हिजाब और धर्म की स्वतंत्रता | 05 Feb 2022
प्रिलिम्स के लिये:सर्वोच्च न्यायालय, हिजाब, मौलिक अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता से संबंधित मामले। मेन्स के लिये:मौलिक अधिकार, न्यायपालिका, सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप, महिलाओं के मुद्दे, धर्म की स्वतंत्रता से संबंधित मामले। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में कर्नाटक के उडुपी ज़िले के एक कॉलेज में हिजाब (कुछ मुस्लिम महिलाओं द्वारा सार्वजनिक रूप से पहना जाने वाला वस्त्र) पहनकर आने वाली छह छात्रों को कॉलेज में प्रवेश करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।
- यह मुद्दा धर्म की स्वतंत्रता पर कानूनी सवाल उठाता है कि क्या हिजाब पहनने का अधिकार संवैधानिक रूप से संरक्षित है।
संविधान के तहत धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा:
- संविधान का अनुच्छेद 25 (1) ‘अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता के अधिकार’ की गारंटी देता है।
- यह अधिकार स्वतंत्रता की नकारात्मक अवधारणा की गारंटी देता है- जिसका अर्थ है कि राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि इस स्वतंत्रता का प्रयोग करने में कोई हस्तक्षेप या बाधा उत्पन्न न हो।
- हालाँकि सभी मौलिक अधिकारों की तरह राज्य सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, स्वास्थ्य और अन्य राज्य के हितों के आधार पर अधिकार को प्रतिबंधित कर सकता है।
- इसके निहितार्थ हैं:
- अंतःकरण की स्वतंत्रता: अंतःकरण की और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता।
- धर्म को मानने का अधिकार: अपने धार्मिक विश्वास और आस्था की सार्वजनिक और बिना भय के घोषणा करने का अधिकार।
- आचरण का अधिकार: धार्मिक पूजा, अनुष्ठान, समारोह और विश्वासों तथा विचारों का प्रदर्शन करने का अधिकार।
- प्रचार करने का अधिकार: किसी के धार्मिक विश्वासों को दूसरों तक पहुँचाना या प्रसारित करना या किसी के धर्म के सिद्धांतों की व्याख्या करना।
आवश्यक धार्मिक आचरण का परीक्षण:
- वर्षों से सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्धारित करने के लिये एक व्यावहारिक परीक्षण प्रक्रिया विकसित की है कि कौन सी धार्मिक प्रथाओं को संवैधानिक रूप से संरक्षित किया जा सकता है और क्या अनदेखा किया जा सकता है।
- वर्ष 1954 में सर्वोच्च न्यायालय ने शिरूर मठ मामले में कहा कि ‘धर्म’ शब्द एक धर्म के तहत ‘अभिन्न’ सभी अनुष्ठानों और प्रथाओं को कवर करेगा। ‘अभिन्न’ क्या है, यह निर्धारित करने हेतु किये जाने वाले परीक्षण को ‘आवश्यक धार्मिक प्रथा’ परीक्षण कहा जाता है।
- प्रायः कानूनी विशेषज्ञों द्वारा धार्मिक प्रथाओं के न्यायिक निर्धारण के संबंध में इस परीक्षण की आलोचना की जाती है, क्योंकि यह न्यायालय को धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप हेतु प्रेरित करता है।
- विशेषज्ञों का मत है कि न्यायालय का कार्य सार्वजनिक व्यवस्था हेतु धार्मिक प्रथाओं को प्रतिबंधित करने तक सीमित होना चाहिये और न्यायालय को किसी धर्म विशेष के लिये आवश्यक प्रथाओं का निर्धारण नहीं करना चाहिये।
- कई मामलों में न्यायालय ने कुछ प्रथाओं के लिये इस परीक्षण को लागू किया है।
- वर्ष 2004 के एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि ‘आनंद मार्ग संप्रदाय’ को सार्वजनिक सड़कों पर ‘तांडव नृत्य’ करने का कोई मौलिक अधिकार नहीं था, क्योंकि यह संप्रदाय की एक आवश्यक धार्मिक प्रथा नहीं है।
- यद्यपि इन मुद्दों को बड़े पैमाने पर समुदाय-आधारित माना जाता है, ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें न्यायालय ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर भी इस परीक्षण को लागू किया है।
- उदाहरण के लिये वर्ष 2016 में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय वायु सेना के एक मुस्लिम एयरमैन को दाढ़ी रखने पर सेवामुक्त करने के निर्णय को सही ठहराया था।
- सशस्त्र बल विनियम, 1964 सशस्त्र बलों के कर्मियों के लिये बाल बढ़ाने को प्रतिबंधित करता है, केवल ‘उन कर्मियों को छोड़कर जिनका धर्म बाल काटने या शेव करने पर रोक लगाता है।’
- न्यायालय ने अनिवार्य रूप से माना था कि दाढ़ी रखना इस्लामी प्रथाओं का एक अनिवार्य हिस्सा नहीं है।
हिजाब के मुद्दे पर न्यायालयों के अब तक के निर्णय:
- हालाँकि कई अवसरों पर इस मुद्दे को न्यायालयों के समक्ष प्रस्तुत किया गया, किंतु केरल उच्च न्यायालय के दो फैसले, विशेष रूप से मुस्लिम महिलाओं के लिये इस्लाम के सिद्धांतों के अनुसार कपड़े पहनने के अधिकार पर परस्पर विरोधी हैं।
- वर्ष 2015 में केरल उच्च न्यायालय के समक्ष ऐसी दो याचिकाएँ दायर की गई थीं, जिनमें अखिल भारतीय प्री-मेडिकल प्रवेश के लिये ड्रेस कोड को चुनौती दी गई थी, जिसमें सलवार/पायजामा" के साथ चप्पल पहनने की अनुमति थी एवं आधी आस्तीन वाले हल्के कपड़े, जिनमें बड़े बटन, ब्रोच / बैज, फूल आदि न हों", ही पहनने का प्रावधान था।
- केंद्रीय स्कूल शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) के तर्क को स्वीकार करते हुए कि नियम केवल यह सुनिश्चित करने के लिये था कि उम्मीदवार कपड़ों के भीतर वस्तुओं को छुपाकर अनुचित तरीकों का इस्तेमाल नहीं करेंगे, केरल उच्च न्यायालय ने सीबीएसई को उन छात्रों की जाँच हेतु अतिरिक्त उपाय करने का निर्देश दिया जो अपने धार्मिक रिवाज़ के अनुसार पोशाक पहनने का इरादा रखते हैं, लेकिन जो ड्रेस कोड के विपरीत है।
- आमना बिंट बशीर बनाम केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (2016) मामले में केरल उच्च न्यायालय ने इस मुद्दे की अधिक बारीकी से जाँच की।
- इस मामले में न्यायालय ने माना कि हिजाब पहनने की प्रथा एक आवश्यक धार्मिक प्रथा है, लेकिन सीबीएसई नियम को रद्द नहीं किया गया।
- न्यायालय ने एक बार फिर 2015 में "अतिरिक्त उपायों" और सुरक्षा उपायों की अनुमति दी।
- हालाँकि स्कूल द्वारा निर्धारित ड्रेस के मुद्दे पर एक और बेंच ने फातिमा तसनीम बनाम केरल राज्य (2018) मामले में अलग तरीके से फैसला सुनाया।
- केरल उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने कहा कि किसी संस्था के सामूहिक अधिकारों को याचिकाकर्ता के व्यक्तिगत अधिकारों पर प्राथमिकता दी जाएगी।