व्यभिचार और संबंधित पेचीदगियाँ | 21 Nov 2023
प्रिलिम्स के लिये:संसदीय समितियाँ, कानूनी स्थायी बनाम विधायी कार्रवाई, भारत में व्यभिचार पर कानूनी स्थिति। मेन्स के लिये:व्यभिचार को अपराध घोषित करने के पक्ष और विपक्ष में तर्क |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
गृह मामलों की संसदीय समिति ने सुझाव दिया है कि भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860 को बदलने के लिये प्रस्तावित कानून, भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 में व्यभिचार को एक अपराध के रूप में फिर से स्थापित किया जाना चाहिये।
भारत में व्यभिचार को लेकर कानूनी स्थिति क्या है?
- व्यभिचार :
- व्यभिचार एक विवाहित व्यक्ति (पुरुष या महिला) द्वारा अपने जीवनसाथी के अलावा किसी अन्य के साथ शारीरिक संबंध बनाने का स्वैच्छिक कार्य है।
- भारत में कानूनी स्थिति:
- वर्ष 2018 से पहले भारतीय दंड संहिता में धारा 497 शामिल थी, जो व्यभिचार को एक आपराधिक कृत्य के रूप में वर्गीकृत करती थी, जिसमें पाँच वर्ष तक की कैद, ज़ुर्माना या दोनों सज़ा हो सकती थी।
- विशेष रूप से धारा 497 के तहत केवल पुरुषों को दंड का सामना करना पड़ सकता था, जबकि महिलाओं को अभियोजन से छूट थी।
- यह व्यभिचार की व्यापक परिभाषा के विपरीत है, जिसमें वैवाहिक जीवन से बाहर स्वैच्छिक शारीरिक संबंधों में शामिल दोनों लिंगों को शामिल किया गया है।
- जोसेफ शाइन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2018) के एक ऐतिहासिक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वसम्मति से धारा 497 को रद्द कर दिया।
- सरकार ने भेदभाव और संवैधानिक उल्लंघनों पर प्रकाश डाला, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 पर ज़ोर देते हुए क्रमशः समानता, गैर-भेदभाव और जीवन एवं स्वतंत्रता की रक्षा की।
- हाल ही में गृह मामलों की संसदीय समिति ने भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 में व्यभिचार को एक अपराध के रूप में फिर से स्थापित करने का प्रस्ताव रखा।
- हालाँकि यह एक महत्त्वपूर्ण बदलाव का सुझाव देती है कि इसे लैंगिक-तटस्थता की स्थिति प्रदान की जाए जो पुरुषों और महिलाओं दोनों पर लागू हो।
- यह तर्क दिया गया कि धारा 497 को भेदभाव के आधार पर रद्द कर दिया गया था तथा लैंगिक-तटस्थता से इस कमी को दूर किया जा सकेगा।
- वर्ष 2018 से पहले भारतीय दंड संहिता में धारा 497 शामिल थी, जो व्यभिचार को एक आपराधिक कृत्य के रूप में वर्गीकृत करती थी, जिसमें पाँच वर्ष तक की कैद, ज़ुर्माना या दोनों सज़ा हो सकती थी।
कानूनी स्थिति बनाम विधायी कार्रवाई:
- गृह मामलों की संसदीय समिति का हालिया प्रस्ताव सर्वोच्च न्यायालय की कानूनी स्थिति को चुनौती प्रतीत होता है।
- सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय देश के कानून के समान है। हालाँकि संसद सीधे तौर पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का उल्लंघन नहीं कर सकती है लेकिन उसके पास कानून पारित करने का अधिकार है जो निर्णय के आधार को संबोधित करता है, जिसका लक्ष्य पहचाने गए दोषों को दूर करना है, जबकि संभावित रूप से न्यायालय की टिप्पणियों के साथ संरेखित करने के लिये पूर्वव्यापी अथवा भावी कानूनों पर विचार करना होगा।
- मद्रास बार एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2021) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि किसी मान्य कानून को वैध ठहराने के लिये उसे प्रारंभिक निर्णय में पहचाने गए दोष का प्रभावी ढंग से समाधान करना होगा।
- इसका तात्पर्य यह है कि यदि कानून द्वारा प्रस्तावित परिवर्तन पूर्व के निर्णय के दौरान हुए थे तो उन्हें उठाए गए मुद्दे को इस तरह से संबोधित करना चाहिये था कि दोष को उजागर होने से रोका जा सके।
व्यभिचार को अपराध घोषित करने के पक्ष तथा विपक्ष में क्या तर्क हैं?
- वैवाहिक पवित्रता का संरक्षण: समर्थकों का तर्क है कि व्यभिचार को अपराध घोषित करने से विवाह संस्था की सुरक्षा होती है, जिससे समाज के भीतर इसकी पवित्रता तथा पारंपरिक मूल्य बने रहते हैं।
- निवारक प्रभाव: व्यभिचार को दंडनीय अपराध बनाना एक निवारक के रूप में कार्य कर सकता है, जो व्यक्तियों को विवाहेतर संबंधों में शामिल होने से हतोत्साहित कर सकता है, जिससे ऐसी घटनाओं में कमी आएगी।
- कानूनी सहारा: व्यभिचार को अपराध घोषित करना वैवाहिक विश्वसनीयता के उल्लंघन को संबोधित करने के लिये एक कानूनी अवसर प्रदान करता है जो विश्वास तोड़ने वाले कार्य के लिये पीड़ित पति अथवा पत्नी को सहारा प्रदान करता है।
- नैतिक आधार: कुछ लोगों का तर्क है कि व्यभिचार नैतिक रूप से अनुचित है और इसलिये सामाजिक मानदंडों तथा नैतिक मानकों को दर्शाते हुए कानून के तहत यह दंडनीय होना चाहिये।
- व्यभिचार को अपराध घोषित करने के विरुद्ध तर्क:
- स्वायत्तता और गोपनीयता: सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि व्यभिचार को अपराध घोषित करने से वैवाहिक संबंधों में व्यक्तिगत स्वायत्तता का उल्लंघन हो सकता है।
- व्यभिचार को अपराध घोषित करना संवैधानिक सिद्धांतों, विशेष रूप से अनुच्छेद 21 के उल्लंघन के रूप में देखा गया, जो पति-पत्नी दोनों की गरिमा और गोपनीयता के अधिकार की रक्षा करता है।
- यह सुझाव दिया गया कि ऐसे मामलों को दंडनीय अपराध के बजाय तलाक के आधार के रूप में संबोधित किया जाना चाहिये।
- दीवानी बनाम आपराधिक मामला: आलोचकों का तर्क है कि व्यभिचार मुख्य रूप से एक दीवानी मामला है, जो विवाह में विश्वास के उल्लंघन पर केंद्रित है।
- परिस्थितियों को देखते हुए इसे एक दंडनीय अपराध मानना उचित नहीं होगा, जिससे समस्या अनावश्यक रूप से बिगड़ सकती है।
- रिश्तों पर प्रभाव: व्यभिचार को दंडनीय अपराध मानने से तनावपूर्ण रिश्ते और भी खराब हो सकते हैं।
- कानूनी अड़चनें भावनात्मक संकट को बढ़ा सकती हैं और पति-पत्नी के बीच मेल-मिलाप की संभावनाओं को नुकसान पहुँचा सकती हैं।
- कानूनी जटिलता: व्यभिचार में अक्सर रिश्तों के अंदर व्यक्तिपरक और सूक्ष्म परिस्थितियाँ शामिल होती हैं।
- ऐसे मामलों पर कानून बनाने और मुकदमा चलाने का प्रयास कानूनी जटिलताओं को जन्म दे सकता है, जिससे न्यायिक प्रणाली पर व्यक्तिपरक मामलों का बोझ बढ़ सकता है।
- स्वायत्तता और गोपनीयता: सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि व्यभिचार को अपराध घोषित करने से वैवाहिक संबंधों में व्यक्तिगत स्वायत्तता का उल्लंघन हो सकता है।
निष्कर्ष:
व्यभिचार की जटिलताओं से निपटने के लिये एक सूक्ष्म दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। कानूनी सुधार, विधायी कार्रवाइयों और सामाजिक जागरूकता को संतुलित करना एक निष्पक्ष तथा सामंजस्यपूर्ण कदम के रूप में महत्त्वपूर्ण हो सकता है।