प्रजनन स्वायत्तता और अजन्मे बच्चे के अधिकारों के बीच संतुलन | 17 Oct 2023
प्रिलिम्स के लिये:भारत का सर्वोच्च न्यायालय, मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (MTP) अधिनियम, 1971, भारत में गर्भपात कानून, प्रजनन अधिकार मेन्स के लिये:भारत में गर्भपात से संबंधित कानूनी प्रावधान, महिलाओं से संबंधित प्रमुख मुद्दे |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (MTP) अधिनियम, 1971 के प्रावधानों के तहत एक विवाहित महिला के लिये 26 सप्ताह की गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया।
मामला:
- उक्त मामला गर्भावस्था के 26वें सप्ताह से गुजर रही एक 27 वर्षीय विवाहित महिला से संबंधित था और वह अपनी गर्भावस्था को समाप्त करने के लिये कानूनी अनुमति की मांग कर रही थी।
- महिला ने अपनी पहले से मौजूद बीमारियों और प्रसवोत्तर अवसाद के अनुभवों का हवाला देते हुए दूसरे बच्चे को पालने, जन्म देने अथवा पालन-पोषण करने में अपनी शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक, वित्तीय एवं चिकित्सीय अक्षमता का दावा किया।
- महिला ने अपने मामले की पैरवी के लिये मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) अधिनियम 1971 का सहारा लेने की मांग की थी।
न्यायालय का फैसला:
- सफल गर्भधारण होने और महिला के जीवन पर कोई जोखिम न होने की स्थिति में न्यायालय ने गर्भपात कराने की अनुमति प्रदान करने के प्रति असहमति जताई है।
- यह निर्णय MTP अधिनियम, 1971 की धारा 5 की व्याख्या पर आधारित है, जो केवल तभी गर्भपात की अनुमति देता है जब महिला का जीवन और स्वास्थ्य तत्काल रूप से खतरे में हो।
- भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की अगुवाई वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने इस बात पर बल दिया कि कोई महिला गर्भपात के लिये "पूर्ण, सर्वोपरि अधिकार" का दावा नहीं कर सकती है, विशेषकर जब चिकित्सा रिपोर्ट यह पुष्टि करती है कि गर्भावस्था उसके जीवन के लिये तात्कालिक समस्या उत्पन्न नहीं करती है।
- CJI ने MTP अधिनियम, 1971 की धारा 5 में 'जीवन' शब्द को संविधान के अनुच्छेद 21 में इसके व्यापक उपयोग से अलग किया और जीवन तथा मृत्यु की स्थितियों में इसके अनुप्रयोग पर बल दिया।
- अनुच्छेद 21 किसी व्यक्ति के गरिमापूर्ण और सार्थक जीवन के मौलिक अधिकार की रक्षा करता है।
- CJI ने MTP अधिनियम, 1971 की धारा 5 में 'जीवन' शब्द को संविधान के अनुच्छेद 21 में इसके व्यापक उपयोग से अलग किया और जीवन तथा मृत्यु की स्थितियों में इसके अनुप्रयोग पर बल दिया।
सरकार का रुख:
- सरकार का तर्क है कि महिला की प्रजनन स्वायत्तता उसके अजन्मे बच्चे के अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकती है।
- यह मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (संशोधन) अधिनियम, 2021 को संदर्भित करता है, जिसने महत्त्वपूर्ण भ्रूण असामान्यताओं के मामलों में गर्भपात की समय सीमा को 24 सप्ताह तक बढ़ा दिया है।
- उनका मानना है कि एक बार जब एक व्यवहार्य शिशु अस्तित्व में आ जाए, तो मिलने वाली राहत एकतरफा नहीं होनी चाहिये और महिला की शारीरिक स्वायत्तता का अधिकार अधिनियम के तहत प्रदान किये जाने वाले अधिकारों से बाहर नहीं जाना चाहिये।
- तर्क यह है कि महिला के पसंद के मौलिक अधिकार में कटौती की जा सकती है।
निहितार्थ और चुनौतियाँ:
- यह मामला गर्भावस्था के अंतिम चरण में भी महिलाओं के प्रजनन अधिकारों और गर्भपात से जुड़े नैतिक विचारों के विषय में मौलिक प्रश्न उठाता है।
- कानूनी विशेषज्ञों और अधिवक्ताओं के इस बात पर मतभेद हैं कि क्या गर्भावस्था को समाप्त करने के पूर्ण अधिकार का प्रावधान होना चाहिये, विशेषकर जब कोई असामान्यताएँ न हों।
- यह जटिल कानूनी और नैतिक दुविधा भारत में प्रजनन अधिकारों पर अग्रिम चर्चा तथा स्पष्टता की आवश्यकता पर प्रकाश डालती है।
- यह मामला भारत में महिलाओं के समक्ष कानूनी गर्भपात सेवाओं तक पहुँचने में आने वाली चुनौतियों पर भी प्रकाश डालता है।
भारत में गर्भपात से संबंधित कानूनी प्रावधान:
- 1960 के दशक तक भारत में गर्भपात अवैध था। विनियमों की आवश्यकता की जाँच करने के लिये वर्ष 1960 के दशक के मध्य में शांतिलाल शाह समिति का गठन किया गया था। परिणामस्वरूप, वर्ष 1971 का मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) अधिनियम पारित किया गया, जिससे सुरक्षित गर्भपात को वैध बनाया गया और महिलाओं के स्वास्थ्य की रक्षा की गई।
- वर्ष 1971 का MTP अधिनियम, लाइसेंस प्राप्त चिकित्सा पेशेवरों को कानून के तहत प्रदान की गई विशिष्ट पूर्व निर्धारित स्थितियों में गर्भपात करने की अनुमति देता है।
- MTP अधिनियम में वर्ष 2021 में संशोधन किया गया था ताकि कुछ श्रेणियों की महिलाओं, जैसे कि बलात्कार पीड़िताओं, नाबालिगों, मानसिक रूप से बीमार महिलाओं आदि को गर्भधारण के 24 सप्ताह तक गर्भपात कराने की अनुमति दी जा सके, इसे पूर्व की तुलना में 20 सप्ताह से अधिक बढ़ाया गया था।
- यह राज्य-स्तरीय मेडिकल बोर्ड का गठन करता है जो यह तय करता कि भ्रूण में पर्याप्त असामान्यताओं के मामलों में 24 सप्ताह के बाद गर्भावस्था को समाप्त किया जा सकता है या नहीं।
- MTP अधिनियम सुरक्षित गर्भपात सेवाओं तक पहुँचने में महिलाओं की गोपनीयता, निजता और गरिमा की सुरक्षा भी प्रदान करता है।
- गर्भधारण पूर्व और प्रसवपूर्व निदान तकनीक (PCPNDT) अधिनियम, 1994, यह लिंग-चयनात्मक गर्भपात पर रोक लगाता है तथा भ्रूण में आनुवंशिक या गुणसूत्र असामान्यताओं का पता लगाने हेतु प्रसवपूर्व निदान तकनीकों के उपयोग को नियंत्रित करता है।
- भारत का संविधान अनुच्छेद 21 के तहत सभी नागरिकों को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। इस अधिकार की व्याख्या भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा महिलाओं के लिये प्रजनन विकल्प एवं स्वायत्तता के अधिकार को शामिल करने हेतु की गई है।
निष्कर्ष:
- यह मामला सभी हितधारकों को शामिल करते हुए महिलाओं के प्रजनन अधिकारों और अजन्मे बच्चों की सुरक्षा के बीच संवेदनशील संतुलन की आवश्यकता को रेखांकित करता है। यह महिलाओं की गरिमा और स्वायत्तता का सम्मान करते हुए इन जटिल नैतिक चुनौतियों का समाधान करने हेतु खुले संवाद तथा कानूनी ढाँचे को बनाए रखने के निरंतर महत्त्व पर ज़ोर देता है।