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एडिटोरियल

  • 27 Aug, 2021
  • 11 min read
शासन व्यवस्था

न्यायपालिका में प्रौद्योगिकी का उपयोग

यह एडिटोरियल दिनांक 26/08/2021 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित ‘‘Helping and hindering justice’’ लेख पर आधारित है। इसमें न्यायिक प्रणाली में प्रौद्योगिकी के उपयोग से संबंधित चुनौतियों के विषय में चर्चा की गई है।

हाल ही में CoWIN पोर्टल के संबंध में उत्पन्न समस्याओं पर विचार के क्रम में सर्वोच्च न्यायालय ने बड़े पैमाने पर लोगों तक वैक्सीन आपूर्ति की दिशा में कुछ प्रमुख बाधाओं की ओर ध्यान दिलाया। 

ये प्रमुख बाधाएँ हैं: देश में अपर्याप्त डिजिटल साक्षरता, अपर्याप्त डिजिटल पैठ (digital penetration) और बैंडविड्थ एवं कनेक्टिविटी की गंभीर समस्या (विशेष रूप से दूरस्थ और दुर्गम क्षेत्रों में)।      

टीकाकरण का लाभ देश के प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचाने की महत्त्वाकांक्षा के बावजूद इन निहित कठिनाइयों के कारण नीति अपने लक्ष्य को पूरा कर सकने में अभी तक सफल नहीं हुई है।

न्यायालय के अवलोकन में आधार बिंदु यह था कि पूरी तरह से डिजिटल रूपांतरण पर निर्भर होना संभवतः एक सार्थक विचार नहीं हो। इसके परिणामस्वरूप, गणना त्रुटियों (enumerated shortfalls) के कारण आबादी का एक बड़ा हिस्सा बहिर्वेशित हो सकता है।

न्याय व्यवस्था में प्रौद्योगिकी का उपयोग करते समय इसी तरह की चुनौतियों का सामना न्यायिक प्रणाली द्वारा किया जाता है।

महामारी के दौरान न्यायपालिका के प्रयास

  • महामारी के मद्देनज़र न्यायालयों ने ई-फाइलिंग जैसी सुविधाओं का उपयोग वास्तविक दृढ़ संकल्प से करना शुरू किया।
  • मई 2020 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक और नवोन्मेषी कदम उठाया तथा ई-फाइलिंग एवं कृत्रिम बुद्धिमत्ता-सक्षम निर्देशांकन (artificial intelligence-enabled referencing) की एक नई प्रणाली पेश की।    
    • इसका उद्देश्य प्रत्येक उपयोगकर्ता के लिये दक्षता, पारदर्शिता और अदालती आपूर्ति सेवाओं तक नवीन पहुँच की शुरुआत करना था।
  • न्यायपालिका का प्रयास महज महामारी से उत्पन्न आपात स्थिति से निपटने के लिये की गई एकबारगी कार्रवाई नहीं है। यह लंबे समय से न्यायपालिका को परेशान करने वाली असाध्य बीमारियों पर काबू पाने और उन्हें दूर करने के लिये प्रौद्योगिकी के उपयोग का प्रयास करता है। 
    • इनमें देश भर में लंबित मामलों की बड़ी संख्या और सभी स्तरों पर न्यायिक रिक्तियों के अस्वीकार्य स्तर शामिल हैं।    
  • ई-कोर्ट परियोजना के तीसरे चरण के लिये नवीनतम संदृश्य प्रलेख (Vision Document) न्यायपालिका की डिजिटल वंचना को दूर करने का प्रयास करता है। 
    • यह न्यायिक प्रणाली के लिये ऐसी अवसंरचना की परिकल्पना करता है जो 'मूल रूप से डिजिटल' (natively digital) हो और भारत की न्यायिक समयरेखा और सोच पर महामारी के प्रभाव को प्रतिबिंबित करता हो।

न्यायपालिका के डिजिटल समाधान से संबद्ध समस्याएँ

  • रामबाण नहीं: पर्याप्त डेटा-आधारित योजना और सुरक्षा उपायों के साथ तकनीकी उपकरण ‘गेम चेंजर’ साबित हो सकते हैं।  
    • हालाँकि, प्रौद्योगिकी स्वयं में मूल्य-तटस्थ नहीं होती— यानी यह पूर्वाग्रहों से प्रतिरक्षित नहीं है और इसलिये इसका उचित मूल्यांकन किया जाना चाहिये कि यह नागरिकों और राज्य के बीच शक्ति असंतुलन की वृद्धि में योगदान कर रही है अथवा यह नागरिक अधिकारों की पुष्टि एवं श्रीवृद्धि कर रही है।  
  • ई-कोर्ट रिकॉर्ड का रखरखाव: अर्द्ध-न्यायिक कर्मचारियों के पास दस्तावेज़ या रिकॉर्ड साक्ष्य के प्रभावी रखरखाव और उन्हें वादी, अधिवक्ता अदालत तक सुगमता से उपलब्ध करा सकने के उपयुक्त संसाधनों और प्रशिक्षण का अभाव है। 
  • हैकिंग और साइबर सुरक्षा: प्रौद्योगिकी के चरम पर साइबर सुरक्षा भी एक बड़ी चिंता होगी। सरकार ने इस समस्या के समाधान के लिये उपचारात्मक कदम उठाए हैं और साइबर सुरक्षा रणनीति तैयार की है। हालाँकि, इसका व्यावहारिक और वास्तविक कार्यान्वयन एक चुनौती बना हुआ है। 
  • अर्द्ध-शहरी और ग्रामीण ज़िलों के वकील ऑनलाइन सुनवाई को चुनौतीपूर्ण पाते हैं जो मुख्यतः कनेक्टिविटी की समस्याओं और कार्यवाही के इस तरीके से उनके अपरिचय के कारण है।   
  • अन्य समस्याओं में प्रक्रिया से निकटता की कमी के कारण प्रक्रिया के प्रतिवादी में भरोसे की कमी शामिल हो सकती है।    
    • यह ध्यान रखा जाना चाहिये कि परिवर्तन के प्रति सभी हितधारकों में हमेशा एक अंतर्निहित प्रतिरोध होगा ही, चाहे वह परिवर्तन अच्छे के लिये हो या बुरे के लिये।

आगे की राह:

  • नियमित परफॉरमेंस ऑडिट की आवश्यकता: संभावनाओं और जोखिमों को ध्यान से समझने तथा उनका आकलन करने के लिये परफॉरमेंस ऑडिट एवं  सैंडबॉक्सिंग उपायों (isolated test environment) का सहारा लेना अनिवार्य होगा। 
  • प्रत्येक न्यायालय में ‘डीप हाउस क्लीनिंग’ की आवश्यकता है और सभी वादियों तक लागत-प्रभावी, सुविधाजनक और कुशल तरीके से पहुँच बनाने की भी आवश्यकता है। 
  • साक्ष्य-आधारित तर्कसंगत दृष्टिकोण: कार्रवाई का अगला कदम साक्ष्य-आधारित तर्कसंगत दृष्टिकोण पर आधारित होना चाहिये। 
    • उदाहरण के लिये, हमें यह अध्ययन करने और समझने की आवश्यकता है कि आपराधिक मामलों में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग ने न तो ट्रायल की समयसीमा को संक्षिप्त किया है और न ही ट्रायल की प्रतीक्षा करते लोगों की संख्या को कम किया है।
  • असमान डिजिटल पहुँच की समस्या को संबोधित करना: जबकि मोबाइल फोन का व्यापक इस्तेमाल बढ़ा है, इंटरनेट तक पहुँच शहरी उपयोगकर्ताओं तक ही सीमित रही है। 
  • रिक्तियों की पूर्ति: जिस प्रकार चिकित्सकों को chatbots से स्थानांतरित नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार प्रौद्योगिकी (चाहे वह कितनी भी उन्नत हो) न्यायाधीशों का विकल्प नहीं हो सकती और प्रणाली में न्यायाधीशों की भारी कमी बनी हुई है।  
    • इंडिया जस्टिस रिपोर्ट, 2020 के अनुसार उच्च न्यायालयों में 38% (वर्ष 2018-19) और इसी अवधि में अधीनस्थ या निचले न्यायालयों में 22% रिक्तियों  की स्थिति थी।  
    • अगस्त 2021 तक उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के प्रत्येक 10 में से चार से अधिक पद रिक्त बने हुए थे।
  • अवसंरचनात्मक कमी: न्याय की आपूर्ति के लिये खुला न्यायालय (Open court) एक प्रमुख सिद्धांत है। सार्वजनिक पहुँच के प्रश्न को दरकिनार नहीं किया जा सकता है, बल्कि इसे चिंता के केंद्र में होना चाहिये।  
    • प्रौद्योगिकीय अवसंरचना की कमी का अर्थ प्रायः यह होता है कि ऑनलाइन सुनवाई तक पहुँच कम हो जाती है।

निष्कर्ष

यह व्यवस्था में स्थायी परिवर्तन लाने करने का वह उपयुक्त समय हो सकता है जो भारत में चरमराती न्याय वितरण प्रणाली को रूपांतरित कर सकता है।

लेकिन प्रौद्योगिकी पर अत्यधिक निर्भरता न्यायालयों की सभी समस्याओं के लिये कोई रामबाण नहीं है और यदि इस दिशा में सुचिंतित तरीके से कदम नहीं बढ़ाए गए तो यह प्रतिकूल परिणाम भी दे सकता है।

अभ्यास प्रश्न: प्रौद्योगिकी एक ‘गेम चेंजर’ हो सकती है लेकिन यह न्यायालय की सभी समस्याओं के लिये कोई रामबाण नहीं है। चर्चा कीजिये। 


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