लैंगिक अल्पसंख्यकों का हाशियाकरण
यह एडिटोरियल दिनांक 28/06/2021 को द हिंदू में प्रकाशित लेख "On the margins with full equality still out of reach" पर आधारित है। यह लेख LGBTQ+ समुदाय के साथ जुड़े मुद्दों से संबंधित है।
वर्ष 1970 के दशक के दौरान समलैंगिकता को एक मानसिक विकार के रूप में माना जाता था लेकिन 1970 के दशक के बाद डॉ. फ्रैंक कामेनी जैसे कई सामाजिक कार्यकर्त्ताओं के प्रयासों से वैश्विक LGBTQ+ समुदाय अपने अधिकारों और समान स्थिति के लिये आगे बढ़ा।
हालाँकि भारत में समलैंगिक समुदाय अभी भी एक कलंकित और अदृश्य अल्पसंख्यक है। इसके अलावा जो कुछ भी लाभ समलैंगिक समुदाय को प्राप्त हुआ है वह न्यायपालिका द्वारा प्रदान किया गया है; विधायिकाओं द्वारा नहीं।
अभी तक हुए न्यायिक निर्णयों के बावजूद भारत के लैंगिक अल्पसंख्यकों को रोज़गार, स्वास्थ्य के मुद्दों और व्यक्तिगत अधिकारों के संबंध में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। यह इसे देश के उदार और समावेशी संविधान के साथ असंगत बनाता है।
LGBTQ+ के कल्याण में न्यायपालिका की भूमिका
- समाज की पारंपरिक अवधारणा की मांग और व्यक्तियों के अधिकारों तथा उनकी पहचान एवं सम्मान के बीच रस्साकशी के बीच उच्च न्यायपालिका ने नागरिक कल्याण को महत्त्व प्रदान किया है। इसे निम्नलिखित उदाहरणों में दर्शाया जा सकता है:
- नाज़ फाउंडेशन बनाम एनसीटी ऑफ दिल्ली केस 2009: दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय में कहा गया है कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समानता के अधिकार को ठेस पहुँचाती है क्योंकि यह एक अनुचित वर्गीकरण करता है और एक वर्ग के रूप में समलैंगिकों को लक्षित करता है।
- राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ केस 2014: इस मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को 'थर्ड जेंडर' घोषित किया।
- नवतेज सिंह जौहर व अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस 2018: इस मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में माना कि वयस्कों के बीच सहमति से समलैंगिक व्यवहार को अपराध मानना (आईपीसी की धारा 377 के तहत), "असंवैधानिक, तर्कहीन, अनिश्चित और स्पष्ट रूप से मनमाना" था।
- इस निर्णय ने भारत में LGBTQ+ समुदाय को न्याय प्राप्त करने और समलैंगिक मुक्ति आंदोलन के लिये एक आधार प्रदान किया है।
LGBTQ+ के खिलाफ भेदभाव
- पूर्ण समानता अभी भी दूर है: उच्च न्यायपालिका के विभिन्न निर्णयों के बावजूद भारत में समलैंगिक समुदाय अभी भी रोज़गार, स्वास्थ्य और व्यक्तिगत संबंधों के मामलों में भेदभाव का सामना करता है।
- कानूनी मंज़ूरी का विरोध: भारत संघ द्वारा हाल ही में भारत में समलैंगिक विवाहों को कानूनी मंज़ूरी देने के कदम का विरोध किया गया है।
- सरकार ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को असंवैधानिक घोषित करना स्वत: ही समलैंगिक जोड़ों के विवाह को मौलिक अधिकार नहीं बनाता है।
- विषम लैंगिकता: विषम लैंगिकता हेटेरोसेक्सिस्म (hetero-sexism) और होमोफोबिया (homophobia) का मूल कारण है।
- विषम लैंगिकता को लेकर यह विश्वास जताया जाता है कि यह यौन अभिविन्यास का दोषपूर्ण, पसंदीदा या सामान्य तरीका है।
- यह लिंग बाइनरी को मानता है (यानी केवल दो अलग विपरीत लिंग हैं) और विपरीत लिंग के लोगों के बीच यौन एवं वैवाहिक संबंध ही सबसे उपयुक्त है।
- ट्रांसजेंडर अधिनियम के मुद्दे: संसद ने ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, 2019 पारित किया है, जिसे ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के कल्याण के लिये तैयार किया गया था।
- हालाँकि LGBTQ+ समुदाय ने इस अधिनियम का विरोध किया, जिसमें सभी के लिये एक समान दृष्टिकोण, आरक्षण की अनुपस्थिति आदि मुद्दे शामिल हैं।
ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, 2019
Transgender Persons (Protection of Rights) Bill 2019
- ट्रांसजेंडर व्यक्ति को परिभाषित करना।
- ट्रांसजेंडर व्यक्ति के विरुद्ध विभेद का प्रतिषेध करना।
- ऐसे व्यक्ति को उस रूप में मान्यता देने के लिये अधिकार प्रदत्त करने और स्वत: अनुभव की जाने वाली लिंग पहचान का अधिकार प्रदत्त करना।
- पहचान-पत्र जारी करना।
- यह उपबंध करना कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति को किसी भी स्थापन में नियोजन, भर्ती, प्रोन्नति और अन्य संबंधित मुद्दों के विषय में विभेद का सामना न करना पड़े।
- प्रत्येक स्थापन में शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करना।
- विधेयक के उपबंधों का उल्लंघन करने के संबंध में दंड का प्रावधान सुनिश्चित करना।
आगे की राह
- मैरिज ए ह्यूमन राइट: अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एंथनी कैनेडी ने ओबर्गफेल बनाम होजेस मामले (2015) में विवाह संस्था के भावनात्मक और सामाजिक मूल्य को रेखांकित किया।
- उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि समान लिंग वाले जोड़े को विवाह के सार्वभौमिक मानव अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिये।
- वर्ष 2021 तक 29 देशों में समलैंगिक विवाह को कानूनी रूप से स्वीकार किया गया और मान्यता दी गई है।
- इस प्रकार भारतीय समाज और राज्य को बदलती प्रवृत्तियों के साथ तालमेल बिठाना चाहिये।
- अनुच्छेद 15 में संशोधन: अनुच्छेद 15 इस अवधारणा की आधारशिला है कि समानता भेदभाव का विरोध करती है।
- यह नागरिकों को धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर राज्य द्वारा हर तरह के भेदभाव से बचाता है।
- यौन अल्पसंख्यकों के विरुद्ध भेदभाव को रोकने के लिये गैर-भेदभाव के आधार को लिंग और यौन अभिविन्यास तक विस्तारित किया जाना चाहिये।
- व्यवहार परिवर्तन को प्रेरित करना: न्यायमूर्ति रोहिंटन एफ. नरीमन ने नवतेज सिंह जौहर मामले में सरकार को निर्देश दिया था कि वह जनसंचार माध्यमों और आधिकारिक चैनल के माध्यम से LGBTQ+ समुदाय से जुड़े कलंक को समाप्त करने के लिये पुलिस अधिकारियों सहित आम जनता तथा अधिकारियों को संवेदनशील बनाए।
- स्कूल और विश्वविद्यालय के छात्रों को भी विषम लैंगिकता के मिथक को तोड़ने के लिये लैंगिकता की विविधता के बारे में जागरूक किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष
- भारत के संस्थापकों ने संविधान की कल्पना मौलिक अधिकारों के एक प्रकाशस्तंभ के रूप में की थी। हालाँकि LGBTQ+ अभी भी नागरिकों के सबसे हाशिये पर खड़े वर्गों में से एक है।
- इसलिये यह बदलाव का समय है लेकिन इस बदलाव का बोझ केवल हाशिये पर स्थित लोगों के ऊपर नहीं डाला जाना चाहिये। इस दायित्व का निर्वहन नागरिक समाज, संबंधित नागरिकों और स्वयं LGBTQ+ समुदाय को मिलकर करना चाहिये।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: न्यायिक फैसलों के बावजूद भारत के लैंगिक अल्पसंख्यकों को रोज़गार, स्वास्थ्य के मुद्दों और व्यक्तिगत अधिकारों में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। चर्चा कीजिये।