सामाजिक न्याय
राज्यों की आरक्षण कोटा सीमा
- 25 Mar 2021
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चर्चा में क्यों?
तमिलनाडु ने सर्वोच्च न्यायालय की एक संवैधानिक पीठ को बताया कि आरक्षण का प्रतिशत अलग-अलग राज्यों की "व्यक्तिपरक या विषयगत संतुष्टि" पर छोड़ देना चाहिये।
- विषयगत संतुष्टि राज्य के विवेक को संदर्भित करती है कि वह सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को चिह्नित करे और राज्य सरकार की नौकरियों और शैक्षणिक प्रवेशों में उनके लिये आरक्षण का प्रतिशत तय करे।
- इंद्रा साहनी केस (जिसे मंडल कमीशन केस के नाम भी जाना जाता है) में नौ न्यायाधीशों की पीठ द्वारा कुल आरक्षण में 50% सीमा का प्रस्ताव रखा गया।
प्रमुख बिंदु :
इंद्रा साहनी एवं अन्य बनाम भारत संघ, 1992:
- सर्वोच्च न्यायालय ने पिछड़े वर्गों के लिये 27% आरक्षण बरकरार रखते हुए उच्च जातियों के बीच आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों हेतु 10% सरकारी नौकरियों के लिये सरकारी अधिसूचना को लागू किया।
- इसी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इस सिद्धांत को भी बरक़रार रखा कि संयुक्त आरक्षण लाभार्थियों को भारत की जनसंख्या के 50% से अधिक नहीं होना चाहिये।
- इस निर्णय में ‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा को भी महत्त्व दिया गया और प्रावधान किया गया कि पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण केवल प्रारंभिक नियुक्तियों तक सीमित होना चाहिये और पदोन्नति में आरक्षण नहीं होना चाहिये।
राज्यों द्वारा सीमा का उल्लंघन:
- हालाँकि शीर्ष अदालत ने इसे असंवैधानिक करार दिया था।
- इंदिरा साहनी केस 1992 पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बावजूद कई राज्यों जैसे- महाराष्ट्र, तेलंगाना, तमिलनाडु, हरियाणा, छत्तीसगढ़ राजस्थान एवं मध्य प्रदेश ने 50% आरक्षण की सीमा का उल्लंघन करते हुए कानून पारित किये हैं।
- तमिलनाडु आरक्षण अधिनियम, 1993 के अंतर्गत राज्य सरकार की नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 69% आरक्षण का प्रावधान है।
- जनवरी 2000 में आंध्र प्रदेश (तेलंगाना सहित) के राज्यपाल ने अनुसूचित क्षेत्रों में स्कूली शिक्षकों के पदों पर अनुसूचित जनजाति (ST) के उम्मीदवारों के लिये 100% आरक्षण की घोषणा की।
- सामाजिक और शैक्षिक रूप पिछड़े वर्गों के लिये महाराष्ट्र राज्य आरक्षण (SEBC) अधिनियम, 2018 मराठा समुदाय के लिये 12-13% आरक्षण का प्रावधान करता है। इस अधिनियम के कारण 50% आरक्षण की सीमा का उल्लंघन हुआ।
राज्यों की चिंता :
- तमिलनाडु और कर्नाटक राज्य महाराष्ट्र की इस बात से सहमत थे कि इंदिरा साहनी मामले में दिये गए निर्णय द्वारा निर्धारित 50% आरक्षण की सीमा पत्थर की लकीर (स्थायी रूप से या दृढ़ता से स्थापित) नहीं थी अर्थात् ऐसा नहीं था कि इसमें परिवर्तन न किया जा सके।
- वर्ष 1992 के इंदिरा साहनी फैसले की फिर से समीक्षा करने की आवश्यकता थी क्योंकि 1992 में इस फैसले के बाद से ज़मीनी हालात बहुत बदल गए थे।
- इसके अलावा 102वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2018 जो राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा प्रदान करता है, के बारे में विवाद है कि यह सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े समुदायों (SEBCs) को लाभ प्रदान करने के लिये राज्य विधायिकाओं के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करता है।
- हालाँकि एक शपथ पत्र में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने कहा है कि SEBCs की पहचान करने की शक्ति केवल केंद्रीय सूची के संदर्भ में संसद के पास है और राज्यों के पास आरक्षण के लिये SEBCs की एक अलग सूची हो सकती है।
संविधान एवं आरक्षण
- 77वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1995: इंद्रा साहनी मामले में निर्णय दिया गया कि केवल प्रारंभिक नियुक्तियों में आरक्षण लागू होगा, पदोन्नति में नहीं।
- हालाँकि संविधान के अनुच्छेद 16 (4A) के अनुसार, राज्य को अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति वर्ग के कर्मचारियों की पदोन्नति के मामलों में उस स्थिति में आरक्षण के लिये प्रावधान करने का अधिकार है, यदि राज्य को लगता है कि राज्य के अधीन सेवाओं में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
- 81वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2000: इसने अनुच्छेद 16 (4B) पेश किया जिसके अनुसार, किसी विशेष वर्ष में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के रिक्त पदों को अनुवर्ती वर्ष में भरने के लिये पृथक रखा जाएगा और उसे उस वर्ष की नियमित रिक्तियों में शामिल नहीं किया जाएगा।
- 85वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2001: यह अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के सरकारी कर्मचारियों हेतु पदोन्नति में आरक्षण के लिये ‘परिणामिक वरिष्ठता’ का प्रावधान करता है, इसे वर्ष 1995 से पूर्व प्रभाव के साथ लागू किया गया था।
- 103वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2019: यह अधिनियम आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों (Economically Weaker Section- EWS) के लिये 10% आरक्षण का प्रावधान करता है |
- अनुच्छेद 335: संघ या किसी राज्य के कार्यकलाप से संबंधित सेवाओं और पदों के लिये नियुक्तियाँ करने में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के दावों का प्रशासन की दक्षता बनाए रखने के उद्देश्य से ध्यान रखा जाएगा|
आगे की राह
- वर्ष 1992 के निर्णय की समीक्षा: सर्वोच्च न्यायालय को निश्चित रूप से विभिन्न निर्णयों के कारण उत्पन्न मुद्दों को हल करने के लिये 50% आरक्षण कोटे की सीमा पर विचार करना चाहिये ।
- संघीय संरचना को बनाए रखना: आरक्षण तय करते समय यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि क्या विभिन्न समुदायों के लिये आरक्षण का प्रावधान करने वाली राज्य सरकारें संघीय ढाँचे का पालन कर रही हैं या इसे नष्ट कर रही हैं।
- आरक्षण एवं योग्यता के बीच संतुलन: विभिन्न समुदायों को आरक्षण देते समय प्रशासन की दक्षता को भी ध्यान में रखना होगा।
- सीमा से अधिक आरक्षण के कारण योग्यता की अनदेखी होगी जिससे संपूर्ण प्रशासन की दक्षता प्रभावित होगी।