अंतर्राष्ट्रीय संबंध
चीन-ईरान रणनीतिक साझेदारी: भारत की चिंताएँ
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में चीन-ईरान रणनीतिक साझेदारी व भारत की चिंताओं से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
लद्दाख से लेकर दक्षिण चीन सागर तक चीन अपनी आक्रामक विस्तारवादी नीति को लेकर कई देशों की आलोचना झेल रहा है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में अलग-थलग पड़ रहे चीन ने अब मध्य-पूर्व में ईरान के साथ अपने संबंधों को मज़बूत करना प्रारंभ कर दिया है। चीन का यह मानना है कि दोनों देशों के बीच काफी समानताएँ हैं और उनके हित भी एक-दूसरे के पूरक हैं।
विदित है कि चीन और ईरान दोनों का संयुक्त राज्य अमेरिका से टकराव चल रहा है। जहाँ चीन ऊर्जा का बड़ा बाज़ार है और आर्थिक रूप से अत्यधिक संपन्न है तो वहीं दूसरी ओर ईरान आर्थिक संकट से गुजर रहा है और ऊर्जा का बड़ा निर्यातक भी है। चीन और ईरान दोनों ही अमेरिकी प्रतिबंधों की मार झेल रहे हैं, ऐसे में दोनों देश संभावित 400 अरब डॉलर की रणनीतिक-आर्थिक साझेदारी के ज़रिये अपने संबंधों को एक नए मुकाम पर ले जाना चाहते हैं।
इस आलेख में ईरान-चीन संबंधों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, ईरान-चीन के मध्य आधुनिक कूटनीति, ईरान के प्रति अमेरिका का नकारात्मक व्यवहार, भारत के लिये ईरान का महत्त्व तथा भारत के हितों पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया जाएगा।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- ईरान और चीन के मध्य संबंध लगभग 200 ईसा पूर्व के आस-पास विकसित हुए, जब पार्थियन (Parthian) और ससानिद (Sassanid) साम्राज्य (वर्तमान ईरान और मध्य एशिया) तथा चीन के हान, तांग, सांग, युआन और मिंग राजवंशों के बीच नागरिक संपर्क स्थापित हुआ था।
- प्रथम शताब्दी में कुषाण वंश के शासक कनिष्क का शासनकाल चीन व भारत के मध्य बौद्ध सांस्कृतिक गतिविधियों के आदान-प्रदान का केंद्र बना। इस दौरान कई ईरानी अनुवादक संस्कृत सूत्रों का चीनी भाषा में अनुवाद कर रहे थे।
- 14वीं सदी के चीनी अन्वेषक झेंग हे (Zheng He) जो मिंग राजवंशीय नौसेना के जनरल थे, और एक मुस्लिम परिवार से संबंधित थे, उनके बारे में यह किंवदंती है कि वह फारसी वंश से संबंधित थे। उन्होंने अपनी सामुद्रिक यात्रा अभियानों में भारत और फारस की भी यात्राएँ की। उनके यात्रा अवशेषों में चीनी-तमिल-फारसी शिलालेख भी पाए गए थे।
- वर्ष 1289 में मंगोल सम्राट कुबलाई खान (Kublai Khan) ने बीजिंग में एक मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना की, जहाँ फारसी कार्यों का चीनी भाषा में अनुवाद किया जाता था।
- आधुनिक कूटनीतिक संबंध
- ईरान और चीन के बीच आधुनिक राजनयिक संबंध लगभग 50 वर्ष पुराने हैं। अक्तूबर 1971 में फारसी साम्राज्य के 2500 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह में चीन को भी आमंत्रित किया गया था।
- वर्ष 1979 में हुई ईरान की इस्लामिक क्रांति से पूर्व चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष नेता हुआ गुओफेंग (Hua Guofeng) ने वर्ष 1978 में शाह रजा पहलवी के शासनकाल के दौरान ईरान का दौरा किया। इसके बाद ईरान व चीन के संबंधों में एक-दूसरे के प्रति कटुता की भावना में कमी आई।
- ईरान की इस्लामिक क्रांति के बाद स्थापित नई सरकार को चीन ने शीघ्र ही मान्यता प्रदान कर दी, जिससे दोनों देशों के मध्य आपसी संबंधों में विश्वास का संचार हुआ और निकटता भी स्थापित हुई।
रणनीतिक साझेदारी के संभावित प्रावधान
- समझौते के अनुसार चीन, ईरान के तेल और गैस उद्योग में लगभग 280 अरब डॉलर का निवेश करेगा।
- चीन सरकार ईरान में उत्पादन और परिवहन के आधारभूत ढाँचे के विकास के लिये भी लगभग 120 बिलियन डॉलर का निवेश करेगी।
- चीन हाईस्पीड इंटरनेट की 5G तकनीक के लिये अवसंरचना विकसित करने में ईरान की सहायता करेगा।
- ईरान, चीन को अगले 25 वर्षों तक नियमित रूप से बेहद सस्ती दरों पर कच्चा तेल और गैस मुहैया कराएगा।
- बैंकिंग, दूरसंचार, बंदरगाह, रेलवे और कई अन्य ईरानी परियोजनाओं में चीन बड़े पैमाने पर अपनी भागीदारी बढ़ाएगा।
- ईरान में चीन द्वारा विकसित की जाने वाली परियोजनाओं की सुरक्षा हेतु चीनी सेना के 5000 सैनिकों की तैनाती का भी प्रस्ताव है।
- दोनों देश आपसी सहयोग से साझा सैन्य अभ्यास और शोध व अनुसंधान का कार्य करेंगे।
- चीन और ईरान मिलकर हथियारों का निर्माण करेंगे और एक-दूसरे से गोपनीय जानकारियाँ भी साझा करेंगे।
दोनों देशों के लिये है लाभदायक
- चीन उस ईरान का सहयोगी बन रहा है जिसकी खिलाफत संयुक्त राज्य अमेरिका, इज़राइल और सऊदी अरब जैसे शक्ति संपन्न देश कर रहे हैं। वैदेशिक मामलों के विशेषज्ञों के अनुसार, ट्रंप प्रशासन ने ईरान पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाकर उस पर जिस तरह से ‘अधिकतम दबाव’ बनाया था वो इस समझौते के कारण काफ़ी कमज़ोर पड़ जाएगा।
- आर्थिक प्रतिबंधों की वजह से ईरान में विदेशी निवेश लगभग ठप पड़ा है। ऐसे में इस आर्थिक-रणनीतिक साझेदारी के कारण ईरान में विदेशी निवेश, तकनीक और विकास को गति मिलेगी।
- इसके अलावा रक्षा मामलों में चीन की स्थिति काफी मज़बूत है, इसलिये चाहे रक्षा उत्पादों के माध्यम से हो या सामरिक क्षमता के, चीन दोनों तरह से ईरान की सहायता कर सकता है।
- वहीं दूसरी ओर कच्चे तेल के सबसे बड़े आयातक देश चीन को ईरान से बेहद सस्ती दरों पर तेल और गैस प्राप्त होगा।
- चीन के लिये ईरान इसलिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह उसकी वन बेल्ट वन रोड परियोजना को सफल बनाने में सहायक साबित हो सकता है।
ईरान के प्रति अमेरिका की नकारात्मक रणनीति
- दोनों देशों के बीच तनाव में वृद्धि सा समय हुई जब अमेरिका ने ईरान के साथ किये परमाणु समझौते (संयुक्त कार्रवाई व्यापक योजना-Joint Comprehensive Plan Of Action-JCPOA) से अपने को अलग कर लिया था।
- इस समझौते में अमेरिका के सहयोगी देशों ने शुरू में तो इसे राष्ट्रपति ट्रंप की हठधर्मिता बताते हुए अलग हटने से इनकार किया था, लेकिन बाद में विभिन्न प्रतिबंधों के मद्देनज़र अमेरिकी नीति का अनुसरण करने में ही अपनी भलाई समझी।
- ईरान यह मानता है कि अमेरिका लंबे समय से उसे परमाणु हथियार बनाने की आड़ में विवाद में फँसाकर उस पर हमला करने की तैयारी में है। ठीक ऐसा ही उसने इराक के साथ किया था, जब इराक पर जैविक हथियार बनाने का आरोप लगाकर उस पर हमला किया गया, लेकिन बाद में इराक के पास जैविक हथियार जैसा कुछ नहीं मिला।
- एक अनुमान यह भी जताया जा रहा है कि इराक की तरह ही ईरान के तेल पर भी अमेरिका कब्ज़ा करना चाहता है, लेकिन यह इसलिये संभव नहीं हो पा रहा क्योंकि ईरान के साथ रूस खड़ा है और चीन भी अमेरिका के खिलाफ है। ऐसे में ईरान पर सैन्य आक्रमण करना आसान नहीं है।
- वर्ष 2020 के प्रारंभ में अमेरिका ने ईरान की कुर्द फोर्स के प्रमुख और इरानी सेना के शीर्ष अधिकारी मेजर जनरल कासिम सुलेमानी सहित सेना के कई अन्य अधिकारियों को बगदाद हवाई अड्डे के बाहर हवाई हमले में मार गिराया था। इस घटना के बाद से ईरान व अमेरिका के मध्य तनाव अपने चरम पर दिखाई दे रहा है।
- ऐसी स्थिति में ईरान को अमेरिका के विरुद्ध एक शक्तिशाली साझेदारी की आवश्यकता थी।
भारत के लिये ईरान का महत्त्व
- भारत और ईरान के बीच सामाजिक, आर्थिक एवं व्यापारिक सहयोग का इतिहास काफी पुराना है।
- दोनों देशों का सालाना द्विपक्षीय व्यापार करीब 2 हज़ार करोड़ डॉलर है। ईरान जहाँ भारत की ऊर्जा ज़रूरतों के बड़े हिस्से को पूरा करता है, वहीं भारत द्वारा ईरान को दवा, भारी मशीनरी, कल-पुर्जे और अनाज का निर्यात किया जाता है।
- सामरिक तौर पर दोनों देश एक-दूसरे के पुराने सहयोगी हैं। अफगानिस्तान, मध्य एशिया और मध्य-पूर्व में दोनों देशों के साझा सामरिक हित भी हैं।
- ईरान की राजधानी तेहरान में दूतावास के अलावा जाहिदाद और बंदरअब्बास शहर में भारत के वाणिज्य मिशन हैं।
- भारतीय कंपनियाँ ईरान में कारोबार की बड़ी संभावनाएँ देखती हैं। ईरान के तेल रिफाइनरी, दवा फर्टिलाइज़र और निर्माण क्षेत्र में भारतीय कंपनियाँ पैसा लगा रही हैं।
- ईरान के रास्ते भारत मध्य एशिया, तज़ाकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, कज़ाखस्तान, किर्गिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, रूस और अफगानिस्तान में आसानी से दाखिल हो सकेगा।
- भारत के सहयोग से चाबहार बंदरगाह का भी विकास किया गया है। भारत के लिये चाबहार बंदरगाह का आर्थिक महत्त्व है जिसके द्वारा वह ग्वादर में होने वाली घटनाओं पर नज़र रख सकता है।
भारत पर पड़ने वाले प्रभाव
- विशेषज्ञों का मानना है कि चीन और ईरान के बीच यह समझौता भारत के लिये एक बड़ा झटका साबित हो सकता है।
- भारत, ईरान में चाबहार बंदरगाह को विकसित करना चाहता है और इस बंदरगाह को पाकिस्तान में चीन द्वारा विकसित ग्वादर बंदरगाह का प्रति उत्तर माना जा रहा था।
- चाबहार बंदरगाह भारत के लिये व्यापारिक और रणनीतिक रूप से (भारत के लिये मध्य एशिया का द्वार) भी महत्त्वपूर्ण है। ऐसे में यहाँ पर चीन की उपस्थिति भारतीय निवेश व सुरक्षा के लिये मुश्किलें पैदा कर सकती हैं।
- इस साझेदारी की वजह से भारत के लिये स्थिति अमेरिका,इज़राइल, सऊदी अरब बनाम ईरान, चीन जैसी हो सकती है। ऐसे में भारत के लिये दोनों गुटों के मध्य संतुलन स्थापित करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य होगा।
- ईरान में चीन का निवेश बढ़ने से भारतीय कामगारों का हित नकारात्मक रूप से प्रभावित हो सकता है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव भारत को प्राप्त होने वाले रेमिटेंस पर पड़ेगा।
- चीन की ईरान में उपस्थिति भारत की मध्य एशिया तक होने वाली पहुँच को बाधित कर सकती है।
- भविष्य में यदि भारत व चीन के मध्य युद्ध के हालात उत्पन्न होते हैं तो चीन, फारस की खाड़ी व होर्मुज़ की खाड़ी से भारत को होने वाली कच्चे तेल की आपूर्ति को भी प्रभावित कर सकता है।
आगे की राह
- सर्वप्रथम भारत को ईरान में चाबहार बंदरगाह को विकसित करने की दिशा में तेज़ी से कार्य करना होगा, जिससे ईरान समेत सभी खाड़ी देशों को यह संदेह जाएगा कि भारत अपनी परियोजनाओं के प्रति गंभीर एवं पूर्ण रूप से प्रतिबद्ध है।
- अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिये होने वाले निर्वाचन के उपरांत भारत को ईरान से कच्चे तेल के आयात को पुनः प्रारंभ करना चाहिये ताकि दोनों देशों के मध्य एक-दूसरे के प्रति विश्वास की कमी दूर हो सके।
- भारत को चीन के साथ अपने विवादों के समाधान के लिये शांतिपूर्ण सहस्तित्व की प्रक्रिया का अनुसरण करना चाहिये।
प्रश्न- चीन-ईरान के मध्य संभावित रणनीतिक साझेदारी के प्रमुख प्रावधानों का उल्लेख करते हुए भारत के आर्थिक व सामरिक हितों पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण कीजिये।