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भारतीय राजनीति

न्याय: बस एक क्लिक भर दूर

  • 31 May 2022
  • 13 min read

यह एडिटोरियल 28/05/2022 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “Justice, A Click Away” लेख पर आधारित है। इसमें न्याय के वितरण के लिये डिजिटल विधियों को अपनाए जाने की आवश्यकता और इससे संबद्ध चुनौतियों के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

कोविड-19 प्रतिबंधों ने भारतीय न्यायालयों के डिजिटलीकरण (Digitization) को उल्लेखनीय प्रोत्साहन दिया। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के अग्रणी कदम के साथ न्यायपालिका ने अत्यावश्यक मामलों के लिये ई-फाइलिंग व्यवस्था को अपनाया और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से मामलों की लगातार सुनवाई की।

  • भारतीय न्यायपालिका के लिये डिजिटलीकरण लंबित मामलों की बड़ी संख्या को कम करने और दशक पुराने दस्तावेजों को संरक्षित करने का एक सुनहरा अवसर प्रस्तुत करता है।
  • इसलिये यह आवश्यक है कि डिजिटल तकनीक के उपयोग पर विचार किया जाए ताकि इसकी क्षमता का, विशेष रूप से कोर्ट रिकॉर्ड के डिजिटलीकरण, मामलों की ई-फाइलिंग एवं वर्चुअल सुनवाई और न्यायालय की कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग के संदर्भ में, बेहतर उपयोग किया जा सके।

न्यायपालिका में प्रौद्योगिकी का आगमन

यह कब शुरू हुआ?

  • भारत में न्याय प्रशासन के क्षेत्र में ई-गवर्नेंस का आरंभ 1990 के दशक के अंत में ही हो गया था, लेकिन ‘सूचना एवं प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000’ के अधिनियमन के बाद इसमें विशेष तेज़ी आई।
  • 21वीं सदी के आरंभ के साथ कोर्ट रिकॉर्ड के डिजिटलीकरण और देश भर में ई-कोर्ट स्थापित करने पर ध्यान केंद्रित किया गया।
    • वर्ष 2006 राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना (National e-Governance Plan- NeGP) के एक भाग के रूप में ई-कोर्ट (e-courts) लॉन्च किये गए।

न्यायालयों के डिजिटलीकरण के लिये कौन-से कदम उठाए गए हैं?

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय इस संबंध में एक मार्गदर्शक उदाहरण है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ने एक वर्ष में लगभग एक करोड़ केस फाइलों के डिजिटलीकरण के लिये एक परियोजना की संकल्पना और पहल की।
  • कृष्णा वेणी नागम बनाम हरीश नागम (वर्ष 2017) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से वैवाहिक मामलों की सुनवाई को मंज़ूरी प्रदान कर दी। हालाँकि यह निर्देश अल्पकालिक ही रहा।
  • वर्ष 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘स्वप्निल त्रिपाठी बनाम भारत के सर्वोच्च न्यायालय (वर्ष 2018)’ मामले के निर्णय के आधार पर संवैधानिक और राष्ट्रीय महत्त्व के मामलों की लाइव-स्ट्रीमिंग की अनुमति प्रदान कर दी।
    • न्यायालय की कार्यवाही का लाइव-स्ट्रीमिंग या सीधा प्रसारण पारदर्शिता और खुलापन सुनिश्चित करने की दिशा में एक कदम है।
    • जुलाई, 2021 में गुजरात उच्च न्यायालय अपनी कार्यवाही का सीधा प्रसारण करने वाला देश का पहला न्यायालय बना।
      • आगे कर्नाटक, ओडिशा, मध्य प्रदेश और पटना उच्च न्यायालय द्वारा इसका अनुकरण किया गया।
  • ई-कोर्ट परियोजना के तृतीय चरण के लिये दृष्टिकोण-पत्र (Vision Document for Phase III of the e-Courts Project) कोविड-19 महामारी के दौरान न्यायपालिका के डिजिटल अभाव को दूर करने के लिये पेश किया गया।
    • यह न्यायिक प्रणाली के लिये एक ऐसी अवसंरचना की परिकल्पना करता है जो ‘मूल रूप से डिजिटल’ हो और भारत की न्यायिक समयरेखा और सोच पर महामारी के प्रभाव को परिलक्षित करता हो।
  • हाल ही में विधि मंत्री ने कहा कि ई-कोर्ट परियोजना के दूसरे चरण को लागू करने के लिये मशीन लर्निंग (ML) और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) की नई, अत्याधुनिक तकनीकों को अपनाने की आवश्यकता है ताकि न्याय वितरण प्रणाली की दक्षता को बढ़ाया जा सके।
    • न्यायिक क्षेत्र में AI के उपयोग का पता लगाने के लिये भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस समिति’ का गठन किया है।

न्यायपालिका के डिजिटलीकरण की आवश्यकता क्यों है?

  • भौतिक अभिलेखों को बनाए रखने में कठिनाई: बड़ी संख्या में फाइलों को संग्रहीत करने के लिये न केवल एक बड़े स्थान की आवश्यकता होती है, बल्कि दशकों पुराने दस्तावेजों को मैन्युअल तरीके से संरक्षित करना भी पर्याप्त कठिन होता है।
    • देखा गया है कि मामलों को केवल इसलिये स्थगित कर दिया जाता है क्योंकि वर्षों पहले दायर किये गए हलफनामों को रिकॉर्ड के साथ पुनर्बहाल नहीं किया गया था या उनका पता नहीं लग पाया।
  • दोषियों का बरी होना: इसका एक अन्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि ये फाइल इलेक्ट्रॉनिक रूप से और जब भी आवश्यक हो, उपलब्ध कराए जा सकें। कोर्ट रिकॉर्ड के लापता या अनुपलब्ध होने के गंभीर परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं।
    • कई पुराने मामलों में आपराधिक रिकॉर्ड गायब पाए जाते हैं, जिससे फिर आरोपित बरी हो जाते हैं।
    • ‘उत्तर प्रदेश राज्य बनाम अभय राज सिंह’ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना था कि यदि कोर्ट रिकॉर्ड लापता हो जाते हैं और उनका पुनर्निर्माण संभव नहीं हो तो न्यायालय दोषसिद्धि को रद्द करने के लिये बाध्य हैं।
  • मामलों में देरी: निचली अदालतों से अपीलीय अदालतों में रिकॉर्ड मँगाने में लगने वाला समय मामलों में देरी के प्रमुख कारकों में से एक है।

न्यायपालिका के डिजिटलीकरण में किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?

  • कनेक्टिविटी की समस्या: इंटरनेट कनेक्टिविटी और एक पर्याप्त सुविधा-संपन्न स्थान की आवश्यकता (जहाँ अधिवक्ता अपने मामलों को आगे बढ़ा सकें), कुछ प्रमुख समस्याएँ हैं जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
    • अर्द्ध-शहरी और ग्रामीण ज़िलों में वकीलों को ऑनलाइन सुनवाई की व्यवस्था चुनौतीपूर्ण लगती है, क्योंकि एक तो कनेक्टिविटी संबंधी समस्याएँ पाई जाती हैं, दूसरा वे इस कार्य व्यवस्था से अभी सहज नहीं हैं।
  • डिजिटल साक्षरता: कई न्यायाधीश, न्यायालय के कर्मचारी और वकील डिजिटल प्रौद्योगिकी और इसके लाभों से अच्छी तरह वाकिफ नहीं हैं।
  • गोपनीयता संबंधी चिंताएँ: बढ़ते डिजिटलीकरण (विशेष रूप से कोर्ट रिकॉर्ड के डिजिटलीकरण) के साथ आने वाले वर्षों में न्यायिक और सार्वजनिक विचार-विमर्श में गोपनीयता संबंधी चिंताएँ एक प्रमुख विषय बन सकती हैं।
  • हैकिंग और साइबर सुरक्षा: प्रौद्योगिकी के चरम पर साइबर सुरक्षा भी एक बड़ी चिंता होगी। सरकार ने इस समस्या के समाधान के लिये उपचारात्मक कदम उठाए हैं और साइबर सुरक्षा रणनीति (Cyber Security Strategy) तैयार की है।
    • हालाँकि इसका व्यावहारिक और वास्तविक कार्यान्वयन एक चुनौती बना हुआ है।

अन्य चुनौतियाँ:

  • पिछले एक दशक में न्यायालयों का डिजिटलीकरण एकल रूप से अलग-अलग वादियों पर केंद्रित रहा है जहाँ न्यायालय की वेबसाइटों को मामला विशेष तक पहुँच की अनुमति देने के लिये डिज़ाइन किया गया है। न्यायपालिका के प्रणाली-स्तरीय परीक्षण के लिये कोई तंत्र उपलब्ध नहीं है।
  • पर्याप्त योजना और सुरक्षा उपायों के साथ तैनात प्रौद्योगिकीय साधन ‘गेम चेंजर’ साबित हो सकते हैं। हालाँकि प्रौद्योगिकी स्वतः मूल्य-तटस्थ नहीं होती, अर्थात् यह पूर्वाग्रहों से प्रतिरक्षित नहीं है। शक्ति असंतुलन पर नियंत्रण होना चाहिये।

न्यायपालिका के डिजिटलीकरण को बढ़ावा देने के लिये कौन-से कदम उठाए जा सकते हैं?

  • न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं की भूमिका: डिजिटलीकरण प्रक्रिया को सफल बनाने के लिये राजनीतिक इच्छाशक्ति और न्यायाधीशों एवं अधिवक्ताओं का समर्थन आवश्यक है।
    • समय की मांग है कि उन्हें संबंधित प्रौद्योगिकियों से अवगत कराया जाए और पर्याप्त प्रशिक्षण प्रदान किया जाए।
    • ई-कोर्ट ढाँचे और कार्यवाहियों से न्यायाधीशों को अवगत कराने हेतु प्रशिक्षण सत्रों का आयोजन किये जाने से ई-कोर्ट के सफल संचालन को बड़ा प्रोत्साहन मिल सकता है।
  • कुछ मामलों में ही वर्चुअल सुनवाई: यह समझना भी आवश्यक है कि वर्चुअल सुनवाई सभी मामलों के लिये समान रूप से भौतिक अदालती सुनवाई का विकल्प नहीं हो सकती।
    • हालाँकि, न्यायालय प्रशासन द्वारा चिह्नित किये गए मामलों की कुछ श्रेणियों में वर्चुअल सुनवाई को अनिवार्य बनाया जा सकता है।
  • प्रौद्योगिकी उपयोग का विनियमन: प्रौद्योगिकी के विकास और विस्तार के साथ डेटा संरक्षण, गोपनीयता, मानवाधिकार और नैतिकता के बारे में उत्पन्न चिंताएँ नई चुनौतियाँ पेश करेंगी और इसलिये इन प्रौद्योगिकियों के डेवलपर्स द्वारा वृहत स्व-नियमन की आवश्यकता होगी।
    • इसके लिये विधायिका द्वारा विधि, नियमों, विनियमों के माध्यम से और न्यायपालिका द्वारा न्यायिक समीक्षा एवं संवैधानिक मानकों के परीक्षण माध्यम से बाह्य विनियमन की भी आवश्यकता होगी।
  • प्रशिक्षण: सरकार को समस्त ई-डेटा के रखरखाव के लिये कर्मियों के प्रशिक्षण पर समर्पित प्रयास करने की भी आवश्यकता है।
    • इनमें ई-फाइल विवरण प्रविष्टियों, अधिसूचना, सेवा, समन, वारंट, जमानत आदेश, आदेश की प्रतियाँ, ई-फाइलिंग आदि के उचित रिकॉर्ड बनाए रखना शामिल है।
    • संगोष्ठियों के माध्यम से न्यायपालिका में ई-कोर्ट और प्रौद्योगिकियों के बारे में जागरूकता पैदा करने से सुविधाओं को प्रकाश में लाने में मदद मिल सकती है और इस तरह की पहल से व्यवस्था सरल बन सकती है।

अभ्यास प्रश्न: न्यायपालिका के डिजिटलीकरण के संदर्भ में भारत के समक्ष विद्यमान प्रमुख चुनौतियों की चर्चा कीजिये और उन उपायों के सुझाव दीजिये जो इन चुनौतियों से पार पाने के लिये किये जा सकते हैं।

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