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भारतीय राजनीति

दल बदल विरोधी कानून और न्यायिक समीक्षा

  • 17 Jul 2020
  • 9 min read

प्रीलिम्स के लिये:

दलबदल विरोधी कानून, न्यायिक समीक्षा, किहोतो होलोहन बनाम जाचिल्हू और अन्य वाद 

मेन्स के लिये:

दलबदल विरोधी कानून

चर्चा में क्यों?

हाल ही में राजस्थान में बिगड़ते राजनीतिक संकट के बीच राजस्थान विधानसभा अध्यक्ष द्वारा बागी विधायकों को ‘दलबदल विरोधी कानून’ (Anti-defection Law) के तहत अयोग्यता नोटिस जारी किया गया।

प्रमुख बिंदु:

  • बागी काॅन्ग्रेसी नेता सचिन पायलट और 18 अन्य असंतुष्ट विधायकों ने अयोग्यता नोटिस को उच्च न्यायालय में चुनौती दी है।
  • इन बागी विधायकों का तर्क है विधानसभा के बाहर कुछ नेताओं के निर्णयों और नीतियों से असहमत होने के आधार पर उन्हें संसदीय ‘दलबदल विरोधी कानून’ के तहत अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता है।
  • संविधान के 52वें सविधान संशोधन के माध्यम से दलबदल विरोधी कानून, 1985 में पारित किया गया तथा भारतीय संविधान में ‘दसवीं अनुसूची’ को जोड़ा गया। 

क्या था मामला?

  • उपमुख्यमंत्री सहित कॉंग्रेस के कुछ बागी विधायक हाल ही में 'काॅन्ग्रेस विधायक दल' (Congress Legislature Party- CLP) की बैठकों में बार-बार निमंत्रण देने के बावज़ूद शामिल नहीं हुए थे। इसके बाद राज्य में पार्टी के मुख्य सचेतक (Whip) की अपील पर विधानसभा अध्यक्ष द्वारा इन विधायकों को अयोग्यता संबंधी नोटिस जारी किया गया।

बागी विधायकों का पक्ष:

  • बागी विधायकों ने अपनी रिट याचिका में नोटिस को रद्द करने की मांग करते हुए तर्क दिया है कि:
    • प्रथम, उनके द्वारा सदन की सदस्यता का त्याग नहीं किया गया है, अत: ‘दल बदल विरोधी कानून’ का उन पर प्रयोग नहीं किया जा सकता। 
    • द्वितीय, CLP की बैठकों में शामिल न होने में विफल रहने के आधार पर उन्हें दल बदल विरोधी कानून के तहत उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है।
  • रिट याचिका 'राजस्थान विधानसभा सदस्यों की वैधता (पार्टी बदलने के आधार पर अयोग्यता) नियम’, 1989 और संविधान की दसवीं अनुसूची के क्लॉज़ 2(1)(a) को चुनौती देने के लिये दायर की गई है।
    • इस प्रावधान के अनुसार "स्वेच्छा से एक राजनीतिक पार्टी की सदस्यता का त्याग करने पर सदस्य दलबदल कानून के तहत अयोग्यता के लिये उत्तरदायी होगा।”

विधानसभा अध्यक्ष का पक्ष:

  • इसके बाद विधानसभा अध्यक्ष के भी उच्च न्यायालय में अर्जी दाखिल करते हुए अपील की है कि किसी भी प्रकार आदेश जारी करने से पहले पार्टी के पक्ष को भी सुनना चाहिये।    

न्यायिक समीक्षा और दलबदल विरोधी कानून:

  • दल बदल विरोधी कानून के अनुसार, दल बदल से उत्पन्न अयोग्यता के बारे में किसी भी प्रश्न के मामले का निर्धारण सदन के पीठासीन अधिकारी द्वारा तय किया जाना है।
    • हालाँकि पीठासीन अधिकारी के निर्णय की उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। 
  • जब तक कि विधानमंडल के अध्यक्ष या सभापति द्वारा संविधान की दसवीं अनुसूची (दलबदल विरोधी कानून) के तहत सदस्यों को अयोग्यता पर अंतिम निर्णय नहीं ले लिया जाता तब तक न्यायपालिका अयोग्यता कार्यवाही की न्यायिक समीक्षा नहीं कर सकती हैं।
  • वर्ष 2015 में हैदराबाद उच्च न्यायालय ने एक याचिका पर सुनवाई करने के बाद मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था जिसमें आरोप लगाया गया था कि तेलंगाना विधानसभा अध्यक्ष द्वारा एक सदस्य के खिलाफ दल बदल विरोधी कानून के तहत कार्रवाई में देरी की गई। 

‘किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू (Kihoto Hollohan vs Zachillhu) और अन्य वाद’ (वर्ष 1992):

  • इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि "अध्यक्ष या सभापति द्वारा दल बदल विरोधी कानून’ के तहत अंतिम निर्णय लेने से पहले की गई कार्यवाही की बीच में न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती और न ही न्यायपालिका के कार्यवाही के बीच में कोई हस्तक्षेप करना अनुमेय होगा।"
  • इसका एकमात्र अपवाद ‘अंतर्वर्ती अयोग्यता’ (Interlocutory Disqualifications) या निलंबन के ऐसे मामले हैं जिनके गंभीर, तत्काल और अपरिवर्तनीय नतीजे और परिणाम हो सकते हैं।
  • यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि इसी वाद में न्यायपालिका ने निर्णय दिया था कि दल बदल विरोधी कानून के तहत विधानसभा अध्यक्ष द्वारा लिये गए निर्णय में त्रुटियों की जाँच का न्यायिक पुनरावलोकन किया जा सकता है।

न्यायिक समीक्षा’ का दायरा भी बहुत सीमित:

  • संसदीय परंपराओं में अध्यक्ष के कार्यालय को सर्वोच्च सम्मान और मान्यता प्राप्त है। संसदीय लोकतांत्रिक संस्था की धुरी (Pivot) अध्यक्षीय परंपरा पर आधारित है। उसे औचित्य और निष्पक्षता का प्रतीक माना जाता है।
  • 'दल बदल विरोधी कार्यवाही' में अध्यक्ष या सभापति के निर्णय के ‘न्यायिक समीक्षा’ का दायरा बहुत सीमित है। न्यायपालिका केवल संवैधानिक जनादेश के उल्लंघन पर आधारित दुर्भावना, प्राकृतिक न्याय के नियमों का पालन नहीं करने और दुराग्रह के मामलों में ही न्यायिक समीक्षा करेगा। 

भाषण की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार

(Fundamental Right to Free Speech):

  • बागी विधायकों द्वारा संविधान की दसवीं अनुसूची के क्लॉज़ 2(1)(a) को चुनौती देने के लिये याचिका दायर की गई है।
  • विधायकों के अनुसार, यह प्रावधान असंतोष व्यक्त करने के उनके अधिकार और स्वतंत्र भाषण के उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है।

भाषण की स्वतंत्रता बनाम राजनीतिक अनुशासन:

  • ‘किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू और अन्य वाद’ में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि एक राजनीतिक दल साझा विश्वासों के बल पर कार्य करता है। इसकी दलों की राजनीतिक स्थिरता और सामाजिक उपयोगिता इन्ही साझा मान्यताओं पर आधारित होती है, और आमतौर पर आयोजित सिद्धांतों को आगे बढ़ाने में इसके सदस्यों पर ठोस कार्रवाई करने की आवश्यकता होती है। 
  • लेकिन एक ही राजनीतिक दल के सदस्यों द्वारा असमान स्थिति या मनमुटाव की एक सार्वजनिक छवि को राजनीतिक परंपरा में वांछनीय स्थिति के रूप में नहीं देखा जाता है। हालाँकि जब सरकार के गठन में अनेक राजनीतिक दल शामिल होते हैं तो वहाँ दलों के बीच मनमुटाव को उचित ठहराया जा सकता है। 

आगे की राह:

  • ऐसे समय में जब भारत की रैंक 'नवीनतम लोकतंत्र सूचकांक' (2019) में गिर गई है, संसद से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अध्यक्ष की संस्था को सुधारने और मज़बूत करने के लिये कदम उठाए।
  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा दलबदल कानून में संतुलन बनाए रखने के लिये कानून में आवश्यक बदलाव किये जाने की आवश्यकता है। 

स्रोत: द हिंदू

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