इंदौर शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 11 नवंबर से शुरू   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली अपडेट्स


शासन व्यवस्था

उच्च न्यायालय में तदर्थ न्यायाधीश

  • 30 Mar 2021
  • 7 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों (Pendency of Cases) से निपटने के लिये सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति पर ज़ोर दिया है।

short-staffed

प्रमुख बिंदु

  • सर्वोच्च न्यायालय के सुझाव:
    • एक तदर्थ न्यायाधीश की नियुक्ति के लिये दिशा-निर्देश: अदालत ने तदर्थ न्यायाधीश (Ad-hoc Judge) की नियुक्ति और उसकी कार्यपद्धति हेतु मौखिक दिशा-निर्देश दिये हैं।
    • न्याय में एक निश्चित सीमा से अधिक देरी: यदि किसी विशेष अधिकार क्षेत्र में न्याय प्रदान करने में एक निश्चित सीमा से आठ या 10 साल अधिक की देरी हो जाती है, तो मुख्य न्यायाधीश संबंधित क्षेत्र में विशेषज्ञता रखने वाले सेवानिवृत्त न्यायाधीश को एक जज के रूप में नियुक्त कर सकता है।
      • ऐसे न्यायाधीश का कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है।
    • स्थिति: तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति अन्य न्यायाधीशों की सेवाओं के लिये खतरा नहीं होगी क्योंकि इन्हें कनिष्ठ माना जाएगा।
    • चयन: सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को विवाद के एक विशेष क्षेत्र में उनकी विशेषज्ञता के आधार पर चुना जाएगा और कानून के उस क्षेत्र में लंबित मुद्दों को निपटाने के बाद उन्हें सेवानिवृत्त कर दिया जाएगा।
  • सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये तर्क:
    • यदि संबंधित क्षेत्र में 15 साल से अधिक अनुभव रखने वाले सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को इन क्षेत्रों से संबंधित विवादों को निपटाने के लिये तदर्थ न्यायाधीश के रूप में पुनः नियुक्त किया जाएगा तो ऐसे विवादों से जल्दी निपटा जा सकेगा।
  • संबंधित संवैधानिक प्रावधान:
    • संविधान के अनुच्छेद 224A (उच्च न्यायालयों की बैठकों में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति) के अंतर्गत सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है।
    • किसी राज्य के उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से किसी व्यक्ति, जो उस उच्च न्यायालय या किसी अन्य उच्च न्यायालय में न्यायाधीश का पद धारण कर चुका है, से उस राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करने का अनुरोध कर सकेगा।
  • न्याय में देरी का कारण:
    • सरकार सबसे बड़ी पक्षकार: आर्थिक सर्वेक्षण वर्ष 2018-19 के अनुसार, देरी से आए निर्णयों के परिणामस्वरूप जीडीपी के 4.7% के बराबर कर राजस्व की हानि हुई और यह हानि अभी भी बढ़ रही है।
    • कम बजटीय आवंटन: न्यायपालिका को आवंटित बजट सकल घरेलू उत्पाद का 0.08 और 0.09% के बीच है। केवल चार देशों (जापान, नॉर्वे, ऑस्ट्रेलिया और आइसलैंड) के पास कम बजट आवंटन है लेकिन उनके यहाँ भारत की तरह न्याय में देरी की समस्या नहीं है।
    • लंबे अवकाश की प्रथा: आमतौर पर निचली अदालतें में लंबे अवकाश की प्रथा है, जो मामलों के लंबित होने का एक प्रमुख कारण है।
    • मूल्यांकन का अभाव: जब एक नया कानून बनता है तो सरकार द्वारा न्यायपालिका पर कितना बोझ डाला जाना है, इसका कोई न्यायिक प्रभाव आकलन नहीं होता है।
      • अधिक न्यायाधीशों की आवश्यकता पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
    • न्यायिक नियुक्ति में देरी: उच्च न्यायालयों में रिक्त पदों को भरने के लिये कॉलेजियम (Collegium) द्वारा की गई सिफारिशें सरकार के पास सात महीने से एक वर्ष तक लंबित रही हैं।
      • सभी 25 उच्च न्यायालयों में स्वीकृत न्यायाधीशों की संख्या 1,080 है। हालाँकि मार्च 2021 तक इनमें से केवल 661 न्यायाधीश (419 रिक्तियाँ) ही कार्यरत हैं।
      • सरकार का मानना है कि इन खाली पदों पर नियुक्ति प्रक्रिया में देरी के लिये कॉलेजियम और उच्च न्यायालय ज़िम्मेदार हैं।

आगे की राह

  • नियुक्ति प्रणाली को सुव्यवस्थित करना: रिक्तियों को बिना किसी अनावश्यक विलंब किये भरा जाना चाहिये।
    • न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये एक उचित समय-सीमा निर्धारित करके इन नियुक्तियों के लिये अग्रिम सिफारिशें करनी चाहिये।
    • अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (All India Judicial Service) का गठन भारत को एक बेहतर न्यायिक प्रणाली स्थापित करने में निश्चित रूप से मदद कर सकता है।
  • प्रौद्योगिकियों का उपयोग: लोग अपने अधिकारों के बारे में अधिक-से-अधिक जागरूक हो रहे हैं और यही कारण है कि अदालत में दायर मामलों की संख्या बढ़ रही है।
    • इससे निपटने के लिये न्यायिक अधिकारियों को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है, न्यायाधीशों के रिक्त पदों को शीघ्रता से भरा जाना चाहिये और इसके अलावा प्रौद्योगिकी के उपयोग हेतु विशेष रूप से कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence) को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
  • अदालत से बाहर समझौता: हर मामले को अदालत परिसर के भीतर हल करना अनिवार्य नहीं है, अन्य संभावित प्रणालियों का भी उपयोग किया जाना चाहिये।
  • वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र को बढ़ावा देने की भी आवश्यकता है, जिसके लिये मध्यस्थता और सुलह अधिनियम (Arbitration and Conciliation) में तीन बार संशोधन किया गया है ताकि सुलह या मध्यस्थता द्वारा मुकदमेबाज़ी को कम किया जा सके।

स्रोत: द हिंदू

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2