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भारतीय अर्थव्यवस्था

डेयरी क्षेत्र और मुक्त व्यापार का विरोध

  • 31 Dec 2021
  • 10 min read

प्रिलिम्स के लिये:

क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP), श्वेत क्रांति

मेन्स के लिये:

भारत का डेयरी क्षेत्र RCEP का विरोध, महत्त्व, चुनौतियाँ, डेयरी क्षेत्र से संबंधित समाधान।

चर्चा में क्यों?

कुछ विशेषज्ञों के अनुसार, क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी ( Regional Comprehensive Economic Partnership-RCEP) से भारत का हटना किसान संगठनों, ट्रेड यूनियनों, छोटे और मध्यम औद्योगिक उत्पादकों के संघों के लिये एक बड़ी जीत है।

  • इसी तरह का विचार भारतीय डेयरी क्षेत्र द्वारा भी व्यक्त किया जाता है, जिन्होंने डेयरी उत्पादों में मुक्त व्यापार का विरोध किया था।

RCEP विश्व के सबसे बड़े व्यापारिक ब्लॉकों में से एक है, जिस पर 15 देशों (चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और आसियान के 10 देशों का समूह) के बीच हस्ताक्षर किये गए हैं। वर्ष 2020 में भारत RCEP वार्ता से हट गया है।

प्रमुख बिंदु

  • भारत के डेयरी क्षेत्र द्वारा RCEP का विरोध:

    • ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे वैश्विक दुग्ध उत्पादक देश RCEP समझौते में शामिल हैं।
    • पिछले 25 वर्षों में, भारतीय नीति ने जानबूझकर निजी दूध कंपनियों के विकास को प्रोत्साहित किया है। फिलहाल ये कंपनियांँ भारतीय किसानों से दूध खरीदने को बाध्य हैं।
      • कारण यह है कि भारत में विदेशी डेयरी उत्पादों पर लागू टैरिफ लगभग 35% है।
      • यदि भारत ने RCEP पर हस्ताक्षर किये होते तो बाध्य शुल्क शून्य हो जाता।
    • तब भारतीय किसानों से दूध खरीदने के बजाय न्यूजीलैंड या ऑस्ट्रेलिया से दूध आयात करना कहीं अधिक लाभदायक होता। इसलिये भारत समझौते के विरोध में था।
    • इसके अलावा निकट भविष्य में ऐसा कोई नहीं है जो भारत दूध से वंचित होगा। नीति आयोग के अनुसार, भारत के वर्ष 2033 तक दुग्ध-अधिशेष देश होने की संभावना है।

नोट:

  • विश्व व्यापार संगठन (WTO) एक देश को एक निश्चित सीमा तक अधिकतम टैरिफ या किसी दिये गए कमोडिटी लाइन के लिये बाध्य टैरिफ तय करने की अनुमति देता है ।
    • दूसरी ओर RCEP देशों को अगले 15 वर्षों के भीतर उस स्तर को शून्य करने के लिए बाध्य करता है।
    • किसी उत्पाद श्रेणी में अधिकतम टैरिफ को बाध्य टैरिफ दर कहा जाता है।
    • हालांँकि टैरिफ दरें सभी उत्पादों और देशों में भिन्न हैं। वास्तविक टैरिफ दर को लागू टैरिफ दर कहा जाता है।

श्वेत क्रांति (1970):

  • भारत में श्वेत क्रांति की अवधारणा ‘डॉ. वर्गीज़ कुरियन’ द्वारा प्रस्तुत की गई थी।
  • उनके अधीन गुजरात सहकारी दुग्ध विपणन संघ लिमिटेड और राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB) जैसे कई महत्त्वपूर्ण संस्थान स्थापित किये गए थे।
  • ग्राम दुग्ध उत्पादकों की सहकारी समितियों को इस क्रांति की आधारशिला माना जाता हैं। ‘ऑपरेशन फ्लड’ के दौरान उनकी प्रमुख भूमिका को विकास के इंजन के रूप में देखा जाता है।
  • नीति ने संयुक्त उद्यमों: विलय और अधिग्रहण के माध्यम से भारतीय डेयरी क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय डेयरी निगमों के प्रवेश का भी समर्थन किया है।


भारतीय डेयरी क्षेत्र

  • डेयरी क्षेत्र का महत्त्व:

    • श्रम गहन क्षेत्र: खेत पर निर्भर आबादी में वैसे किसान और खेतिहर मज़दूर भी शामिल हैं जो डेयरी एवं पशुधन पर निर्भर हैं। इनकी संख्या लगभग 70 मिलियन है।
      • इसके अलावा मवेशी और भैंस पालन में कुल कार्यबल 7.7 मिलियन में 69 प्रतिशत महिला श्रमिक हैं।
    • अर्थव्यवस्था में योगदान: कृषि से सकल मूल्य वर्द्धित (GVA) में पशुधन क्षेत्र का योगदान 2019-20 में 28 प्रतिशत था।
      • दुग्ध उत्पादन में प्रति वर्ष 6 प्रतिशत की वृद्धि दर से किसानों को सूखे और बाढ़ के दौरान एक बड़ा आर्थिक सहारा प्राप्त होता है।
    • आपदा के समय किसानों की मदद करना: प्राकृतिक आपदाओं के कारण फसल खराब होने पर दूध का उत्पादन बढ़ जाता है क्योंकि किसान तब पशुपालन पर अधिक निर्भर होते हैं।
    • संबद्ध मुद्दे

      • अदृश्य श्रम: किसान प्रायः पाॅंच में से दो दुधारू पशु आजीविका के लिये रखते हैं। ऐसे में परिवार के उपयोग हेतु दुग्ध उत्पादन के लिये आवश्यक श्रम परिवार की अवैतनिक या औपचारिक रूप से बेरोज़गार महिलाओं के हिस्से आता है।
        • उनमें से भूमिहीन और सीमांत किसानों के पास दूध के लिये खरीदारों की कमी होने पर आजीविका का कोई विकल्प नहीं है।
      • डेयरी क्षेत्र की असंगठित प्रकृति: गन्ना, गेहूँ और चावल उत्पादक किसानों के विपरीत पशुपालक असंगठित हैं और उनके पास अपने अधिकारों की वकालत करने के लिये राजनीतिक ताकत नहीं है।
      • अलाभकारी मूल्य निर्धारण: हालाॅंकि उत्पादित दूध का मूल्य भारत में गेहूँ और चावल के उत्पादन के संयुक्त मूल्य से अधिक है लेकिन उत्पादन की लागत और दूध के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य का कोई आधिकारिक प्रावधान नहीं है।
      • अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव: भले ही डेयरी सहकारी समितियाँ देश में दूध के कुल विपणन योग्य अधिशेष का लगभग 40% संभालती हैं, लेकिन वे भूमिहीन या छोटे किसानों का पसंदीदा विकल्प नहीं हैं।
        • ऐसा इसलिये है क्योंकि डेयरी सहकारी समितियों द्वारा खरीदा गया 75% से अधिक दूध अपनी कम मूल्य सीमा पर है।

डेयरी क्षेत्र से संबंधित सरकारी पहल:

आगे की राह

  • उत्पादकता में वृद्धि: पशुओं की उत्पादकता बढ़ाने की भी आवश्यकता है ताकि बेहतर स्वास्थ्य देखभाल और प्रजनन सुविधाएँ और डेयरी पशुओं का प्रबंधन सुनिश्चित किया जा सके तथा इससे दूध उत्पादन की लागत कम हो सकती है।
    • साथ ही पशु चिकित्सा सेवाओं, कृत्रिम गर्भाधान (एआई), चारा और किसान शिक्षा की उपलब्धता सुनिश्चित करके दूध उत्पादन और उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है।
    • सरकार और डेयरी उद्योग इस दिशा में अहम भूमिका निभा सकते हैं।
  • उत्पादन, प्रसंस्करण और विपणन बुनियादी ढाँचे में वृद्धि: भारत के लिये एक डेयरी निर्यातक देश के रूप में उभरने के लिये:
    • उचित उत्पादन, प्रसंस्करण और विपणन बुनियादी ढाँचे को विकसित करना अनिवार्य है जो अंतर्राष्ट्रीय गुणवत्ता आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम हो।
    • इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे और बिजली की कमी को दूर करने के लिये सौर ऊर्जा संचालित डेयरी प्रसंस्करण इकाइयों में निवेश करने की आवश्यकता है।
    • साथ ही डेयरी सहकारी समितियों को मज़बूत करने की ज़रूरत है। इस प्रयास में सरकार को किसान उत्पादक संगठनों को बढ़ावा देना चाहिये।

https://www.youtube.com/watch?v=ShKBAHNW8kM

स्रोत: द हिंदू

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