एडिटोरियल (24 Dec, 2022)



पुलिस सुधार की ज़रूरत

यह एडिटोरियल 22/12/2022 को ‘फाइनेंशियल एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “Need urgent police reforms” लेख पर आधारित है। इसमें भारत में पुलिस कार्य का संचालन करने वाले विधिक एवं संस्थागत ढाँचे और इससे संबंधित चुनौतियों के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

भारत में विधि-व्यवस्था बनाए रखने और अपराधों की जाँच करने का दायित्व राज्य पुलिस बल पर है, जबकि केंद्रीय बल उन्हें खुफिया और आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों (जैसे उपद्रव या विद्रोह) से निपटन में सहायता देते हैं। केंद्र और राज्य सरकार के बजट का लगभग 3% पुलिस व्यवस्था पर खर्च किया जाता है।

  • भारत में पुलिस कार्य का संचालन या नियंत्रण करने वाला विधिक और संस्थागत ढाँचा हमें अंग्रेज़ों से विरासत में मिला है। वर्तमान कानूनी ढाँचा, जिसमें पुलिस अधिनियम 1861 और अन्य राज्य विशिष्ट कानून शामिल हैं, एक जवाबदेह पुलिस बल स्थापित करने में अधिक सक्षम नहीं है।
  • जबकि कई सुधार प्रस्तावों को भारत सरकार और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा चिह्नित किया गया है, ऐसे सुधार वांछित सीमा तक प्राप्त या कार्यान्वित नहीं किये गए हैं। इस परिदृश्य में, एक कुशल पुलिस व्यवस्था की ओर आगे बढ़ने के लिये आवश्यक है कि विधिक एवं संस्थागत ढाँचे में उपयुक्त संशोधन किया जाए।

भारतीय लोकतंत्र के संदर्भ में पुलिस की आदर्श भूमिका क्या है?

  • पुलिस बलों की प्राथमिक भूमिका है कानूनों को बनाए रखना एवं प्रवर्तित करना, अपराधों की जाँच करना और देश में लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करना।
    • भारत जैसे विशाल एवं वृहत आबादी वाले देश में पुलिस बल अपनी भूमिका अच्छी तरह से निभा सकें, इसके लिये आवश्यक है कि कर्मियों, हथियार, फोरेंसिक, संचार एवं परिवहन सहायता के मामले में वे अच्छी तरह से सुसज्जित हों।
  • इसके अलावा, उनके पास अपने दायित्वों को पेशेवर रूप पूरा कर सकने के लिये परिचालनात्मक स्वतंत्रता हो, उनके लिये संतोषजनक कार्य दशा हो (जैसे विनियमित कार्य के घंटे और पदोन्नति के अवसर), जबकि खराब प्रदर्शन या शक्ति के दुरुपयोग के लिये उन्हें जवाबदेह बनाया जा सके।
    • चूँकि अपराध और राज्य विरोधी कृत्यों/विद्रोहों का स्वरूप बदलता जा रहा है और वे अधिक परिष्कृत होते जा रहे हैं, समय-समय पर पुलिस सुधार किया जाना भी आवश्यक है।

पुलिस सुधारों पर विभिन्न समितियाँ/आयोग

भारत में पुलिस कार्य से संबद्ध प्रमुख चुनौतियाँ

  • निम्न पुलिस-जनसंख्या अनुपात: जनवरी 2016 में राज्य पुलिस बलों में 24% रिक्तियाँ (लगभग 5.5 लाख रिक्तियाँ) दर्ज की गई थीं। इस प्रकार, वर्ष 2016 में जबकि अनुमत पुलिस क्षमता प्रति लाख व्यक्ति पर 181 पुलिसकर्मी होनी चाहिये थी, इनकी वास्तविक संख्या 137 ही थी। उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र (UN) ने प्रति लाख जनसंख्या पर 222 पुलिसकर्मियों की अनुशंसा की है।
    • कर्मियों की कमी के परिणामस्वरूप पुलिसकर्मियों पर कार्य का अत्यधिक बोझ होता है, जो न केवल उनकी प्रभावशीलता एवं दक्षता को कम करता है (जिसके परिणामस्वरूप जाँच कार्य ठीक से नहीं हो पाता), बल्कि इससे मनोवैज्ञानिक संकट भी उत्पन्न होता है और लंबित मामलों की संख्या बढ़ती जाती है।
  • राजनीतिक दबाव: पुलिस कानूनों के अनुसार, केंद्रीय और राज्य पुलिस बल– दोनों ही राजनीतिक कार्यकारियों के नियंत्रण में रखे गए हैं। राजनीतिक नेताओं द्वारा प्रायः ही राज्य के वर्तमान राजनीतिक मिज़ाज के अनुसार पुलिस की प्राथमिकताओं के साथ छेड़छाड़ की जाती है।
    • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) ने वर्ष 2007 में पाया था कि राजनेताओं द्वारा व्यक्तिगत या राजनीतिक कारणों से पुलिसकर्मियों को अनुचित रूप से प्रभावित किया जाता है।
  • औपनिवेशिक विरासत: वर्ष 1857 के विद्रोह के बाद देश के पुलिस प्रशासन को सुव्यवस्थित करने के लिये अंग्रेज़ सरकार द्वारा वर्ष 1861 का पुलिस अधिनियम लाया गया था। यह अधिनियम गणतांत्रिक भारत के 75 वर्ष बीतने के साथ अब जनसंख्या की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं रह गया है।
  • जनता की धारणा: द्वितीय ARC रिपोर्ट में कहा गया कि भारत में पुलिस-पब्लिक संबंध असंतोषजनक है क्योंकि आम लोग पुलिस को भ्रष्ट, अक्षम एवं गैर-जवाबदेह मानते हैं और प्रायः उनसे संपर्क करने में संकोच करते हैं।
  • अवसंरचनात्मक कमी: वर्तमान पुलिस बलों के लिये सुदृढ़ संचार सहायता, आधुनिक हथियारों और उच्च गतिशीलता की आवश्यकता है। वर्ष 2015-16 के कैग ऑडिट (CAG Audits) में पाया गया कि राज्य पुलिस बलों के पास हथियारों की कमी है।
    • इसके अतिरिक्त, ‘पुलिस अनुसंधान और विकास ब्यूरो’ ने पाया कि राज्य बलों के पास आवश्यक वाहनों के स्टॉक में 30.5% की कमी है।
  • बदलती प्रौद्योगिकी, चुनौतीपूर्ण होता पुलिस कार्य: अगले दशक में डिजिटलीकरण, हाइपरकनेक्टिविटी और डेटा की घातीय वृद्धि में तेज़ी आने का अनुमान है।
    • जैविक हथियार (Bioweapons) और साइबर हमले जैसे विभिन्न क्षेत्रों के अभिसरण से प्रभावी पुलिस कार्य के लिये खतरा उत्पन्न हुआ है।

आगे की राह

  • पुलिस बल को एक ‘स्मार्ट’ बल बनाना: भारतीय पुलिस बल को सख़्त एवं संवेदनशील (Strict and Sensitive), आधुनिक एवं गतिशील (Modern and Mobile), सतर्क एवं जवाबदेह (Alert and Accountable), विश्वसनीय एवं उत्तरदायी (Reliable and Responsive) और तकनीनी कुशल एवं प्रशिक्षित (Tech Savvy and Trained) बनाने की आवश्यकता है।
    • विभिन्न अध्ययनों से संकेत मिलता है कि जब पुलिस अधिकारी नागरिकों के साथ गरिमापूर्ण व्यवहार करते हैं, संवाद में उन्हें बराबर की अभिव्यक्ति का अवसर देते हैं और पारदर्शिता एवं जवाबदेही के सजग विचारों से निर्देशित होते हैं तो यह लोगों द्वारा कानूनों के अनुपालन को सुदृढ़ करता है और अपराध को प्रेरित करने वाले परिदृश्यों में सुधार लाता है।
  • ‘कम्युनिटी पुलिसिंग’ को बढ़ावा देना: सामुदायिक विधि-व्यवस्था कार्य या कम्युनिटी पुलिसिंग (Community Policing) को बढ़ावा देना विवेकपूर्ण होगा, क्योंकि इसमें अपराध एवं अपराध से संबंधित मुद्दों को हल करने के लिये पुलिस और समुदाय के सदस्य मिलकर कार्य करते हैं तथा यह जनता-पुलिस संबंधों में भी सुधार लाता है।
  • पुलिस शिकायत प्राधिकरण की स्थापना: सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, पुलिस कदाचार की शिकायतों की जाँच के लिये एक स्वतंत्र शिकायत प्राधिकरण की आवश्यकता है।
    • आदर्श पुलिस अधिनियम 2006 के अनुरूप, प्रत्येक राज्य को एक प्राधिकरण की स्थापना करनी चाहिये जिसमें उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों, नागरिक समाज के सदस्यों, सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारियों और दूसरे राज्य के लोक प्रशासकों को रखा जाए।
  • साइबर-अपराध का मुक़ाबला करने के लिये साइबर-पुलिसिंग को मज़बूत करना: चूँकि अपराध अधिक परिष्कृत, जटिल और अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति के होते जा रहे हैं, नए डिजिटल अन्वेषण एवं डेटा प्रबंधन क्षमताओं के साथ-साथ नवीन एआई-संवर्द्धित साधनों का होना महत्त्वपूर्ण है।
    • उदाहरण के लिये, देश भर में साइबर अपराध की स्थिति को उपयुक्त रूप से समझने के लिये संबंधित आपराधिक आँकड़ों को अद्यतन किया जाना आवश्यक है।
  • नियुक्तियों में पारदर्शिता: आपराधिक न्याय प्रणाली की संरचना को सुदृढ़ करने हेतु पुलिस सुधार महत्त्वपूर्ण है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुरूप पुलिस अधिनियम, 1861 में संशोधन किया जाना चाहिये।
    • चूँकि पुलिस महानिदेशक (राज्य में पुलिस व्यवस्था के प्रमुख) की नियुक्ति का विषय पुलिस प्रशासन के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, ऐसी नियुक्तियों के लिये एक पारदर्शी और योग्यता आधारित प्रक्रिया तैयार की जानी चाहिये।
  • महिलाओं के निम्न प्रतिनिधित्व के मुद्दे को संबोधित करना: उल्लेखनीय है कि संसदीय स्थायी समिति द्वारा राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को पुलिस बल में महिलाओं का 33% प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने हेतु एक रोडमैप तैयार करने की सलाह दी गई है। इसने प्रत्येक ज़िले में कम से कम एक महिला पुलिस स्टेशन स्थापित करने की भी अनुशंसा की है।

अभ्यास प्रश्न: अपराध और राज्य विरोधी कृत्यों की परिष्कृत होती प्रकृति को देखते हुए भारत में पुलिस सुधारों की आवश्यकता पर चर्चा कीजिये।

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (पिक्स)  

मुख्य परीक्षा

Q.1 मौत की सज़ा को कम करने में राष्ट्रपति की देरी का उदाहरण सार्वजनिक बहस के तहत न्याय से इनकार के रूप में सामने आए हैं। क्या ऐसी याचिकाओं को स्वीकार/अस्वीकार करने के लिए राष्ट्रपति के लिए कोई समय निर्दिष्ट होना चाहिए?  विश्लेषण कीजिये।  (वर्ष 2014)

Q.2 भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) सबसे प्रभावी हो सकता है जब इसके कार्यों को सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने वाले अन्य तंत्रों द्वारा पर्याप्त रूप से समर्थित किया जाता है। उपर्युक्त अवलोकन के आलोक में मानवाधिकार मानकों को बढ़ावा देने और उनकी रक्षा करने में न्यायपालिका और अन्य संस्थानों के प्रभावी पूरक के रूप में एनएचआरसी की भूमिका का आकलन करें।  (वर्ष 2014)