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जैव विविधता और पर्यावरण

जलवायु सुभेद्यता सूचकांक

  • 27 Oct 2021
  • 7 min read

प्रिलिम्स के लिये:

जलवायु सुभेद्यता सूचकांक

मेन्स के लिये:

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और परिमाण,जलवायु परिवर्तन में मानवजनित गतिविधियों की भूमिका

चर्चा में क्यों ?

हाल ही में गैर-लाभकारी नीति अनुसंधान संस्थान ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (सीईईडब्ल्यू) द्वारा "मैपिंग इंडियाज़ क्लाइमेट वल्नरेबिलिटी- ए डिस्ट्रिक्ट-लेवल असेसमेंट" शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की गई है।

  • परिषद ने रिपोर्ट के साथ ही एक विशिष्ट प्रकार का पहला जलवायु सुभेद्यता सूचकांक भी लॉन्च किया है।
  • इस सूचकांक में भारत के 640 ज़िलों का विश्लेषण किया  गया और विश्लेषण के निष्कर्षों में पाया गया कि इनमें से 463 ज़िले अत्यधिक बाढ़, सूखे और चक्रवात से प्रभावित हैं।

प्रमुख बिंदु

  • प्रभावित राज्य: 27 भारतीय राज्य और केंद्रशासित प्रदेश गंभीर जलवायु घटनाओं से ग्रस्त हैं जहाँ  स्थानीय अर्थव्यवस्था बाधित तथा कमज़ोर समुदाय विस्थापित होने जैसी घटनाओं से प्रभावित हैं।
  • भारत में बाढ़, सूखा और चक्रवात जैसी गंभीर जलवायु घटनाओं का प्रति असम,आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक और बिहार जैसे राज्य अधिक संवेदनशील हैं।
  • जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: 80% से अधिक ज़िले जलवायु जोखिमों के प्रति संवेदनशील ज़िलों के रूप में वर्गीकृत किये गए हैं।
  • देश में प्रति 20 में से 17 लोग जलवायु जोखिमों के प्रति संवेदनशील हैं, जिनमें से हर पाँच भारतीय ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं जो बेहद संवेदनशील हैं।
  • इनमें से 45% से अधिक ज़िलों  में "अस्थिर परिदृश्य और उनके बुनियादी ढाँचे में परिवर्तन" हुआ है।
  • अनुकूलन क्षमता का निम्न स्तर: 60% से अधिक भारतीय ज़िलों में गंभीर मौसमी घटनाओं से निपटने के लिये मध्यम से निम्न स्तर की अनुकूलन क्षमता है।
  • मानवजनित गतिविधियों की भूमिका: मानवजनित गतिविधियों ने पहले ही संवेदनशील ज़िलों को प्राकृतिक आपदाओं के प्रभावों के प्रति और अधिक संवेदनशील बना दिया है। यह निम्नलिखित   गतिविधियों के कारण हुआ है:
  • प्राकृतिक बाधा के रूप में कार्य करने वाले आर्द्रभूमि और मैंग्रोव का क्षरण।
  • प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र का ह्रास, वन आवरण में कमी, संवेदनशील क्षेत्र में अधिक निर्माण।
  • आसन्न वित्तीय संकट: बढ़ती आवृत्ति और गंभीर जलवायु घटनाओं का मुकाबला करने के लिये भारत जैसे विकासशील देश में वित्त की कमी है।
  • इन घटनाओं से तटों के नज़दीक के आवास, परिवहन मार्गों और उद्योगों जैसे बुनियादी ढाँचे को खतरा होगा। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि बढ़ते मौसम से संबंधित वित्तीय नुकसान अगले आसन्न बड़े संकट की संभावना प्रकट करता है।

सुझाव:

  • विकेंद्रीकृत योजना: चूँकि भारत के अधिकांश ज़िले चरम मौसम की घटनाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं, इसलिये ज़िले वार जलवायु कार्य योजना की आवश्यकता है।
  • CEEW के अध्ययन ने यह भी संकेत दिया है कि भारत के केवल 63% ज़िलों में ज़िला आपदा प्रबंधन योजना (District Disaster Management Plan- DDMP) संचालित है।
  • नीति निर्माताओं, उद्यमियों और नागरिकों को प्रभावी जोखिम-सूचित निर्णय लेने के लिये ज़िला-स्तरीय विश्लेषण का उपयोग करना चाहिये।
  • वित्त की व्यवस्था: जलवायु संकट के कारण तेज़ी से हो रहे नुकसान और क्षति को देखते हुए भारत को COP-26 (जलवायु सम्मेलन) में अनुकूलन-आधारित जलवायु कार्यों के लिये जलवायु वित्त की मांग करनी चाहिये।
  • COP-26 में विकसित देशों द्वारा की गई प्रतिबद्धता- वर्ष 2009 से 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर की सहायता के वादे को पूरा करके विश्वास हासिल करना चाहिये और आने वाले दशक में जलवायु वित्त के सहयोग के लिये प्रतिबद्ध होना चाहिये।
  • इसके अलावा भारत को ग्लोबल रेजिलियेशन रिज़र्व फंड बनाने के लिये अन्य देशों के साथ सहयोग करना चाहिये, जो जलवायु संकट के खिलाफ बीमा के रूप में कार्य कर सकता है।
  • जलवायु जोखिम की पहचान: अंत में भारत के लिये एक जलवायु जोखिम एटलस विकसित करने से नीति निर्माताओं को चरम जलवायु घटनाओं से उत्पन्न होने वाले जोखिमों की बेहतर पहचान और आकलन करने में मदद मिलेगी।
  • भौतिक और पारिस्थितिक तंत्र के बुनियादी ढाँचे का जलवायु-प्रमाणन भी अब एक राष्ट्रीय अनिवार्यता बन गई है।
  • संस्थागत सेटअप: भारत को पर्यावरणीय जोखिम रहित मिशन के समन्वय के लिये एक नया जलवायु जोखिम आयोग बनाना चाहिये।
  • उन्नत जलवायु वित्त भारत के नेतृत्व वाली वैश्विक एजेंसियों जैसे आपदा प्रतिरोधी बुनियादी ढाँचे हेतु गठबंधन (Coalition for Disaster Resilient Infrastructure- CDRI) को भी मुख्यधारा की जलवायु क्रियाओं के लिये समर्थन कर सकता है।

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स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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