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जैव विविधता और पर्यावरण

अंटार्कटिक ओज़ोन छिद्र

  • 25 Nov 2023
  • 12 min read

प्रिलिम्स के लिये:

अंटार्कटिक ओज़ोन छिद्र, मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल, ओज़ोन क्षरण, पराबैंगनी (UV) विकिरण, क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFC)

मेन्स के लिये:

अंटार्कटिक ओज़ोन छिद्र, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण

स्रोत: डाउन टू अर्थ 

चर्चा में क्यों?

नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन के अनुसार, विगत चार वर्षों में अंटार्कटिक ओज़ोन छिद्र का आकार बड़े पैमाने पर बढ़ गया है।

अध्ययन के प्रमुख बिंदु क्या हैं?

  • ओज़ोन क्षरण:
    • अंटार्कटिक ओज़ोन छिद्र का निरंतर विस्तार हो रहा है तथा हाल के वर्षों में इसकी परत में विरलन हुआ है, जो वर्ष 2000 के दशक के बाद से देखी गई अपेक्षित पुनर्प्राप्ति प्रवृत्ति के विपरीत है।
    • छिद्र के केंद्र में ओज़ोन की सांद्रता गंभीर रूप से कम हो गई है, जो ओज़ोन परत के गंभीर रूप से पतले होने का संकेत देती है।
      • मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल में उल्लिखित प्रयासों के बावजूद ओज़ोन छिद्र के मूल में ओज़ोन की सांद्रता वर्ष 2004 से वर्ष 2022 तक 26% कम हो गई है, जिसका उद्देश्य ओज़ोन परत का क्षरण करने वाले मानव-जनित रसायनों को कम करना था।
  • ध्रुवीय भँवर के प्रभाव: 
    • अंटार्कटिक ओज़ोन छिद्र ध्रुवीय भँवर के भीतर मौजूद है, समताप मंडल में एक गोलाकार हवा का पैटर्न जो शीत ऋतु के दौरान बनता है और वसंत ऋतु तक बना रहता है।
    • इस भंवर के भीतर मेसोस्फीयर (समतापमंडल के ऊपर वायुमंडलीय परत) से अंटार्कटिक हवा बहाव समतापमंडल में होता है। हवा अतिक्रमणकारी प्राकृतिक रासायनिक पदार्थ (उदाहरण के लिये नाइट्रोजन डाइऑक्साइड) लाती है जो अक्तूबर में ओज़ोन प्रक्रिया को प्रभावित करती है।
  • ओज़ोन रिक्तीकरण को प्रभावित करने वाले कारक:
    • तापमान, हवा के पैटर्न, वनाग्नि और ज्वालामुखी विस्फोटों से निकलने वाले एरोसोल तथा सौर चक्र में परिवर्तन जैसी मौसम संबंधी स्थितियों की भूमिका ने अंटार्कटिक ओज़ोन छिद्र के आकार एवं व्यवहार को प्रभावित किया।
  • सिफारिश:
    • समतापमंडल से हवा के अवतरण और ओज़ोन प्रक्रिया पर इसके विशिष्ट प्रभावों को समझने के लिये और अधिक शोध की आवश्यकता है।
    • इन तंत्रों की जाँच से अंटार्कटिक ओज़ोन छिद्र के भविष्य के व्यवहार पर प्रकाश पड़ने की संभावना है।

ओज़ोन छिद्र क्या है?

  • परिचय:
    • ओज़ोन छिद्र ओज़ोन परत की अत्यधिक कमी को संदर्भित करता है- पृथ्वी के समताप मंडल में एक क्षेत्र जिसमें ओज़ोन अणुओं की उच्च सांद्रता होती है।
    • इस परत में ओज़ोन अणु (O3) पृथ्वी को सूर्य से हानिकारक पराबैंगनी (UV) विकिरण से बचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
    • ओज़ोन परत की कमी के कारण ओज़ोन सांद्रता में अत्यधिक कमी वाले क्षेत्र का निर्माण होता है, जो प्राय:अंटार्कटिक के ऊपर देखा जाता है।
    • यह घटना मुख्यतः दक्षिणी गोलार्द्ध के वसंत महीनों (अगस्त से अक्तूबर) के दौरान होती है, हालाँकि यह वैश्विक कारकों से भी प्रभावित हो सकती है।
  • ओज़ोन छिद्र के कारण:
    • यह कमी मानव-जनित रसायनों के कारण होती है जिन्हें ओज़ोन-घटने वाले पदार्थ (ODS) के रूप में जाना जाता है, जिसमें क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFCs), हैलोन, कार्बन टेट्राक्लोराइड और मिथाइल क्लोरोफॉर्म शामिल हैं।
    • ये पदार्थ एक बार वायुमंडल में छोड़े जाने के बाद समताप मंडल में बढ़ जाते हैं, जहाँ वे सूर्य की पराबैंगनी विकिरण के कारण टूट जाते हैं, जिससे क्लोरीन तथा ब्रोमीन परमाणु निकलते हैं जो ओज़ोन अणुओं को नष्ट कर देते हैं।
      • अंटार्कटिक ओज़ोन छिद्र इस घटना का सबसे प्रसिद्ध और गंभीर उदाहरण है। इसकी विशेषता ओज़ोन स्तर में अत्यधिक कमी है, जिससे हानिकारक UV विकिरण की बढ़ी हुई मात्रा पृथ्वी की सतह तक पहुँचती है।
  • प्रभाव:
    • बढ़ी हुई UV विकिरण की मात्रा मनुष्यों के लिये स्वास्थ्य जोखिम पैदा करती है, जिसमें त्वचा कैंसर, मोतियाबिंद और कमज़ोर प्रतिरक्षा प्रणाली की उच्च दर शामिल है।
    • UV विकिरण विभिन्न जीवों और पारिस्थितिक तंत्रों को नुकसान पहुँचा सकता है। ओज़ोन रिक्तीकरण अप्रत्यक्ष रूप से जलवायु परिवर्तन को प्रभावित कर सकता है। ओज़ोन रिक्तीकरण के कारण समतापमंडल में परिवर्तन, वायुमंडलीय परिसंचरण पैटर्न को प्रभावित कर सकता है, जो संभावित रूप से कुछ क्षेत्रों में मौसम और जलवायु को प्रभावित कर सकता है।

ओज़ोन क्षरण को रोकने के लिये वैश्विक पहलें क्या हैं?

  • ओज़ोन परत के संरक्षण के लिये वर्ष 1985 का वियना कन्वेंशन एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता था जिसमें संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों ने समतापमंडलीय ओज़ोन परत को होने वाले नुकसान को रोकने के मूलभूत महत्त्व को मान्यता दी।
  • ओज़ोन परत को नुकसान पहुँचाने वाले पदार्थों पर वर्ष 1987 के मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल और इसके बाद के संशोधनों पर मानवजनित (ODS) तथा कुछ हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (HFC) की खपत एवं उत्पादन को नियंत्रित करने के लिये बातचीत की गई।
    • ओज़ोन क्षरणकारी पदार्थों, मुख्य रूप से क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFC) के उपयोग को नियंत्रित करने के लिये वर्ष 1987 में 197 पक्षों द्वारा प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किये गए थे। मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल कई औद्योगिक क्षेत्रों में पदार्थों, पहले हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन (HCFC) और फिर HFC, के प्रतिस्थापन के विकास से संबंधित है।
    • जबकि HFC का समतापमंडलीय ओज़ोन पर केवल मामूली प्रभाव पड़ता है, कुछ HFC शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैसें (GHG) हैं।
  • मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल में  किगाली संशोधन, 2016 को अपनाने से कुछ HFC के उत्पादन और खपत में कमी आएगी तथा अनुमानित वैश्विक वृद्धि एवं संबंधित जलवायु परिवर्तन से बचा जा सकेगा।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा एक, ओज़ोन का अवक्षय करने वाले पदार्थों के प्रयोग पर नियंत्रण और उन्हें चरणबद्ध रूप से प्रयोग से बाहर करने के मुद्दे से संबंद्ध है? (2015)

(a) ब्रेटन वुड्स सम्मेलन
(b) मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल
(c) क्योटो प्रोटोकॉल
(d) नागोया प्रोटोकॉल

उत्तर: (b) 

व्याख्या: 

  • ब्रेटन वुड्स सम्मेलन को आधिकारिक तौर पर संयुक्त राष्ट्र मौद्रिक और वित्तीय सम्मेलन (United Nations Monetary and Financial Conference) के रूप में जाना जाता है। वर्ष 1944 तक 44 देशों के प्रतिनिधि इस सम्मलेन में शामिल हुए थे। इसका तात्कालिक उद्देश्य द्वितीय विश्वयुद्ध एवं विश्वव्यापी संकट से जूझ रहे देशों की मदद करना था।
    • सम्मेलन की दो प्रमुख उपलब्धियाँ- अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक (IBRD) की स्थापना थीं।
  • मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल ओज़ोन को कम करने वाले पदार्थों के उपयोग को समाप्त करके पृथ्वी की ओज़ोन परत की रक्षा के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण समझौता है। 15 सितंबर, 1987 को अपनाया गया यह प्रोटोकॉल अब तक की एकमात्र संयुक्त राष्ट्र संधि है जिसे पृथ्वी पर संयुक्त राष्ट्र के सभी 197 सदस्य देशों द्वारा अनुमोदित किया गया है।
  • क्योटो प्रोटोकॉल UNFCCC से जुड़ा एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बाध्यकारी GHG (ग्रीनहाउस गैस) उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य निर्धारित करके पार्टियों के लिये प्रतिबद्धता सुनिश्चित करता है।
    • क्योटो प्रोटोकॉल 11 दिसंबर, 1997 को क्योटो, जापान में अपनाया गया और 16 फरवरी, 2005 से प्रभाव में आया।
    • प्रोटोकॉल के कार्यान्वयन के लिये विस्तृत नियमों को वर्ष 2001 में मराकेश (Marrakesh), मोरक्को में CoP-7 के रूप में अपनाया गया था और इसे मराकेश समझौते के रूप में संदर्भित किया गया था।
    • भारत ने क्योटो प्रोटोकॉल की दूसरी प्रतिबद्धता अवधि (2008-2012) की पुष्टि की है, जो देशों के लिये ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने हेतु प्रतिबद्धता तय करती है और जलवायु कार्रवाई पर अपने रुख की पुष्टि करती है।
  • आनुवंशिक संसाधनों तक पहुँच पर नागोया प्रोटोकॉल और उनके उपयोग से उत्पन्न होने वाले लाभों का उचित एवं न्यायसंगत साझाकरण जैविक विविधता पर कन्वेंशन के तीन उद्देश्यों में से एक के प्रभावी कार्यान्वयन हेतु पारदर्शी कानूनी ढाँचा प्रदान करता है। साथ ही जैवविविधता के सतत् उपयोग को बढ़ावा देने, आनुवंशिक संसाधनों के उपयोग से होने वाले लाभों के उचित तथा न्यायसंगत बँटवारे का प्रावधान करता है। भारत ने वर्ष 2011 में इस प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किये।
  • अतः विकल्प (b) सही है।
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