चॉकलेट उद्योग में मंदी | 10 May 2024

प्रिलिम्स के लिये:

अल नीनो, हीट वेव, जलवायु परिवर्तन, कोको की खेती, अंतर्राष्ट्रीय कोको संगठन (ICCO)

मेन्स के लिये:

चॉकलेट उद्योग पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव, भारत में कोको उत्पादन के लिये नीतिगत विकास का महत्त्व

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों ? 

चॉकलेट उद्योग संकट का सामना कर रहा है क्योंकि कोको बीन्स की कीमतें बढ़ रही है, जो अप्रैल 2024 में रिकॉर्ड 12,000 अमरीकी डॉलर प्रति टन तक पहुँच गई है। 

  • वर्ष 2023 में कीमत में हुई लगभग चार गुना वृद्धि ने चिंता उत्पन्न कर दी है तथा कीमतों में उतार चढ़ाव के अंतर्निहित कारणों की ओर ध्यान आकर्षित किया है।

कोको की बढ़ती कीमतों के पीछे क्या कारण हैं?

  • अल-नीनो और जलवायु परिवर्तन:
    • मौज़ूदा संकट का प्रत्यक्ष कारण पश्चिम अफ्रीकी देशों घाना और आइवरी कोस्ट में मौसमी फसलों का नष्ट होना है, जो विश्व की 60% कोको बीन्स का उत्पादन करते हैं। 
    • अल-नीनो, एक मौसम पैटर्न जो भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर में सतह के जल के असामान्य रूप से गर्म होने की घटना है, जिसके कारण पश्चिम अफ्रीका में सामान्य से अधिक भारी वर्षा हुई। इसने ब्लैक पाड रोग के प्रसार के लिये एक आदर्श वातावरण निर्मित किया, जिसके कारण कोको पेड़ की शाखाओं पर कोको की फलियाँ सड़ जाती हैं।
    • जलवायु परिवर्तन, भी एक प्रेरक कारक है, हीट वेव, सूखे और भारी वर्षा से कोको उत्पादन को अत्यधिक खतरा है, जो किसानों तथा चॉकलेट निर्माताओं के लिये समान रूप से दीर्घकालिक चुनौतियाँ पेश करता है। 
  • कोको किसानों की निम्न आय:
    • अंतर्निहित मुद्दा यह है कि बड़ी चॉकलेट कंपनियाँ पश्चिम अफ्रीका में कोको किसानों को पर्याप्त भुगतान नहीं करती हैं, जो औसतन 1.25 डॉलर प्रतिदिन से कम कमाते हैं, जो संयुक्त राष्ट्र की 2.15 डॉलर प्रतिदिन की पूर्ण गरीबी रेखा से काफी कम है।
    • किसान धन के अभाव के कारण उपज में बढ़ोतरी करने या जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध लचीलापन लाने के लिये भूमि में निवेश करने में सक्षम नहीं हैं, जिससे दास और बाल श्रमिकों के उपयोग में वृद्धि होती है तथा अवैध सोने के खनिकों को भूमि का विक्रय कर दिया जाता है। 
      • परिणामस्वरूप, कोको किसान निर्धन हैं तथा अपनी भूमि में निवेश करने या सतत् प्रथाओं को अपनाने में असमर्थ हैं, जिससे उत्पादन में गिरावट और कीमतों में वृद्धि हुई है।
    • चॉकलेट कंपनियों को हुए भारी लाभ के बावज़ूद, उन्होंने किसानों की आय बढ़ाने में सहायता करने के लिये कुछ नहीं किया है, जिससे किसानों का दीर्घकालिक शोषण हुआ और संभावित रूप से लंबे समय में उपभोक्ताओं के लिये चॉकलेट की कीमतें बढ़ गईं।
  • चल रहे संकट के संभावित परिणाम:
    • अंतर्राष्ट्रीय कोको संगठन (ICCO) ने वर्ष 2023-2024 सीज़न के लिये लगभग 374,000 टन की वैश्विक कमी की भविष्यवाणी की है, जिससे कोको की बीन्स में कमी होगी परिणामस्वरूप चॉकलेट की कीमतें बढ़ जाएंगी।
      • ICCO संयुक्त राष्ट्र के तहत वर्ष 1973 में स्थापित एक अंतर्सरकारी संगठन है।
      • आबिदजान, आइवरी कोस्ट में स्थित ICCO को संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय कोको सम्मेलन में जिनेवा में बातचीत के पहले अंतर्राष्ट्रीय कोको समझौते को लागू करने के लिये बनाया गया था।
    • कोको बीन्स की कमी बनी रहने की संभावना है, जिससे किसानों का शोषण बढ़ेगा और चॉकलेट की कीमतों में वृद्धि होगी।
    • विशेषज्ञों का मानना है कि प्रमुख चॉकलेट कंपनियों के पास आपूर्ति शृंखला में धन का पुनर्वितरण करने की गुंज़ाइश है, लेकिन जब तक वे ऐसा नहीं करते, स्थिति में सुधार होने की संभावना नहीं है।

Rising_Cost_of_cococa

कोको की खेती की आवश्यकताएँ:

  • ऊँचाई तथा वर्षा: कोको को समुद्र तल से 300 मीटर उच्च स्थान पर उगाया जा सकता है। इसके लिये 1500-2000 मि.मी. वार्षिक वर्षा के साथ प्रतिमाह न्यूनतम 90-100 मि.मी वर्षा की आवश्यकता होती है।  
  • तापमान एवं मृदा की स्थिति: कोको को उच्च तापमान में उगाया जाता है, अधिकतम 25 डिग्री सेल्सियस के साथ 15- 39 डिग्री सेल्सियस का तापमान आदर्श माना जाता है।
    • कोको की खेती के लिये उत्कृष्ट जल निकासी वाली मृदा की आवश्यकता होती है। खराब जल निकासी वाली मृदा पौधों की वृद्धि को प्रभावित करती है। कोको की खेती का अधिकांश रूप से  चिकनी दोमट और बलुई दोमट मृदा वाले क्षेत्र पर की जाती है। यह 6.5 से 7.0 pH रेंज में अच्छी तरह से बढ़ता है।
  • कृषिवानिकी: कोको के पेड़ छाया में पनपते हैं और अक्सर ऊँचे पेड़ों की छत्रछाया में उगाए जाते हैं। यह कृषिवानिकी अभ्यास न केवल आवश्यक माइक्रॉक्लाइमेट को बनाए रखने में सहायता करता है बल्कि जैवविविधता का भी समर्थन करता है।
  • भारत में कोको उत्पादन:
    • भारत में नारियल और सुपारी के खेत कोको उगाने के लिये आदर्श स्थान हैं क्योंकि सुपारी, कोको को 30 से 50 प्रतिशत तक सूर्य की किरणों को अवशोषित करने की अनुमति प्रदान करती है।
    • भारत में इसकी खेती मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में मुख्य रूप से सुपारी तथा नारियल के साथ सहफसल के रूप में की जाती है।
    • राष्ट्रीय बागवानी मिशन आंध्र प्रदेश में कोको किसानों को पहले तीन वर्षों के लिये 20,000 रुपए प्रति हेक्टेयर की सब्सिडी प्रदान करता है।
    • जर्मप्लाज़्म की शुरूआत के साथ, सेंट्रल प्लांटेशन क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट कोको में सुधार हेतु पद्धतिगत परियोजनाएँ निर्मित करता है।

Cocoa_Production_Globally

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. जलवायु परिवर्तन किस प्रकार कोको की कृषि करने वाले किसानों के लिये चुनौतियों में वृद्धि करता है और साथ ही चॉकलेट उद्योग पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

प्रिलिम्स:

प्रश्न. बाज़ार में बिकने वाला ऐस्परटेम कृत्रिम मधुरक है। यह ऐमीनो अम्लों से बना होता है और अन्य ऐमीनो अम्लों के समान ही कैलोरी प्रदान करता है। फिर भी यह भोज्य पदार्थों में कम कैलोरी मधुरक के रूप में इस्तेमाल होता है। उसके इस्तेमाल का क्या आधार है? (2011) 

(a) ऐस्परटेम सामान्य चीनी जितना ही मीठा होता है, किंतु चीनी के विपरीत यह मानव शरीर में आवश्यक एन्ज़ाइमों के अभाव के कारण शीघ्र ऑक्सीकृत नहीं हो पाता है।
(b) जब ऐस्परटेम आहार प्रसंस्करण में प्रयुक्त होता है, तब उसका मीठा स्वाद तो बना रहता है किंतु यह ऑक्सीकरण-प्रतिरोधी हो जाता है।
(c) ऐस्परटेम चीनी जितना ही मीठा होता है, किंतु शरीर में अंतर्गहण होने के बाद यह कुछ ऐसे मेटाबोलाइट्स में परिवर्तित हो जाता है जो कोई कैलोरी नहीं देते हैं।
(d) ऐस्परटेम सामान्य चीनी से कई गुना अधिक मीठा होता है, अतः थोड़े से ऐस्परटेम में बने भोज्य पदार्थ ऑक्सीकृत होने पर कम कैलोरी प्रदान करते हैं।

उत्तर: (d)