किश्त, जिसे नकद विकल्प के रूप में पेश किया किया जाता है, की बिक्री की गई।
- पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावी बॉण्ड के जरिये राजनीतिक दलों को मिली धनराशि के दुरुपयोग पर आशंका जताई है।
- यह चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता लाने और राजनीति के अपराधीकरण पर रोक लगाने हेतु भी इन बॉण्डों को पेश करने के मूल विचार को खंडित कर सकता है।
प्रमुख बिंदु
- चुनावी बॉण्ड के बारे में:
- चुनावी बॉण्ड बिना किसी अधिकतम सीमा के 1,000 रुपए, 10,000 रुपए, 1 लाख रुपए, 10 लाख रुपए और 1 करोड़ रुपए के गुणकों में जारी किये जाते हैं।
- भारतीय स्टेट बैंक इन बॉण्डों को जारी करने और भुनाने (Encash) के लिये अधिकृत बैंक है, ये बॉण्ड जारी करने की तारीख से पंद्रह दिनों तक वैध रहते हैं।
- यह बॉण्ड इन्हें एक पंजीकृत राजनीतिक पार्टी के निर्दिष्ट खाते में प्रतिदेय होता है।
- बॉण्ड किसी भी व्यक्ति (जो भारत का नागरिक है) द्वारा जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्तूबर के महीनों में प्रत्येक दस दिनों की अवधि हेतु खरीद के लिये उपलब्ध होते हैं, जैसा कि केंद्र सरकार द्वारा निर्दिष्ट किया गया है।
- एक व्यक्ति या तो अकेले या अन्य व्यक्तियों के साथ संयुक्त रूप से बॉण्ड खरीद सकता है।
- बॉण्ड पर दाता के नाम का उल्लेख नहीं किया जाता है।
- संबंधित मुद्दे:
- लोकतंत्र के लिये झटका: वित्त अधिनियम 2017 में संशोधन के माध्यम से केंद्र सरकार ने राजनीतिक दलों को चुनावी बॉण्ड के माध्यम से प्राप्त चंदे का खुलासा करने से छूट दी है।
- इसका मतलब है कि मतदाता यह नहीं जान पाएंगे कि किस व्यक्ति, कंपनी या संगठन ने किस पार्टी को और किस हद तक वित्तपोषित किया है।
- हालांँकि एक प्रतिनिधि लोकतंत्र में नागरिक उन लोगों को वोट देना पसंद करते हैं जो संसद में उनका प्रतिनिधित्व करेंगे।
- जानने के अधिकार से समझौता: भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात को स्वीकार किया है कि "जानने का अधिकार" (Right To Know) विशेष रूप से चुनावों के संदर्भ में भारतीय संविधान के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद 19) का एक अभिन्न अंग है।
- स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के खिलाफ: चुनावी बॉण्ड नागरिकों को इस संदर्भ में कोई विवरण नहीं देते हैं।
- उक्त गुमनामी उस समय की सरकार पर लागू नहीं होती है, जो भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) से डेटा की मांग करके हमेशा दाता के विवरण तक पहुँच सकती है।
- इसका मतलब यह है कि सत्ता में बैठी सरकार इस जानकारी का लाभ उठा सकती है और स्वतंत्र व निष्पक्ष होने वाले चुनाव को बाधित कर सकती है।
- क्रोनी कैपिटलिज्म: चुनावी बॉण्ड योजना राजनीतिक चंदे पर पहले से मौजूद सभी सीमाओं को हटा देती है और प्रभावी रूप से अछे संसाधन वाले निगमों को चुनावों के लिये धन देने की अनुमति देती है जिससे क्रोनी कैपिटलिज्म का मार्ग प्रशस्त होता है।
- लोकतंत्र के लिये झटका: वित्त अधिनियम 2017 में संशोधन के माध्यम से केंद्र सरकार ने राजनीतिक दलों को चुनावी बॉण्ड के माध्यम से प्राप्त चंदे का खुलासा करने से छूट दी है।
आगे की राह:
- चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता: कई उन्नत देशों में चुनावों को सार्वजनिक रूप से वित्तपोषित किया जाता है। यह समानता के सिद्धांतों को सुनिश्चित करता है। सत्ता पक्ष एवं विपक्ष के बीच बहुत अधिक अंतर नहीं है।
- 2nd ARC, दिनेश गोस्वामी समिति और कई अन्य ने भी चुनावों हेतु राज्य के लिये वित्तपोषण की सिफारिश की है।
- इसके अलावा जब तक चुनावों को सार्वजनिक रूप से वित्तपोषित नहीं किया जाता है, तब तक राजनीतिक दलों को वित्तीय योगदान पर सीमाएँ लागू हो सकती हैं।
- न्यायपालिका का रेफरी/अंपायर के रूप में कार्य करना: एक कार्यशील लोकतंत्र में स्वतंत्र न्यायपालिका के सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में से एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के मूल सिद्धांतों के लिये रेफरी/अंपायर के रूप में कार्य करना है।
- चुनावी बॉण्ड ने सरकार की चुनावी वैधता पर सवाल खड़े कर दिये हैं और इस तरह पूरी चुनावी प्रक्रिया पर प्रश्नचिह्न खड़े हो गए हैं।
- इस संदर्भ में न्यायालयों को एक रेफरी/अंपायर के रूप में कार्य करना चाहिये और लोकतंत्र के ज़मीनी नियमों को लागू करना चाहिये।
- नागरिक संस्कृति की ओर ट्रांज़ीशन: भारत लगभग 75 वर्षों से लोकतंत्र के रूप में बेहतर तरीके से काम कर रहा है।
- अब सरकार को और अधिक जवाबदेह बनाने के लिये मतदाताओं को स्वयं जागरूक होकर स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव के सिद्धांत का उल्लंघन करने वाले उम्मीदवारों तथा पार्टियों को खारिज करना चाहिये।