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एडिटोरियल

  • 20 Mar, 2025
  • 34 min read
कृषि

प्राकृतिक कृषि हेतु भारत का प्रयास

यह एडिटोरियल 19/03/2025 को द हिंदू बिज़नेस लाइन में प्रकाशित “Farming naturally” पर आधारित है। इस लेख में रसायन-प्रधान कृषि के लिये एक स्थायी विकल्प के रूप में प्राकृतिक कृषि की क्षमता का उल्लेख किया गया है, साथ ही प्राकृतिक कृषि पर राष्ट्रीय मिशन के माध्यम से भारत के प्रयासों पर भी प्रकाश डाला गया है।

प्रिलिम्स के लिये:

प्राकृतिक कृषि, हरित क्रांति, राष्ट्रीय प्राकृतिक कृषि मिशन (NMNF), शून्य बजट प्राकृतिक कृषि, कृषि वानिकी, CETARA-NF प्रमाणन मॉडल, कृषि विज्ञान केंद्र (KVK), मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना,  कृषक उत्पादक संगठन (FPO), कृषि यंत्रीकरण पर उप-मिशन (SMAM) 

मेन्स के लिये:

भारत के लिये प्राकृतिक कृषि के प्रमुख लाभ, भारत में प्राकृतिक कृषि से जुड़े प्रमुख मुद्दे। 

प्राकृतिक कृषि रासायन-प्रधान कृषि, जिसने हरित क्रांति के माध्यम से खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के बावजूद मृदा के स्वास्थ्य को खराब किया है और लघु किसानों के लिये लागत बढ़ा दी है, के लिये एक आशाजनक विकल्प के रूप में उभरी है। भारत सरकार के राष्ट्रीय प्राकृतिक कृषि मिशन (NMNF) का लक्ष्य 7.5 लाख हेक्टेयर में 1 करोड़ किसानों को समर्थन देना है, जैव-संसाधन केंद्र स्थापित करना है। भारत को प्रमाणन चुनौतियों का समाधान करने, पर्यावरणीय लाभों पर निर्णायक साक्ष्य एकत्र करने और प्राकृतिक कृषि पद्धतियों को अपनाने वाले किसानों के लिये आर्थिक व्यवहार्यता सुनिश्चित करने के लिये कड़े प्रयासों की आवश्यकता है।

Components of Natural Farming

प्राकृतिक कृषि क्या है?

  • प्राकृतिक कृषि के संदर्भ में: प्राकृतिक कृषि एक संधारणीय कृषि पद्धति है जिसमें रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और गहन जुताई की आवश्यकता नहीं होती है, साथ ही यह पद्धति मृदा की उर्वरता तथा फसल वृद्धि के लिये पारिस्थितिक प्रक्रियाओं एवं स्वदेशी संसाधनों पर निर्भर करती है।
  • प्रमुख सिद्धांत
    • कोई रासायनिक इनपुट नहीं: सिंथेटिक उर्वरकों और कीटनाशकों का प्रयोग नहीं किया जाता है।
    • जैव-इनपुट का उपयोग: मृदा संवर्द्धन के लिये जीवामृत, बीजामृत और पंचगव्य का उपयोग किया जाता है।
    • न्यूनतम मृदा व्यवधान: मृदा जैवविविधता बनाए रखने के लिये कोई जुताई नहीं की जाती।
    • अंतरफसल एवं फसल चक्रण: इससे मृदा की उर्वरता बढ़ती है और कीट नियंत्रण में सहायता मिलती है।
    • मल्चिंग और कवर क्रॉपिंग: मृदा की नमी बरकरार रखती है और अपरदन को रोकती है।

भारत के लिये प्राकृतिक कृषि के प्रमुख लाभ क्या हैं? 

  • मृदा स्वास्थ्य को बढ़ाती है और भूमि क्षरण को कम करती है: प्राकृतिक कृषि सिंथेटिक उर्वरकों और कीटनाशकों को समाप्त करती है, सूक्ष्मजीव गतिविधि को बढ़ावा देती है, मृदा की संरचना में सुधार करती है तथा पोषक तत्त्वों की मात्रा को बढ़ाती है। 
    • यह भूमि क्षरण को रोकती है, जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि भारत की 30% भूमि पहले से ही गहन रासायनिक उपयोग के कारण क्षरित हो चुकी है। 
    • प्राकृतिक कृषि, मृदा में जैविक पदार्थों का पुनर्भरण करके दीर्घकालिक मृदा-उर्वरता सुनिश्चित करती है तथा बाह्य कृषि आदान पर निर्भरता कम करती है। 
    • उदाहरण के लिये, आंध्र प्रदेश सामुदायिक-प्रबंधित प्राकृतिक कृषि (APCNF) ने केवल 3-5 वर्षों में मृदा कार्बनिक कार्बन में सुधार दिखाया है।
  • जल की खपत कम होती है और सूखे के प्रति सहिष्णुता बढ़ती है: प्राकृतिक कृषि मल्चिंग, कवर क्रॉपिंग और माइक्रोबियल मृदा कंडीशनिंग जैसी तकनीकों को बढ़ावा देकर सिंचाई की जरूरतों को कम करती है तथा जल प्रतिधारण को बढ़ाती है। 
    • भारत में भूजल के अत्यधिक दोहन (वैश्विक भूजल उपयोग का 25%) को देखते हुए, जल-कुशल कृषि संधारणीयता के लिये महत्त्वपूर्ण है। 
    • आंध्र प्रदेश में वर्षा पर निर्भर मानसून-पूर्व शुष्क बुवाई (PMDS) करने वाले किसानों ने सिंचाई आवश्यकताओं में उल्लेखनीय कमी की सूचना दी है। 
    • केंद्रीय भूजल बोर्ड (2023) के अनुसार, 700 ज़िलों में से 256 में भूजल स्तर गंभीर है, जिससे जल-कुशल कृषि अति आवश्यक हो गई है।
  • कृषि की लागत कम होती है और किसानों की लाभप्रदता बढ़ती है: प्राकृतिक कृषि से आदान लागत में उल्लेखनीय कमी आती है, क्योंकि किसान महंगे रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के बजाय जीवामृत, बीजामृत और मल्चिंग जैसे कृषि संसाधनों पर निर्भर रहते हैं।
    • यह लघु एवं सीमांत किसानों के लिये महत्त्वपूर्ण है, जो भारत की कृषक आबादी का 86% हिस्सा हैं और बढ़ती लागत से जूझ रहे हैं। 
    • उदाहरण के लिये, शून्य बजट प्राकृतिक कृषि प्रक्रियाओं में सभी चयनित फसलों के लिये 50-60% कम जल और कम बिजली (गैर-ZBNF की तुलना में) की आवश्यकता होती है।
  • जलवायु अनुकूलन बढ़ाती है और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करती है: प्राकृतिक कृषि में वायवीय मृदा-स्थिति को बनाए रखने और सिंथेटिक उर्वरकों के परिहार के कारण मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन में आशातीत कमी आती है।
    • इसके अलावा, यह जलवायु अनुकूलन के लिये भी महत्त्वपूर्ण हैं। उदाहरण के लिये, आंध्र प्रदेश में, वर्ष 2018 में पेथाई और तितली चक्रवातों के दौरान, प्राकृतिक कृषि के माध्यम से उगाई गई फसलों ने पारंपरिक फसलों की तुलना में भारी हवाओं के प्रति अधिक सहिष्णुता दिखाया।
    • नई दिल्ली स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में पाया गया कि SRI विधि से CHy उत्सर्जन में 62% की कमी आई है।
  • विविध फसल के साथ खाद्य और पोषण सुरक्षा को बढ़ावा देती है: एकल-फसल आधारित रासायनिक कृषि के विपरीत, प्राकृतिक कृषि बहु-फसल, कृषि वानिकी और अंतर-फसल को प्रोत्साहित करती है, जिससे खाद्य विविधता एवं पोषण सुरक्षा बढ़ती है। 
    • यह महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि FAO की रिपोर्ट में पाया गया है कि 74.1% भारतीय स्वस्थ आहार का खर्च वहन करने में असमर्थ हैं; 16.6% जनसंख्या कुपोषित है।
    • वर्ष 2025 तक भारतीय जैविक खाद्य कारोबार 75,000 करोड़ रुपए तक पहुँचने की संभावना है, जो वर्तमान स्तर से कई गुना अधिक है। 
      • इसके अतिरिक्त, अमेज़न और बिग बास्केट जैसे ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म ने प्राकृतिक कृषि पर समर्पित अनुभाग शुरू किये हैं, जिससे किसानों के लिये बाज़ार तक पहुँच का विस्तार हुआ है।
  • ग्रामीण आजीविका को मज़बूत बनाती है और रोज़गार सृजन करती है: प्राकृतिक कृषि ज्ञान-और श्रम-प्रधान है, जिसके लिये किसानों को खाद बनाने, मल्चिंग और फसल चक्र जैसी तकनीकों को अपनाने की आवश्यकता होती है, जिससे ग्रामीण रोज़गार सृजन होता है। 
    • जैसे-जैसे कृषि मशीनीकरण बढ़ता जा रहा है, जिससे कृषि मजदूरों के लिये नौकरियाँ समाप्त होती जा रही हैं (वर्ष 2011-12 से आकस्मिक कृषि मजदूरों की संख्या में 40% की कमी आई है, कुल नौकरियाँ लगभग 3 करोड़ कम हुई हैं: NSSO), प्राकृतिक कृषि एक वैकल्पिक आजीविका प्रदान करती है। 
    • राष्ट्रीय प्राकृतिक कृषि मिशन (वर्ष 2023) ग्रामीण महिला किसानों को प्रशिक्षित करने के लिये 30,000 कृषि सखियों को तैनात कर रहा है, जिससे प्रत्यक्ष रोज़गार के अवसर उत्पन्न होंगे। 

भारत में प्राकृतिक कृषि से जुड़े प्रमुख मुद्दे क्या हैं? 

  • वैज्ञानिक सत्यापन और दीर्घकालिक अध्ययनों का अभाव: पर्यावरणीय लाभों के बावजूद, विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों में इसकी संधारणीयता को सिद्ध करने वाले बड़े पैमाने पर दीर्घकालिक वैज्ञानिक अध्ययनों का अभाव है।
    • अधिकांश अध्ययन छोटे पैमाने के पायलटों पर केंद्रित हैं, जिससे बड़े पैमाने पर खाद्य उत्पादन के लिये इसकी व्यवहार्यता को लेकर संदेह उत्पन्न होता है। 
    • गहन शोध के बिना, प्राकृतिक कृषि मुख्यधारा के समाधान के बजाय एक वैकल्पिक अभ्यास बना हुआ है। 
    • खाद्य और भूमि उपयोग गठबंधन (FOLU, 2023) ने रेखांकित किया है कि 16 सतत् कृषि पद्धतियों (SAPs) में से केवल 5 ही भारत के निवल बुवाई के 5% से आगे बढ़ पाई हैं। 
      • भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने बड़े पैमाने पर प्रचार से पहले अधिक अनुभवजन्य अनुसंधान का आग्रह किया है।
  • फसल की पैदावार और उत्पादकता जोखिम में अनिश्चितता: प्राकृतिक कृषि में प्रायः प्रारंभिक उपज में गिरावट आती है, विशेष रूप से चावल, गेहूँ और गन्ना जैसी उच्च आदान वाली फसलों में, जिससे किसानों को अल्पावधि में कम लाभ मिलता है। 
    • परंपरागत कृषि के विपरीत, जिसमें रासायनिक आदान के साथ उच्च उत्पादन सुनिश्चित किया जाता है, प्राकृतिक उर्वरक जैविक मृदा संवर्द्धन पर निर्भर करता है, जिसके परिणाम दिखने में समय लगता है।
    • यह अनिश्चितता किसानों को प्राकृतिक कृषि में संक्रमण के प्रति हतोत्साहित करती है, विशेष रूप से खाद्य सुरक्षा पर निर्भर क्षेत्रों में। 
  • सुपरिभाषित प्रमाणन मानकों का अभाव: जैविक कृषि के विपरीत, जिसमें स्पष्ट प्रमाणन तंत्र (PGS-इंडिया, NPOP) मौजूद है, प्राकृतिक जैविक कृषि में मानकीकृत प्रमाणन का अभाव है, जिससे बाज़ार में प्राकृतिक जैविक उत्पादों में अंतर करना कठिन हो जाता है। 
    • इससे किसानों की प्रीमियम कीमतों तक पहुँच सीमित हो जाती है और प्राकृतिक रूप से उगाए गए खाद्यान्नों पर उपभोक्ताओं का भरोसा भी सीमित हो जाता है। 
    • उचित लेबलिंग के बिना, प्राकृतिक कृषि उत्पाद प्रायः बिना किसी मूल्य लाभ के रासायनिक रूप से उगाए गए उत्पादों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करते हैं।
      • हिमाचल प्रदेश का CETARA-NF प्रमाणन मॉडल (वर्ष 2023) एक संभावित स्व-प्रमाणन कार्यढाँचा प्रदान करता है, लेकिन इसे अभी राष्ट्रीय स्तर पर अपनाया जाना शेष है। 
  • सीमित बाज़ार संपर्क और मूल्य शृंखला विकास: राष्ट्रीय राजमार्ग में संगठित मूल्य शृंखलाओं का अभाव है, जिससे किसानों के लिये अपनी उपज को उचित मूल्य पर बेचना मुश्किल हो जाता है। 
    • जैविक खाद्यान्नों की कीमतें वास्तविक कीमत होती हैं, जो सब्सिडी के बिना वास्तविक लागत को दर्शाती हैं, जिससे किसानों को जैविक खाद्यान्नों को बाज़ार में बेचने के लिये संघर्ष करना पड़ता है।
    • एक हालिया रिपोर्ट में जैविक उत्पादों पर उच्च कमीशन के बारे में भी चिंता जताई गई है, जिसमें सुझाव दिया गया है कि मार्जिन को सामान्य स्तर तक कम करने से कीमतों में 25-30% या उससे अधिक की कमी आ सकती है।
  • उच्च श्रम आवश्यकताएँ और सीमित मशीनीकरण: प्राकृतिक कृषि श्रम-प्रधान है, इसमें हाथों से खरपतवार हटाने, खाद तैयार करने और मल्चिंग की आवश्यकता होती है, जिससे किसानों का कार्यभार एवं लागत बढ़ जाती है। 
    • बड़े पैमाने पर प्राकृतिक उर्वरक के लिये मशीनीकृत समाधान अभी भी अविकसित हैं, जिससे यह मध्यम और बड़े किसानों के लिये कम आकर्षक बन गया है। 
    • इससे अपनाने में बाधा उत्पन्न होती है, विशेषकर शहरी प्रवास के कारण ग्रामीण श्रम की उपलब्धता में कमी आती है। 
    • एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि जैविक कृषि में श्रम लागत काफी अधिक (7-13%) थी।
  • जलवायु संवेदनशीलता और क्षेत्रीय उपयुक्तता के मुद्दे: प्राकृतिक कृषि की सफलता स्थानीय कृषि-जलवायु स्थितियों पर बहुत अधिक निर्भर करती है, जिसके कारण यह अत्यधिक मौसम परिवर्तनशीलता या संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र वाले कुछ क्षेत्रों के लिये अनुपयुक्त है। 
    • कम वर्षा वाले क्षेत्रों में किसानों को खाद आधारित मृदा सुधार के लिये संघर्ष करना पड़ सकता है, जबकि आर्द्र क्षेत्रों में रासायनिक हस्तक्षेप के बिना कीट और रोग की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। 
    • यद्यपि प्राकृतिक कृषि लाभदायक है, लेकिन जल की कमी, अनिश्चित वर्षा और अन्य जलवायु-संबंधी चुनौतियों के कारण यह अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में कम प्रभावी हो सकती है। 
    • इसके विपरीत, प्राकृतिक कृषि खुशहाल किसान योजना के तहत हिमाचल प्रदेश की प्राकृतिक कृषि परियोजना ने क्षेत्रीय असमानताओं को उजागर करते हुए कृषि आय में वृद्धि देखी है।

प्राकृतिक कृषि में प्रमुख वैश्विक और भारतीय सर्वोत्तम प्रथाएँ क्या हैं?

  • वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाएँ
    • कृषि पारिस्थितिकी - लैटिन अमेरिका (ब्राज़ील, मैक्सिको, क्यूबा)
      • पारंपरिक कृषि को वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ एकीकृत करना।
      • जैवविविधता, फसल चक्र और प्राकृतिक कीट नियंत्रण पर ज़ोर दिया गया।
    • पर्माकल्चर - ऑस्ट्रेलिया 
      • कृषि को प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्रों के साथ संयोजित करने वाली एक संधारणीय भूमि-उपयोग प्रणाली।
      • मृदा पुनर्जनन, वर्षा जल संचयन और सहवर्ती रोपण पर ध्यान केंद्रित किया गया।
    • SRI (चावल गहनता प्रणाली) - मेडागास्कर और संपूर्ण एशिया
      • न्यूनतम आदान के साथ उपज में सुधार करने के लिये जल दक्षता और पौधों के बीच की दूरी को बढ़ाता है।
    • जैविक और बायोडायनामिक कृषि - यूरोप (जर्मनी, स्विट्ज़रलैंड)
      • मृदा की उर्वरता बढ़ाने के लिये खाद, फसल विविधीकरण और चंद्र चक्र का उपयोग किया जाता है।
  • भारतीय सर्वोत्तम प्रथाएँ
    • शून्य बजट प्राकृतिक कृषि (ZBNF) - आंध्र प्रदेश, कर्नाटक
      • जीवामृत, बीजामृत और अंतर-फसल पर आधारित, सुभाष पालेकर द्वारा प्रचारित।
    • ऋषि कृषि एवं वैदिक कृषि - महाराष्ट्र
      • मृदा स्वास्थ्य के लिये पंचगव्य, अमृतजल, गौ-आधारित उत्पादों और आयुर्वेदिक योगों का उपयोग किया जाता है।
    • समुदाय-प्रेरित प्राकृतिक कृषि - सिक्किम (पूर्णतः जैविक राज्य)
      • सिक्किम पहला पूर्ण जैविक राज्य बन गया, जिसने नीति-संचालित प्राकृतिक कृषि पर ध्यान (हालाँकि हाल ही में कम पैदावार के कारण इसे चिंता का सामना करना पड़ रहा है) केंद्रित किया।
    • जनजातीय क्षेत्रों में वाटरशेड सहायता सेवाएँ और गतिविधियाँ नेटवर्क - ओडिशा
      • इसमें बहु-स्तरीय फसल, कृषि वानिकी और देशी बीजों के उपयोग को सम्मिलित किया गया है।

भारत अपने कृषि परिदृश्य में प्राकृतिक कृषि को एकीकृत करने के लिये क्या उपाय अपना सकता है?

  • अनुसंधान और साक्ष्य-आधारित स्केलिंग को मज़बूत करना: भारत को विविध कृषि-जलवायु क्षेत्रों में प्राकृतिक कृषि के आर्थिक, पर्यावरणीय और उपज प्रभावों को स्थापित करने के लिये दीर्घकालिक, बहु-स्थान परीक्षणों में निवेश करना चाहिये।
    • ICAR और कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) को वास्तविक दुनिया के परिणामों का दस्तावेज़ीकरण करने तथा स्थान-विशिष्ट प्राकृतिक कृषि मॉडल बनाने के लिये किसानों के साथ सहयोग करना चाहिये।
    • भू-स्थानिक मानचित्रण और AI-संचालित मृदा स्वास्थ्य निगरानी को एकीकृत करके विभिन्न क्षेत्रों के लिये प्रथाओं को अनुकूलित किया जा सकता है। 
    • कृषि-पारिस्थितिकी आधारित विश्वविद्यालयों को प्राकृतिक कृषि अनुसंधान में विशेषज्ञता हासिल करने के लिये प्रोत्साहित करने से वैज्ञानिक मान्यता सुनिश्चित होगी। 
  • प्राकृतिक उर्वरक के अंगीकरण के लिये कृषि सब्सिडी में सुधार: मौजूदा 71,309 करोड़ रुपए की उर्वरक सब्सिडी को जैव-आदान उत्पादन, मृदा स्वास्थ्य संवर्द्धन और प्राकृतिक उर्वरक विस्तार सेवाओं के लिये धीरे-धीरे पुनर्आबंटन की आवश्यकता है। 
    • प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (DBT) मॉडल किसानों को रासायनिक आदान पर सब्सिडी देने के बजाय जीवामृत, बीजामृत और खाद उत्पादन के लिये वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान कर सकता है।
    • राष्ट्रीय प्राकृतिक कृषि मिशन (NMNF) को मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना के साथ जोड़ा जाना चाहिये ताकि सुधारों पर नज़र रखी जा सके और तदनुसार किसानों को प्रोत्साहित किया जा सके। 
      • ब्याज मुक्त ऋण के रूप में संक्रमण निधि, छोटे किसानों को प्रारंभिक उपज में उतार-चढ़ाव से उबरने में सहायता कर सकती है।
  • बाज़ार संपर्क और प्रमाणन कार्यढाँचे का विकास: घरेलू और वैश्विक बाज़ारों में प्राकृतिक कृषि उत्पादों में अंतर करने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर प्राकृतिक कृषि प्रमाणन प्रणाली (NFCS) की स्थापना की जानी चाहिये।
    • e-NAM और कृषि-निर्यात संवर्द्धन योजनाओं को किसानों को उच्च-मूल्य आपूर्ति शृंखलाओं में एकीकृत करने के लिये समर्पित प्राकृतिक कृषि श्रेणियाँ शुरू करनी चाहिये। 
    • सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) से कृषि उत्पादन में विशेषज्ञता वाले कृषक उत्पादक संगठन (FPO) की स्थापना में सहायता मिल सकती है, जिससे सामूहिक सौदाकारी शक्ति सुनिश्चित होगी।
    • प्रमुख खुदरा कंपनियों और ऑनलाइन प्लेटफार्मों के साथ अनुबंध कृषि मॉडल को प्रोत्साहित करने से प्राकृतिक उर्वरक उत्पादों की सुनिश्चित मांग उत्पन्न हो सकती है।
      • प्राकृतिक कृषि-विशिष्ट मंडियों और जैविक बाज़ारों सहित समर्पित फार्म-टू-फॉर्क (खेत से खाने तक) चैनल उत्पादों की सुलभता में सुधार कर सकते हैं।
  • किसान प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण को सुदृढ़ करना: एक संरचित किसान-से-किसान शिक्षण मॉडल (F2F-LM) विकसित किया जाना चाहिये, जहाँ प्रशिक्षित किसान अपने समुदायों में प्राकृतिक कृषि के राजदूत के रूप में कार्य करें।
    • NMNF के अंतर्गत जैव-संसाधन केंद्रों को खाद बनाने, मल्चिंग और सूक्ष्मजीवी मृदा संवर्द्धन के लिये व्यावहारिक शिक्षण केंद्र के रूप में कार्य करना चाहिये। 
    • दीनदयाल अंत्योदय योजना (DAY-NRLM) के अंतर्गत कृषि सखियों का लाभ उठाकर महिला किसानों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है। 
      • किसान सुविधा ऐप जैसे मोबाइल आधारित परामर्श सेवाओं का विस्तार करने से प्राकृतिक उर्वरक तकनीकों पर वास्तविक काल में मार्गदर्शन मिलेगा। 
  • प्राकृतिक कृषि को वाटरशेड और कृषि वानिकी कार्यक्रमों के साथ एकीकृत करना: सहिष्णुता में सुधार के लिये, मृदा नमी प्रतिधारण को बढ़ाने के लिये प्राकृतिक कृषि को PMKSY जैसे वाटरशेड प्रबंधन कार्यक्रमों के साथ मिश्रित किया जाना चाहिये।
    • राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति के तहत सिल्वो-पैस्टोरल (प्राकृतिक कृषि-प्रणाली जिसमें वृक्षारोपण और घास या चरागाहों पर आधारित पशुपालन का संयोजन हो) और कृषि वानिकी प्रणालियों को बढ़ावा देने से किसानों की आय में विविधता आएगी तथा मृदा पुनर्जनन भी सुनिश्चित होगा। 
    • जल-कमी वाले क्षेत्रों में सिंचाई के जोखिम को कम करने के लिये जलग्रहण-आधारित वर्षाजल संचयन मॉडल को प्राकृतिक संसाधनों के साथ एकीकृत किया जा सकता है।
    • जल शक्ति अभियान को वर्षा आधारित क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों-अंगीकरण को जोड़ने से बेहतर संसाधन दक्षता सुनिश्चित हो सकती है। 
      • नाइट्रोजन-फिक्सिंग वृक्षों (जैसे: ग्लिरिसिडिया, सुबाबुल) के रोपण को प्रोत्साहित करने से प्राकृतिक रूप से मृदा की उर्वरता की पूर्ति हो सकती है।
  • प्राकृतिक उर्वरक प्रथाओं के लिये मशीनीकरण और प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देना: प्राकृतिक उर्वरक की श्रम-प्रधान प्रकृति को देखते हुए, कम लागत वाले खरपतवारनाशक, सूक्ष्मजीवी स्प्रेयर और जैव-उर्वरक एप्लीकेटर जैसे अनुकूलित मशीनीकरण समाधान विकसित किये जाने चाहिये।
    • कृषि-तकनीक नवाचार निधि के अंतर्गत स्टार्टअप इनक्यूबेटर कृषि-विशिष्ट मशीनीकरण उपकरणों के लिये नवाचारों का समर्थन कर सकते हैं। 
    • कृषि यंत्रीकरण पर उप-मिशन (SMAM) का विस्तार किया जाना चाहिये, ताकि इसमें कृषि यंत्रीकरण के अनुकूल उपकरणों को शामिल किया जा सके, जिससे लघु एवं सीमांत किसानों के लिये उनकी पहुँच सुनिश्चित हो सके। 
      • AI और IoT-आधारित मृदा स्वास्थ्य निगरानी का लाभ उठाने से प्राकृतिक कृषि प्रणालियों में इनपुट उपयोग को और अधिक अनुकूलित किया जा सकेगा।
  • राज्य स्तरीय नीतियों के माध्यम से संस्थागत समर्थन बढ़ाना: राज्यों को हिमाचल प्रदेश के PK3Y और आंध्र प्रदेश के APCNF के समान क्षेत्र-विशिष्ट प्राकृतिक कृषि नीतियाँ विकसित करनी चाहिये, जिससे स्थानीयकृत अंगीकरण की रणनीति सुनिश्चित हो सके। 
    • ग्राम पंचायत स्तर पर राष्ट्रीय बागवानी मिशन समितियों को सदृढ़ करने से विकेंद्रीकृत निर्णय प्रक्रिया और कृषक भागीदारी सुनिश्चित होगी। 
    • सामुदायिक कम्पोस्ट और जैव-संसाधन केंद्रों के लिये भूमि आवंटित करने हेतु पंचायतों को प्रोत्साहित करने से प्राकृतिक उर्वरकों में स्थानीय स्तर पर आत्मनिर्भरता आएगी। 
      • मध्याह्न भोजन और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिये प्राकृतिक संसाधनों से उत्पादित खाद्य उत्पादों के स्रोत के लिये राज्य खरीद नीतियों को संरेखित करने से संस्थागत बाज़ार समर्थन मिल सकता है।

निष्कर्ष: 

प्राकृतिक कृषि रासायनिक-प्रधान कृषि के लिये एक स्थायी विकल्प प्रस्तुत करती है, जो बेहतर मृदा स्वास्थ्य, न्यूनतम आदान लागत और जलवायु अनुकूलन जैसे लाभ प्रदान करती है। प्राकृतिक कृषि को आर्थिक रूप से व्यवहार्य बनाने के लिये अनुसंधान, नीति समर्थन और किसान प्रोत्साहन को मज़बूत करना महत्त्वपूर्ण होगा। वैज्ञानिक सत्यापन और संस्थागत समर्थन को एकीकृत करने वाला एक संतुलित दृष्टिकोण भारत के कृषि परिदृश्य में इसकी दीर्घकालिक सफलता सुनिश्चित कर सकता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न. "प्राकृतिक कृषि को रसायन-प्रधान कृषि के लिये एक स्थायी विकल्प के रूप में देखा जाता है, फिर भी प्रमाणीकरण, आर्थिक व्यवहार्यता और बाज़ार पहुँच से संबंधित चुनौतियाँ बनी हुई हैं।" भारत में प्राकृतिक कृषि की संभावनाओं पर चर्चा कीजिये और इन चुनौतियों से निपटने के उपाय सुझाइये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स

प्रश्न 1. जलवायु-अनुकूल कृषि (क्लाइमेट-स्मार्ट एग्रीकल्चर) के लिये भारत की तैयारी के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये-  (2021)

  1. भारत में ‘जलवायु-स्मार्ट ग्राम (क्लाइमेट-स्मार्ट विलेज)’ दृष्टिकोण, अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान कार्यक्रम-जलवायु परिवर्तन, कृषि एवं खाद्य सुरक्षा (सी.सी.ए.एफ.एस.) द्वारा संचालित परियोजना का एक भाग है। 
  2. सी.सी.ए.एफ.एस. परियोजना, अंतर्राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान हेतु परामर्शदात्री समूह (सी.जी.आई.ए.आर.) के अधीन संचालित किया जाता है, जिसका मुख्यालय फ्राँस में है।
  3. भारत में स्थित अंतर्राष्ट्रीय अर्धशुष्क उष्णकटिबंधीय फसल अनुसंधान संस्थान (आई.सी.आर.आई.एस.ए.टी.), सी.जी.आई.ए.आर. के अनुसंधान केंद्रों में से एक है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-से सही हैं?

(a) केवल 1 और 2             
(b)  केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3  
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (d)


प्रश्न 2. निम्नलिखित युग्मों पर विचार कीजिये:  (2014)

कार्यक्रम/ परियोजना

मंत्रालय

1. सूखा-प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम

:   कृषि मंत्रालय

2. मरुस्थल विकास कार्यक्रम 

:  ग्रामीण विकास मंत्रालय

3. वर्षा पूरित क्षेत्रों हेतु राष्ट्रीय जलसंभर विकास परियोजना

:  पर्यावरण एवं वन मंत्रालय

उपर्युक्त युग्मों में से कौन-सा/से सही सुमेलित है/हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3
(c) 1, 2 और 3
(d) कोई नहीं

उत्तर: (d)


प्रश्न 3. भारत में, निम्नलिखित में से किन्हें कृषि में सार्वजनिक निवेश माना जा सकता है।  (2020)

  1. सभी फसलों के कृषि उत्पाद के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करना 
  2. प्राथमिक कृषि साख समितियों का कंप्यूटरीकरण  
  3. सामाजिक पूंजी विकास 
  4. कृषकों को नि:शुल्क बिजली की आपूर्ति 
  5. बैंकिंग प्रणाली द्वारा कृषि ऋण की माफी 
  6. सरकारों द्वारा शीतागार सुविधाओं को स्थापित करना।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1, 2 और 5
(b) केवल 1, 3, 4 और 5
(c) केवल 2, 3 और 6
(d) 1, 2, 3, 4, 5 और 6

उत्तर: (c)


मेन्स 

प्रश्न 1. भारतीय कृषि की प्रकृति की अनिश्चितताओं पर निर्भरता के मद्देनज़र, फसल बीमा की आवश्यकता की विवेचना कीजिये और प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पी.एम.एफ.बी.वाइ.) की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिये।  (2016)

प्रश्न 2. भारत में स्वतंत्रता के बाद कृषि में आई विभिन्न प्रकारों की क्रांतियों को स्पष्ट कीजिये। इन क्रांतियों ने भारत में गरीबी उन्मूलन और खाद्य सुरक्षा में किस प्रकार सहायता प्रदान की है ? (2017)


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