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  • 20 Jan, 2021
  • 10 min read
भारतीय अर्थव्यवस्था

संधारणीय खनन

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में देश में खनन की वर्तमान स्थिति से संबंधित मुद्दों और संधारणीय खनन को अपनाए जाने की आवश्यकता व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ: 

भारत की राष्ट्रीय खनन नीति, 2019 के अनुसार, “प्राकृतिक संसाधन (खनिज सहित) साझा विरासत हैं जहाँ राज्य (State) लोगों की तरफ से इसका संरक्षक है और इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि भविष्य की पीढ़ियों को भी इस विरासत का लाभ मिल सके।” 

हालाँकि खनन प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले सीमित संसाधनों को निकालने और उनका उपभोग करने की प्रक्रिया है। इसके अतिरिक्त भारत सरकार और राज्य सरकारें खनिजों की बिक्री से होने वाली आय को राजस्व या सामान्य आय के रूप में मानती हैं। इन गतिविधियों के कारण न तो खनिज और न ही उसके लाभ को भविष्य की पीढ़ियों के लिये सुरक्षित रखा जा सकेगा। इसके अतिरिक्त विश्व की आर्थिक गतिविधियों को समर्थन प्रदान करने में खनन से प्राप्त खनिजों का योगदान लगभग 45% है, इतने बड़े पैमाने पर खनन करने के सामाजिक और पर्यावरणीय दुष्प्रभाव भी हैं।

इस संदर्भ में पीढ़ीगत समानता के सिद्धांत को अपनाया जाना आवश्यक है, जो भविष्य की पीढ़ियों के लिये कम-से-कम उतनी विरासत की उपलब्धता सुनिश्चित करना अनिवार्य बनाता है, जितना कि वर्तमान पीढ़ी के लिये उपलब्ध है।

गैर-संधारणीय खनन से जुड़े मुद्दे और चुनौतियाँ:  

  • वहनीय क्षमता के परे खनन: कई मामलों में पर्यावरण और अन्य अवसंरचनात्मक सीमाओं की ‘वहनीय क्षमता’  की परवाह किये बगैर खनन कार्यों को जारी रखा जाता है।
    • यह व्यवहार पर्यावरण पर परिहार्य दबाव डालने के साथ खनन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिये असुविधा का कारण बना है।
  • सार्वजनिक राजस्व की हानि: खनन क्षेत्र में पारदर्शिता की कमी और लॉबिंग, राजनीतिक दान और भ्रष्टाचार से प्रेरित होने के कारण खनिजों को अक्सर उनके संभावित वास्तविक मूल्य से काफी कम पर बेचा जाता हैं। 
    • गैर-कानूनी खनन का भी समान प्रभाव देखा जाता है और इससे अतिरिक्त सार्वजनिक राजस्व का नुकसान होता है।
    • अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के अनुसार, गैर-संधारणीय खनन के कारण संसाधन संपन्न कई देशों की सरकारें सार्वजनिक क्षेत्र के निवल मूल्य में गिरावट का सामना करती हैं।
  • छोटे खदानों की संख्या में वृद्धि: भारत के अधिकांश राज्यों में कई छोटी  खदानें  (गौण खनिजों की खदानों सहित) संचालित होती हैं।
    • ये छोटी खदानें सतत् विकास के लिये कठिन चुनौतियाँ प्रस्तुत करती हैं क्योंकि इनकी  वित्तीय, तकनीकी, और प्रबंधकीय सीमाएँ सुधारात्मक उपाय करने की उनकी क्षमता को सीमित करती है।
  • बढ़ती असमानता और प्राकृतिक संपदा की हानि: खनन में शामिल कोई भी कंपनी स्वाभाविक रूप से जल्दी-से-जल्दी खनन का कार्य पूरा कर आगे बढ़ना चाहती है। यह असमानता को बढ़ावा देता है, क्योंकि बगैर व्यवस्थित पुनर्वितरण के चलते कुछ ही कंपनियाँ अत्यधिक संपत्ति एकत्र करने में सफल हो जाती हैं। 
    • इससे प्राकृतिक संपदा का भी नुकसान होता है। उदाहरण के लिये वेदांता (खनन कंपनी) की वार्षिक रिपोर्ट से यह अनुमान लगाया जाता है कि मात्र आठ वर्षों (वर्ष 2004-2012) में ही गोवा राज्य ने अपनी लगभग 95% से अधिक खनिज संपदा को खो दिया है।

आगे की राह:  

  • जीवन-चक्र दृष्टिकोण: खनन चक्र के प्रत्येक स्तर (अन्वेषण, खान नियोजन, निर्माण, खनिज निष्कर्षण, खदान बंद करना और खनन कार्य पूरा होने के बाद पुनर्ग्रहण व पुनर्वास) पर संधारणीय सिद्धांतों को अपनाए जाने की आवश्यकता है। इन सिद्धांतों में शामिल घटकों में से कुछ निम्नलिखित हैं:
    • इंट्रा और इंटर-जनरेशनल इक्विटी 
    • निवारक सिद्धांत 
    • वैज्ञानिक खनन 
    • पर्यावरणीय और सामाजिक-आर्थिक प्रभावों का प्रबंधन आदि
  • फ्यूचर जनरेशन फंड की स्थापना: खनन से प्राप्त आय का लाभ भविष्य की पीढ़ियों को मिल सके इसके लिये भारत में भी नॉर्वे की तरह एक ‘फ्यूचर जनरेशन फंड’ (Future Generations Fund) का निर्माण किया जाना चाहिये, गौरतलब है कि नॉर्वे में खनिजों की बिक्री से प्राप्त आय को ‘फ्यूचर जनरेशन फंड’ में सुरक्षित रखे जाने का प्रावधान किया गया है।
    • वर्ष 2014 में  सर्वोच्च न्यायालय ने ‘गोवा खनिज अयस्क स्थायी निधि’ (Goa Iron Ore Permanent Fund) के निर्माण का आदेश देकर एक विश्व स्तरीय न्यायिक मिसाल कायम की थी। यह मॉडल सभी प्रमुख खनन क्षेत्रों में अनुकरण करने योग्य है।
  • ज़ीरो लॉस सिद्धांत का पालन: यदि हम अपनी खनिज संपदा को निकालते और बेचते हैं, तो इसके दौरान ‘शून्य हानि’  या  ‘ज़ीरो लॉस सिद्धांत’ का पालन सुनिश्चित किया जाना चाहिये।
    • राज्य को एक संरक्षक के रूप में अधिकतम राजस्व (बिक्री मूल्य में निकासी की लागत को घटाकर प्राप्त राशि, निकासी लागत में खनन करने वाले के लिये उचित लाभ को शामिल करते हुए) को एकत्र करना चाहिये।
  • लघु खनन उद्यमों का संघ: छोटी खानों के लिये संधारणीय विकास गतिविधियों के संचालन में व्याप्त सीमाओं को कम करने हेतु संबंधित क्षेत्र में लघु खनन उद्यम संघ को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
    • साथ ही उन्हें संबंधित क्षेत्रों में तकनीकी सलाहकार सेवाएँ भी उपलब्ध कराई जानी चाहिये।
  • एन्वायरमेन्टल फुटप्रिंट्स फ्रेमवर्क: एक सार्वजनिक स्थायी खनन ढाँचे का विकास किया जाना चाहिये जो कि खनन के पर्यावरणीय प्रभावों को कम करने पर केंद्रित हो।
    • खनन परिचालन की संधारणीयता का आकलन करने के लिये रणनीति विकसित की जानी चाहिये , जिसमें विभिन्न पर्यावरणीय प्रदर्शन मानकों पर खनन परिचालन को मापना, इसकी निगरानी और इसमें आवश्यक सुधार करना शामिल है।
    • खनन में पर्यावरणीय संधारणीयता का आकलन करने हेतु प्रमुख मानकों में संसाधन की खपत में दक्षता, भूमि पर पड़ने वाले प्रभाव, प्रदूषण में कमी और साथ ही खनन का कार्य पूरा होने के बाद खदानों को बंद करना और भूमि  पुनर्ग्रहण आदि शामिल हैं।
  • बहु-हितधारक दृष्टिकोण: खनन परियोजना के लिये सामाजिक-आर्थिक मूल्यांकन रिपोर्ट को एक खनन उद्यम को अनुदान और खनिज रियायत की अनुमति देने की प्रक्रिया का हिस्सा बनाया जाना चाहिये।
    • अपर्याप्त क्षमता, राजनीतिक हेरफेर और भ्रष्टाचार की समस्या से बचने के लिये सरकारी और अर्द्ध-सरकारी एजेंसियों के बजाय खनन उद्यमों (Mining enterprises) को स्थानीय सामाजिक-आर्थिक विकास कार्यों को निष्पादित करना चाहिये।

निष्कर्ष:  

चूँकि खनिज लोगों और भविष्य की पीढ़ियों के हित में सुरक्षित रखी गई साझा विरासत है,  ऐसे में यह बहुत ही आवश्यक है कि एक राष्ट्र के तौर पर हमें खनिजों को "अप्रत्याशित राजस्व" के एक स्रोत की बजाय "साझा विरासत" के रूप में देखने के लिये अपने परिप्रेक्ष्य में बदलाव लाना होगा।

Sustainable-Mining

अभ्यास प्रश्न:  “ खनिज लोगों और भविष्य की  पीढ़ियों के हित में सुरक्षित रखी साझा विरासत है।” इस कथन के संदर्भ में देश में खनन की वर्तमान स्थिति से संबंधित मुद्दों और संधारणीय खनन को अपनाए जाने की आवश्यकता पर चर्चा कीजिये।


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