कार्बन बॉर्डर टैक्स | 17 Nov 2022
प्रिलिम्स के लिये:कार्बन बॉर्डर टैक्स, यूरोपियन यूनियन, COP-27, बेसिक, CBDR-RC, रियो डिक्लेरेशन। मेन्स के लिये:कार्बन बॉर्डर टैक्स और संबंधित मुद्दे। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत सहित विभिन्न देशों के संघ ने शर्म अल शेख, मिस्र में पार्टियों के सम्मेलन (COP) के 27वें संस्करण में यूरोपीय संघ (EU) द्वारा प्रस्तावित कार्बन बॉर्डर टैक्स का संयुक्त रूप से विरोध किया है।
कार्बन बॉर्डर टैक्स:
- कार्बन बॉर्डर टैक्स उत्पाद के उत्पादन से उत्पन्न कार्बन उत्सर्जन की मात्रा के आधार पर आयात पर एक शुल्क है। यह कार्बन को कीमती बनाकर उत्सर्जन को हतोत्साहित करता है। व्यापार से संबंधित उपाय के रूप में यह उत्पादन और निर्यात को प्रभावित करता है।
- यह प्रस्ताव यूरोपीय आयोग के यूरोपीय ग्रीन डील का हिस्सा है जो वर्ष 2050 तक यूरोप को पहला जलवायु-तटस्थ महाद्वीप बनाने का प्रयास करता है।
- कार्बन बॉर्डर टैक्स यकीनन राष्ट्रीय कार्बन टैक्स में एक सुधार है।
- राष्ट्रीय कार्बन टैक्स एक ऐसा शुल्क है जिसे सरकार देश के भीतर किसी भी उस कंपनी पर लगाती है जो जीवाश्म ईंधन का उपयोग करती है।
कार्बन टैक्स लगाने का कारण:
- यूरोपीय संघ और जलवायु परिवर्तन शमन: यूरोपीय संघ ने वर्ष 1990 के स्तर की तुलना में वर्ष 2030 तक अपने कार्बन उत्सर्जन में कम से कम 55% की कटौती करने की घोषणा की है। अब तक इन स्तरों में 24% की गिरावट आई है।
- हालाँकि आयात से होने वाले उत्सर्जन का यूरोपीय संघ द्वारा CO2 उत्सर्जन में 20% योगदान है जिसमे और भी वृद्धि देखी जा रही है।
- इस प्रकार का कार्बन टैक्स अन्य देशों को GHG उत्सर्जन कम करने तथा यूरोपीय संघ के कार्बन पदचिह्न को और कम करने के लिये प्रोत्साहित करेगा।
- कार्बन लीकेज़: यूरोपीय संघ की उत्सर्जन व्यापार प्रणाली कुछ व्यवसायों के लिये उस क्षेत्र में संचालन को महँगा बनाती है।
- यूरोपीय संघ के अधिकारियों को डर है कि ये व्यवसाय उन देशों में अपना व्यवसाय स्थानांतरित करना पसंद कर सकते हैं जहाँ उत्सर्जन सीमा को लेकर विशेष सीमाएँ नहीं हैं।
- इसे 'कार्बन लीकेज़' के रूप में जाना जाता है और इससे दुनिया में कुल उत्सर्जन में वृद्धि होती है।
- यूरोपीय संघ के अधिकारियों को डर है कि ये व्यवसाय उन देशों में अपना व्यवसाय स्थानांतरित करना पसंद कर सकते हैं जहाँ उत्सर्जन सीमा को लेकर विशेष सीमाएँ नहीं हैं।
मुद्दे:
- ‘बेसिक’ (BASIC) देशों की प्रतिक्रिया: ‘BASIC’ देशों (ब्राज़ील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन) के समूह ने एक संयुक्त बयान में यूरोपीय संघ के प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा कि यह ‘भेदभावपूर्ण’ एवं समानता तथा 'समान परंतु विभेदित उत्तरदायित्वों और संबंधित क्षमताओं' (CBDR-RC) के सिद्धांत के विरुद्ध है।
- ये सिद्धांत स्वीकार करते हैं कि विकसित देश जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने हेतु विकासशील और संवेदनशील देशों को वित्तीय एवं तकनीकी सहायता प्रदान करने हेतु उत्तरदायी हैं।
- भारत पर प्रभाव: यूरोपीय संघ भारत का तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है। यूरोपीय संघ, भारत निर्मित वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि कर भारतीय वस्तुओं को खरीदारों के लिये कम आकर्षक बना देगा जो मांग को कम कर सकता है।
- यह कर बड़ी ग्रीनहाउस गैस फुटप्रिंट वाली कंपनियों के लिये निकट भविष्य में गंभीर चुनौतियाँ उत्पन्न करेगा।
- ‘रियो घोषणा’ के साथ असंगत: पर्यावरण के लिये दुनिया भर में एक समान मानक स्थापित करने की यूरोपीय संघ की धारणा ‘रियो घोषणा’ के अनुच्छेद-12 में निहित वैश्विक सहमति के विरुद्ध है, जिसके मुताबिक, विकसित देशों के लिये लागू मानकों को विकासशील देशों पर लागू नहीं किया जा सकता है।
- जलवायु-परिवर्तन व्यवस्था में परिवर्तन: इन आयातों की ग्रीनहाउस सामग्री को आयात करने वाले देशों की ग्रीनहाउस गैस सूची में भी समायोजित करना होगा, जिसका अनिवार्य रूप से तात्पर्य है कि जीएचजी सूची को उत्पादन के आधार पर नहीं बल्कि खपत के आधार पर गिना जाना चाहिये।
- यह पूरे जलवायु परिवर्तन व्यवस्था को उलट देगी।
- संरक्षणवादी नीति: नीति को संरक्षणवाद का प्रच्छन्न रूप भी माना जा सकता है।
- संरक्षणवाद सरकारी नीतियों को संदर्भित करता है जो घरेलू उद्योगों की सहायता के लिये अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रतिबंधित करता है। ऐसी नीतियों को आमतौर पर घरेलू अर्थव्यवस्था के भीतर आर्थिक गतिविधियों में सुधार के लक्ष्य के साथ लागू किया जाता है।
- इसमें जोखिम है कि यह एक संरक्षणवादी उपकरण बन जाता है, जो स्थानीय उद्योगों को तथाकथित 'हरित संरक्षणवाद' में विदेशी प्रतिस्पर्धा से बचाता है।
आगे की राह
- भारत यूरोपीय संघ की इस नीति का लक्ष्य नहीं है, लक्ष्य रूस, चीन और तुर्की हैं जो कार्बन के बड़े उत्सर्जक हैं तथा यूरोपीय संघ को इस्पात एल्यूमीनियम के प्रमुख निर्यातक हैं।
- भारत के विपक्ष में सबसे आगे होने का कोई कारण नहीं है। इसके बज़ाय उसे सीधे यूरोपीय संघ से बात करनी चाहिये और द्विपक्षीय रूप से इस मुद्दे को सुलझाना चाहिये।
- सीमाओं पर आयातित सामानों पर शुल्क लगाने हेतु कार्बन बॉर्डर टैक्स जैसा तंत्र स्वच्छ प्रौद्योगिकियों को अपनाने को प्रेरित कर सकता है।
- लेकिन यदि यह नई तकनीकों और वित्त की पर्याप्त सहायता के बिना होता है, तो यह विकासशील देशों के लिये नुकसानदेह हो जाएगा।
- जहाँ तक भारत का संबंध है उसे इस कर के लागू होने से होने वाले फायदों और नुकसानों का आकलन करना चाहिये तथा द्विपक्षीय दृष्टिकोण के साथ यूरोपीय संघ से बात करनी चाहिये।
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