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कृषि

प्राकृतिक खेती की क्षमता का आकलन

  • 16 Nov 2024
  • 16 min read

प्रिलिम्स के लिये:

'परंपरागत कृषि विकास योजना' (PKVY), भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति (BPKP)/ZBNF, प्राकृतिक खेती पर राष्ट्रीय मिशन (NMNF) 

मेन्स के लिये:

प्राकृतिक खेती: महत्त्व,चुनौतियाँ,संबंधित पहल तथा आगे की राह

स्रोत: डाउन टू अर्थ 

चर्चा में क्यों?

खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) द्वारा आंध्र प्रदेश (AP) सरकार के सहयोग से किये गए विश्लेषण से जानकारी प्राप्त हुई है कि प्राकृतिक खेती के AP मॉडल में औद्योगिक कृषि की तुलना में किसानों के लिये रोज़गार के अवसरों को दोगुना करने की क्षमता है, जिससे वर्ष 2050 तक समग्र बेरोज़गारी कम होगी और साथ ही किसानों की आय में वृद्धि होगी।

  • यह विश्लेषण आंध्र प्रदेश सरकार, फ्राँसीसी कृषि अनुसंधान संगठन एवं FAO द्वारा सामूहिक भविष्य-निर्माण अभ्यास 'एग्रोइको-2050' का एक हिस्सा था।

नोट:

  • एग्रोइको-2050 पहल का उद्देश्य वर्ष 2050 तक आंध्र प्रदेश में कृषि, खाद्य, भूमि उपयोग, प्रकृति, नौकरियों और आय के लिये दो संभावित भविष्य का आकलन करना है।
    • एक दृष्टिकोण पारंपरिक औद्योगिक खेती को तीव्र करने पर केंद्रित था, जबकि दूसरे ने प्राकृतिक खेती (कृषि पारिस्थितिकी) में वृद्धि करने पर ध्यान केंद्रित किया गया है। 
  • इसका लक्ष्य इन दोनों मार्गों के निहितार्थों की तुलना करना तथा उनकी सुसंगतता का आकलन करना था।

प्राकृतिक खेती क्या है?

  • प्राकृतिक खेती परिचय एवं उद्देश्य: प्राकृतिक खेती एक रसायन मुक्त दृष्टिकोण है, जो गाय के गोबर और मूत्र सहित स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों पर निर्भर करता है,तथा पारंपरिक एवं स्वदेशी प्रथाओं पर बल देती है। 
    • यह कृत्रिम उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग को समाप्त करता है, तथा मल्चिंग सहित खेत पर बायोमास पुनर्चक्रण को बढ़ावा देती है, तथा जैवविविधता, वनस्पति मिश्रणों एवं सभी कृत्रिम रसायनों के बहिष्कार के माध्यम से कीट प्रबंधन करती है। 
    • अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, प्राकृतिक खेती को पुनर्योजी कृषि का एक रूप माना जाता है - जो ग्रह को बचाने की एक प्रमुख रणनीति है। 
      • इसमें भूमि प्रथाओं का प्रबंधन करने तथा वायुमंडल से कार्बन को मृदा एवं पौधों में संग्रहित करने की क्षमता है, जहाँ यह हानिकारक होने के स्थान उपयोगी है।
  • वर्तमान परिदृश्य: आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश और केरल सहित कई राज्य पहले ही प्राकृतिक खेती को अपना चुके हैं और सफल मॉडल विकसित कर चुके हैं। 
    • अभी भी अपने प्रारंभिक चरण में होने के बावजूद, प्राकृतिक खेती प्रणाली कृषक समुदाय में धीरे-धीरे स्वीकार्यता प्राप्त कर रही है।

शून्य बजट प्राकृतिक खेती (ZBNF)

  • आंध्र प्रदेश में ज़ीरो बजट प्राकृतिक खेती: 
    • रसायन आधारित, पूंजी प्रधान कृषि के विकल्प के रूप में आंध्र प्रदेश द्वारा वर्ष 2016 में प्रस्तुत शून्य बजट प्राकृतिक खेती को रायथु सधिकारा संस्था (राज्य के कृषि विभाग द्वारा बनाई गई एक गैर-लाभकारी संस्था) के माध्यम से क्रियान्वित किया जाता है।
    • इस योजना को अब आंध्र प्रदेश सामुदायिक प्रबंधित प्राकृतिक खेती कहा जाता है, जिसका लक्ष्य 6 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में 6 मिलियन किसानों को शामिल करना है।
  • वर्ष 2019 के केंद्रीय बजट में ZBNF: 
    • वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के प्रयास में वर्ष 2019 के केंद्रीय बजट में भी शून्य बजट प्राकृतिक खेती को प्रमुखता दी गई थी।
    • इसे केंद्र प्रायोजित योजना परंपरागत कृषि विकास योजना' (PKVY) के तहत ' भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति (BPKP)'के रूप में बढ़ावा दिया जाता है,जिसका उद्देश्य पारंपरिक और स्वदेशी कृषि पद्धतियों को प्रोत्साहित करना है।

प्राकृतिक खेती क्यों अपनाई जानी चाहिये?

  • रोज़गार पर प्रभाव: FAO के अनुसार वर्ष 2050 तक प्राकृतिक खेती में औद्योगिक कृषि की तुलना में दोगुने किसानों को रोज़गार (प्राकृतिक खेती में 10 मिलियन किसान जबकि औद्योगिक खेती में 5 मिलियन किसान संलग्न होंगे) मिलेगा
    • इस बदलाव से बेरोज़गारी में कमी (प्राकृतिक खेती परिदृश्य में बेरोज़गारी घटकर 7% रह जाएगी) आएगी।
  • किसानों की आय: कम उत्पादन लागत (बीज, रसायन, सिंचाई, ऋण और मशीनरी) और उच्च गुणवत्ता वाली उपज के लिये बेहतर बाज़ार मूल्य के कारण प्राकृतिक खेती, किसानों के लिये अधिक लाभदायक होने की आशा है।
    • प्राकृतिक खेती से किसानों और गैर-किसानों के बीच आय का अंतर काफी कम (वर्ष 2019 के 62% से वर्ष 2050 तक 22%) हो जाएगा यह वर्ष 2050 तक औद्योगिक कृषि परिदृश्य में अपेक्षित 47% आय अंतराल से लगभग आधा है।
  • भूमि उपयोग और जैवविविधता: प्राकृतिक खेती के अंतर्गत वर्ष 2050 में कुल खेती योग्य क्षेत्र 8.3 मिलियन हेक्टेयर होगा जबकि औद्योगिक कृषि के अंतर्गत यह 5.5 मिलियन हेक्टेयर होगा। 
    • प्राकृतिक खेती मृदा क्षरण, मरुस्थलीकरण को रोकने के साथ पुनर्योजी और कृषि-पारिस्थितिकी प्रथाओं के माध्यम से जैवविविधता में सुधार लाने में सहायक होगी।
  • पोषण संबंधी लाभ: प्रति हेक्टेयर कुछ कम पैदावार के बावजूद, प्राकृतिक खेती से औद्योगिक खेती (4,054 किलोकैलोरी/दिन) की तुलना में प्रति व्यक्ति (5,008 किलोकैलोरी/दिन) अधिक पौष्टिक भोजन मिलेगा। 

प्राकृतिक खेती से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?

  • अपर्याप्त किसान प्रशिक्षण और सहायता: किसानों को प्राकृतिक कृषि पद्धतियों को अपनाने और बनाए रखने के लिये अधिक व्यापक प्रशिक्षण और निरंतर सहायता की आवश्यकता है। 
    • वर्तमान प्रशिक्षण प्रणालियाँ सभी प्रकार की आवश्यकताओं को पूरा करने में अपर्याप्त हैं।
  • जटिल प्रमाणन प्रक्रिया: जैविक खेती के लिये प्रमाणन प्रक्रिया, विशेष रूप से भागीदारी गारंटी योजना (PGS-इंडिया), को जटिल होने के साथ किसान-अनुकूल नहीं माना जाता है। 
  • खराब विपणन संपर्क: जैविक उत्पादों के लिये प्रभावी विपणन प्रणालियों का अभाव है, जिसके कारण लाभकारी कीमतों को लेकर चिंता बनी रहती है। 
  • अपर्याप्त वित्तपोषण और नीतिगत समर्थन: रासायनिक उर्वरकों के लिये दी जाने वाली सब्सिडी की तुलना में जैविक और प्राकृतिक कृषि कार्यक्रमों को बहुत कम बजट प्राप्त होता है, जो महत्त्वपूर्ण बाधा है। 
    • वैज्ञानिक समुदाय में समग्र समझ और समर्थन का भी अभाव है, जिससे जैविक खेती में परिवर्तन एवं निवेश की संभावना सीमित होती है।
  • राज्य-स्तरीय कार्यान्वयन में धीमी प्रगति: यद्यपि कुछ राज्यों की जैविक खेती से संबंधित नीतियाँ हैं, लेकिन उनका कार्यान्वयन धीमा बना हुआ है। 
    • संबंधित नीतियाँ होने के बावजूद कर्नाटक, केरल और अन्य राज्य अपने लक्ष्यों को पूरा करने में सक्षम नहीं हैं।
  • रासायनिक आदानों पर निर्भरता: कृषि प्रणाली काफी हद तक उर्वरकों और कीटनाशकों जैसे रासायनिक आदानों पर बहुत अधिक निर्भर है तथा जैविक विकल्पों को अभी भी व्यापक रूप से बढ़ावा नहीं दिया जा रहा है या अपनाया नहीं जा रहा है।
    • प्राकृतिक और जैविक खेती में कम पैदावार, तथा कीटों एवं खरपतवारों के प्रति उच्च संवेदनशीलता, छोटे व सीमांत किसानों को इन पद्धतियों को अपनाने से रोकती है। 
    • इन किसानों के लिये, जो भारत के कृषि समुदाय का 80% से अधिक हिस्सा हैं, कम उत्पादन उनकी आजीविका के लिये एक गंभीर खतरा बन गया है, जिससे ऐसी कृषि पद्धतियों को अपनाने में देरी हो रही है।

भारत में प्राकृतिक खेती से संबंधित पहल 

आगे की राह: 

  • उत्पादन पर वैज्ञानिक अध्ययन: प्राकृतिक खेती के साथ एक बड़ी चुनौती यह है कि इसके परिणामस्वरूप गेहूँ और चावल जैसी प्रमुख फसलों की पैदावार कम हो सकती है, जिससे भारत की बड़ी आबादी के लिये खाद्य सुरक्षा को खतरा हो सकता है। 
    • इस समस्या का समाधान करने के लिये, प्राकृतिक खेती से होने वाली फसल पैदावार पर गहन और कठोर वैज्ञानिक अनुसंधान करना आवश्यक है, विशेष रूप से इन प्रमुख फसलों के लिये, इससे पहले कि इसे व्यापक रूप से अपनाया जाए।
  • स्थानीय स्तर पर अपनाना: यद्यपि प्राकृतिक खेती स्थानीय स्तर पर लाभकारी हो सकती है, फिर भी यह सुझाव दिया जाता है कि इसका प्रयोग मुख्य खाद्य पदार्थों के बजाय पूरक खाद्य पदार्थों तक ही सीमित रखा जाए। 
    • इससे स्थिरता और खाद्य सुरक्षा के बीच संतुलन स्थापित कर गैर-प्रधान फसलों के लिये प्राकृतिक खेती का प्रयोग किया जा सकेगा।
  • खाद्य सुरक्षा के लिये जोखिम न्यूनीकरण: राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के लिये संभावित जोखिमों से बचने के लिये, प्राकृतिक खेती को अपनाने का वैज्ञानिक परीक्षणों के माध्यम से सावधानीपूर्वक मूल्यांकन, विशेष रूप से प्रमुख फसलों की उत्पादकता और उपज के संबंध में, किया जाना चाहिये।
    • बड़े पैमाने पर रासायनिक खेती से प्राकृतिक खेती में बदलाव से पहले व्यापक अध्ययन करना आवश्यक है। श्रीलंका में जैविक खेती में बदलाव के बाद (जिसमें रासायनिक उर्वरकों पर प्रतिबंध लगाना भी शामिल था),पैदावार में कमी आई, खासकर चावल में, जिससे खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ गई। 
    • इसके परिणामस्वरूप कीमतों में वृद्धि हुई और व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए, जिससे जल्दबाजी में नीतिगत परिवर्तन के जोखिम सामने आए।

दृष्टि मेन्स प्रश्न

प्रश्न: भारत में एक संधारणीय कृषि मॉडल के रूप में प्राकृतिक खेती की क्षमता का मूल्यांकन कीजिये। 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:  

प्रश्न. स्थायी कृषि (पर्माकल्चर), पारंपरिक रासायनिक कृषि से किस प्रकार भिन्न है? (2021) 

  1. स्थायी कृषि एकधान्य कृषि पद्धति को हतोत्साहित करती है, किंतु पारंपरिक रासायनिक कृषि में एकधान्य कृषि पद्धति की प्रधानता है।  
  2. पारंपरिक रासायनिक कृषि के कारण मृदा की लवणता में वृद्धि हो सकती है किंतु इस तरह की परिघटना स्थायी कृषि में नहीं देखी जाती है।  
  3. पारंपरिक रासायनिक कृषि अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में आसानी से संभव है किंतु ऐसे क्षेत्रों में स्थायी कृषि इतनी आसानी से संभव नहीं है।  
  4. मल्च बनाने की प्रथा (मल्चिंग) स्थायी कृषि में काफी महत्त्वपूर्ण है किंतु पारंपरिक रासायनिक कृषि में ऐसी प्रथा आवश्यक नहीं है। 

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: 

(a) केवल 1 और 3 
(b) केवल 1, 2 और 4 
(c) केवल 4   
(d) केवल 2 और 3 

उत्तर: (b) 


मेन्स: 

प्रश्न. फसल विविधता के समक्ष मौजूदा चुनौतियाँ क्या हैं? उभरती प्रौद्योगिकियाँ फसल विविधता के लिये किस प्रकार अवसर प्रदान करती हैं? (2021) 

प्रश्न. जल इंजीनियरिंग और कृषि विज्ञान के क्षेत्रों में क्रमशः सर एम. विश्वेश्वरैया और डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन के योगदानों से भारत को किस प्रकार लाभ पहुँचा था? (2019)

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