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भारतीय राजव्यवस्था

दल-परिवर्तन रोधी मामलों के निर्णयों में विलंब

  • 04 Apr 2025
  • 12 min read

प्रिलिम्स के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय, दल-परिवर्तन रोध, अनुच्छेद 142, भारत निर्वाचन आयोग

मेन्स के लिये:

दल-परिवर्तन रोधी कानून और भारतीय लोकतंत्र पर इसका प्रभाव, निरर्हता मामलों में अध्यक्ष की भूमिका, दल-परिवर्तन रोधी कानून की न्यायिक व्याख्या

स्रोत:द हिंदू 

चर्चा में क्यों? 

सर्वोच्च न्यायालय (SC) की एक पीठ ने दृढ़ता से यह स्पष्ट किया कि यदि विधानसभा अध्यक्ष संविधान की दसवीं अनुसूची (दल-परिवर्तन रोधी कानून) के तहत दल-परिवर्तन रोधी याचिकाओं पर निर्णय करने में विलंब करता है तो न्यायपालिका “निशक्त” नहीं है।

  • यह टिप्पणी राज्य के एक राजनीतिक दल द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान की गई, जिसमें सत्तारूढ़ दल में शामिल होने वाले विधानसभा सदस्यों (विधायकों) के खिलाफ निरर्हता याचिकाओं पर राज्य विधानसभा अध्यक्ष द्वारा लंबे समय तक कार्रवाई न करने के खिलाफ न्यायिक हस्तक्षेप की मांग की गई थी। 

दल-परिवर्तन रोधी कानून क्या है?

  • परिचय: दल-परिवर्तन रोधी कानून (ADL) को वर्ष 1985 में 52वें संशोधन अधिनियम के माध्यम से संविधान में दसवीं अनुसूची जोड़कर पुरः स्थापित किया गया था। इसका उद्देश्य दल अनुशासन को बढ़ावा देने और स्थिर सरकार सुनिश्चित करने के लिये विधायकों {संसद सदस्यों (MP) और विधायकों} द्वारा अवसरवादी राजनीतिक दल-परिवर्तन को रोकना है।
  • निरर्हता के आधार:
    • राजनीतिक दलों के सदस्य: यदि कोई सदस्य स्वेच्छा से अपनी पार्टी की सदस्यता त्याग देता है।
      • यदि कोई सदस्य बिना पूर्व अनुमति के पार्टी के व्हिप के विपरीत मतदान करता है या प्रविरत (मतदान में भाग नहीं लेना) रहता है और 15 दिनों के भीतर इस कृत्य को माफ नहीं किया जाता है।
    • निर्दलीय सदस्य: यदि वे चुनाव के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाते हैं तो उन्हें निरर्हित घोषित कर दिया जाएगा।
    • नामनिर्देशित सदस्य: यदि वे अपना पद ग्रहण करने के छह माह बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल होते हैं तो उन्हें निरर्हित घोषित कर दिया जाएगा।
  • अपवाद: ADL के अंतर्गत पीठासीन अधिकारी या अध्यक्ष को निरर्हता से छूट दी गई है यदि वे स्वेच्छा से अपनी पार्टी की सदस्यता त्याग देते हैं या पद पर बने रहने के बाद फिर से उसमें शामिल हो जाते हैं। इस प्रावधान का उद्देश्य भूमिका की गरिमा और निष्पक्षता सुनिश्चित करना है।
    • यदि किसी पार्टी का किसी अन्य पार्टी में विलय हो जाता है तथा उसके कम-से-कम दो-तिहाई सदस्य विलय के लिये सहमत हो जाते हैं तो किसी सदस्य को निरर्हित नहीं ठहराया जाता है।
  • अध्यक्ष की भूमिका: दसवीं अनुसूची के तहत, अध्यक्ष दल-परिवर्तन करने वाले विधायकों की निरर्हता पर निर्णय लेने के लिये अर्द्ध-न्यायिक प्राधिकारी के रूप में कार्य करता है।
    • विधि में कोई समय-सीमा निर्दिष्ट नहीं की गई है जिसके भीतर अध्यक्ष को दल-परिवर्तन के मामलों पर निर्णय लेना होगा, जिसके कारण कुछ मामलों में अत्यधिक विलंब हो जाता है।
  • न्यायिक सशक्तीकरण: अनुच्छेद 142 के तहत, सर्वोच्च न्यायालय पूर्ण न्याय के लिये आवश्यक किसी भी प्रकार का आदेश पारित कर सकता है, जिसमें संवैधानिक प्राधिकारियों को उचित अवधि के भीतर कार्य करने के लिये बाध्य करना भी शामिल है।
    • एल. चंद्र कुमार बनाम भारत संघ और अन्य (1997) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय किया कि अधिकरण के आदेशों के खिलाफ न्यायिक उपचार उपलब्ध हैं। चूँकि निरर्हता के मामलों में अध्यक्ष न्यायाधिकरण के रूप में कार्य करता है, इसलिये सर्वोच्च न्यायालय निर्देश जारी कर सकता है, जैसा कि वह केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण (CAT) जैसे अन्य संवैधानिक अधिकरणों के लिये करता है।

दल-परिवर्तन रोधी न्यायिक निर्णय

  • किहोतो होलोहान बनाम ज़ाचिल्हु (वर्ष 1992) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दलबदल के मामलों में पीठासीन अधिकारी के अधिकार को बरकरार रखा तथा निर्णय दिया कि यह असंवैधानिक नहीं है तथा न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
  • रवि एस. नाइक बनाम भारत संघ (वर्ष 1994) में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि "स्वैच्छिक रूप से सदस्यता छोड़ने" के लिये औपचारिक त्यागपत्र की आवश्यकता नहीं होती है और इसका अनुमान विधायक के आचरण से लगाया जा सकता है।
  • कैशम मेघचंद्र सिंह बनाम अध्यक्ष, मणिपुर विधानसभा (वर्ष 2020) में, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि अध्यक्ष को दलबदल के मामलों का फैसला उचित समय के भीतर (अधिमानतः 3 महीने के भीतर) करना चाहिये।

निरर्हता में विलंब होने से शासन पर क्या प्रभाव पड़ता है?

  • लोकतांत्रिक अवमूल्यन: विलंब से दलबदलुओं को पद पर बने रहने का मौका मिल जाता है, जिससे लोकप्रिय जनादेश में संभावित रूप से विकृति आ सकती है। इससे दसवीं अनुसूची का उद्देश्य कमज़ोर हो जाता है तथा यह कार्यात्मक रूप से अप्रभावी हो जाती है।
  • राजनीतिक नैतिकता: लोकतांत्रिक संस्थाओं में जनता के विश्वास को खत्म करता है तथा राजनीतिक अवसरवाद और हॉर्स ट्रेडिंग (राजनीतिक समर्थन की खरीद-फरोख्त) की संस्कृति को बढ़ावा मिलता है।
  • शासन व्यवस्था में कमी: जब दलबदलू सत्तारूढ़ पार्टी के साथ जुड़ जाते हैं तो नीति निर्माण प्रभावित होता है और विपक्षी आवाज़ कमज़ोर हो जाती है।
    • केस स्टडी: महाराष्ट्र (वर्ष 2022) में अध्यक्ष द्वारा निरर्हता कार्यवाही में देरी से सत्ता परिवर्तन और अस्थिरता उत्पन्न हुई।
  • चुनावी जवाबदेही: निर्णय लेने में विलंब होने से पुनर्निर्वाचन में बाधा उत्पन्न होती है और मतदाताओं को उनके जनादेश के अनुरूप प्रतिनिधियों को चुनने के लोकतांत्रिक अधिकार से वंचित किया जाता है।
  • सत्तारूढ़ दलों द्वारा शोषण: कार्यवाही में विलंब से प्रायः सत्तारूढ़ दल के हितों को लाभ पहुँचता है, विशेषकर जब अध्यक्ष उसी पार्टी का हो। 
    • सत्तारूढ़ दलों को सुनियोजित दलबदल के माध्यम से सत्ता को मज़बूत करने की अनुमति देता है।

दलबदल विरोधी कानून को मज़बूत करने के लिये किन सुधारों की आवश्यकता है?

  • निर्णयों के लिये वैधानिक समय सीमा: जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय (कैशम मेघचंद्र, 2020) द्वारा अनुशंसित किया गया है, अनिश्चितकालीन विलंब को रोकने के लिये निरर्हता याचिकाओं पर निर्णय लेने के लिये अध्यक्षों के लिये एक समयबद्ध रूपरेखा (जैसे, 90 दिन) प्रस्तुत की जानी चाहिये।
  • स्वतंत्र प्राधिकरण को निर्णय लेने की शक्तियाँ: निर्णय लेने की शक्ति अध्यक्ष से हटाकर किसी बाहरी, तटस्थ न्यायाधिकरण या भारत के निर्वाचन आयोग को सौंप दिया जाना चाहिये।
    • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) ने सिफारिश की थी कि दलबदल के आधार पर निरर्हता का निर्णय निर्वाचन आयोग की सलाह के आधार पर राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा किया जाना चाहिये।
  • पार्टी व्हिप का सीमित दायरा: व्हिप के प्रवर्तन को विश्वास प्रस्तावों और धन विधेयकों तक सीमित रखना तथा विधायकों को अयोग्य ठहराए जाने के भय के बिना नीतिगत मुद्दों पर विवेक-आधारित मतदान करने की अनुमति देना।
  • राजनीतिक नैतिकता को प्रोत्साहित करना: परामर्शात्मक निर्णय लेने को प्रोत्साहित करना और राजनीतिक दलों के भीतर असहमति की अनुमति देना, ताकि विधायकों को वैचारिक या नीतिगत मतभेदों के कारण दल बदलने की आवश्यकता कम हो सके।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: दलबदल विरोधी मामलों में विलंब से शासन और चुनावी जवाबदेही पर क्या प्रभाव पड़ता है? समयबद्ध निर्णय सुनिश्चित करने के लिये उपाय सुझाइए।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारत के संविधान की निम्नलिखित अनुसूचियों में से किसमें दल-बदल विरोधी प्रावधान हैं? (2014)

(a) दूसरी अनुसूची
(b) पाँचवीं अनुसूची
(c) आठवीं अनुसूची
(d) दसवीं अनुसूची

उत्तर: (d)


मेन्स:

प्रश्न. कुछ वर्षों से सांसदों की व्यक्तिगत भूमिका में कमी आई है जिसके फलस्वरूप नीतिगत मामलों में स्वस्थ रचनात्मक बहस प्रायः देखने को नहीं मिलती। दल परिवर्तन विरोधी कानून, जो भिन्न उद्देश्य से बनाया गया था, को कहाँ तक इसके लिये उत्तरदायी माना जा सकता है? (2013)

प्रश्न. ‘एकदा स्पीकर, सर्वदा स्पीकर’! क्या आपके विचार में लोकसभा अध्यक्ष पद की निष्पक्षता के लिये इस कार्यप्रणाली को स्वीकारना चाहिये? भारत में संसदीय प्रयोजन की सुदृढ़ कार्यशैली के लिये इसके क्या परिणाम हो सकते हैं? (2020)

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