भारत के लिए ईरान समझौते से अमेरिका की वापसी के मायने
चर्चा में क्यों?
हाल ही में अमेरिका ने ईरान के साथ एक परमाणु समझौते से स्वयं को अलग कर लिया है। इसका कहना है कि इस समझौते में ईरान के बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम, 2025 के अलावा परमाणु गतिविधियों तथा यमन और सीरिया में जारी संघर्षों में इसकी भूमिका को शामिल नहीं किया था।
क्या है वो परमाणु समझौता जिसे अमेरिका ने रद्द कर दिया है?
- आधिकारिक तौर पर इसे संयुक्त कार्रवाई व्यापक योजना (Joint Comprehensive Plan Of Action-JCPOA) तथा अनौपचारिक रूप से ‘ईरान परमाणु समझौता’ कहा जाता है।
- वियना में 14 जुलाई, 2015 को ईरान तथा P5 (संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्य- अमेरिका, चीन, फ्रांस, रूस तथा ब्रिटेन) के साथ-साथ जर्मनी एवं यूरोपीय संघ द्वारा इस समझौते पर हस्ताक्षर किये गए थे।
- इस समझौते का उद्देश्य ईरान को परमाणु हथियार बनाने से रोकना था, जिसमें इसके परमाणु कार्यक्रमों पर रोक लगाने के बदले में तेहरान पर लगे अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों को हटाना शामिल था।
इस समझौते पर अमेरिकी कार्रवाई के खिलाफ भारत ने कैसे जवाब दिया है?
भारत इस समझौते के प्रति बहुत बड़ा समर्थक रहा है। भारत ने हमेशा यह प्रतिबद्धता जाहिर की है कि ईरान के परमाणु मसले को वार्ता तथा कूटनीति के द्वारा शांतिपूर्वक ढंग से हल किया जाना चाहिये। भारत का कहना है कि सभी पार्टियों को ईरान परमाणु समझौते से संबंधित मुद्दों को हल करने के लिये सक्रिय रूप से एक साथ आना चाहिये।
यह कथन बहुपक्षीय प्रतिबद्धताओं पर भारत की स्थिति के साथ किस प्रकार तालमेल बैठाता है?
- भारत अंतर्राष्ट्रीय नियम-आधारित कार्यविधि का एक सक्रिय समर्थक रहा है।
- ट्रंप द्वारा जून, 2017 में समझौते से अमेरिका के अलग होने की घोषणा के कुछ ही दिनों बाद भारत ने दक्षिण चीन सागर और पेरिस जलवायु समझौता, 2015 पर अपनी प्रतिबद्धता को दुहराया।
- हालाँकि, नई दिल्ली ने ट्रंप की इस घोषणा के बाद कि अमेरिका इजरायल में अपने दूतावास को यरूशलेम में स्थानांतरित करेगा और उस शहर को देश की राजधानी के रूप में पहचान देगा, पर भी अपनी स्थिति को स्पष्ट नहीं किया था।
- ईरान समझौते से अमेरिका के अलग होने पर, भारत वर्तमान में अपने दांवों को छुपा रहा है; हालाँकि, नई दिल्ली, जो हाल ही में तीन बहुपक्षीय निर्यात नियंत्रण शासनों (MTCR, वासनेर व्यवस्था, ऑस्ट्रेलिया समूह) का सदस्य बनी है, यदि परमाणु आपूर्तिकर्त्ता समूह (NSG) में भी शामिल होना चाहती है, तो JCPOA के प्रति प्रतिबद्धता की एक स्पष्ट अभिव्यक्ति से उसे यूरोपीय, विशेष रूप से फ्रांस से मदद मिलेगी।
- फ्रांस की तरह, अमेरिका भी भारत की NSG सदस्यता की दावेदारी का एक मजबूत समर्थक है।
ऊर्जा व्यापार पर भारत के लिये अनुमान क्या है?
- इराक तथा सऊदी अरब के बाद ईरान भारत के लिये तीसरा सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्त्ता है, जिसने 2017-18 के वित्तीय वर्ष में भारत को प्रथम 10 माह (अप्रैल, 2017 से जनवरी 2018 तक) में 18.4 मिलियन टन कच्चे तेल की आपूर्ति की।
- 2010-11 तक ईरान भारत के लिये दूसरा सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्त्ता था, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों के कारण यह एक स्थान नीचे आ गया।
- 2013-14 तथा 2014-15 में भारत ने ईरान से क्रमशः 11 मिलियन टन तथा 10.95 मिलियन टन तेल खरीदा। उसके आगे आने वाले साल में यह बढ़कर 12.7 मिलियन टन तथा 2016-17 में बढ़कर 27.2 मिलियन टन हो गया।
क्या ईरान के चाबहार में भारत द्वारा किये जाने वाले रणनीतिक निवेश को कोई खतरा है?
- यह भारत के लिये वित्तीय तथा रणनीतिक दोनों प्रकार का निवेश है।
- पिछले तीन सालों में चाबहार पर भारत तथा ईरान के बीच के संबंधों में तेजी आई है तथा यह कार्य जुलाई तक पूरा होने और भारतीय अधिकारियों को सौंपे जाने की संभावना है।
- हालाँकि, यह निर्धारित तिथि दबाव में आ सकती है (शायद साल के अंत तक इसको बढ़ाया जा सकता है) यदि अमेरिकी स्वीकृति चाबहार में आधारभूत संरचना के विकास पर प्रहार करती है।
- यदि इस समझौते के अन्य हस्ताक्षरकर्त्ता इस पर कायम रहते हैं तो भारत के पास अन्य विकल्प भी मौजूद हैं । यदि चाबहार परियोजना धीमी होती है तो इसके परिणामस्वरूप ट्रंप प्रशासन के निवेदन पर शुरू की गई अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण प्रक्रिया में भारत द्वारा दी जाने वाली 1 बिलियन डॉलर की सहायता तथा 100 छोटी परियोजनाओं पर किया जाने वाला कार्य भी प्रभावित होगा।
- चाबहार भारत के हित के लिये महत्त्वपूर्ण होने के साथ-साथ इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ईरान चीन जैसे अन्य देशों जो कि पहले से ही पाकिस्तान में ग्वादर बंदरगाह का विकास कर रहा है, को भी यह बंदरगाह प्रस्तावित कर रहा है।
पश्चिम एशिया में विशेष रूप से भारतीय दृष्टिकोण से क्या प्रभाव हो सकता है?
ईरान को लक्षित करने के लिये ट्रंप की चाल और इसके क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वियों सऊदी अरब और इज़राइल के साथ, इस क्षेत्र को अस्थिर कर सकती है, जहाँ 8 मिलियन से अधिक भारतीय प्रवासी रहते हैं और काम करते हैं। पश्चिम एशिया में सैन्य तनाव ने अतीत में भी भारत को अपने नागरिकों को वहाँ से हटाने के लिये विवश किया है; हालाँकि ऐसा करने के लिये नई दिल्ली की क्षमता सीमित है।
ट्रंप के इस कदम के भारत-अमेरिका संबंधों के लिये क्या मायने हैं?
- ट्रंप के अनुसार यह संबंध यह केवल लेन-देन वाला रहा है। अमेरिका पाकिस्तान के प्रति सख्त रहा है, लेकिन इसने भारत को चीन पर नजर रखने के साथ-साथ हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सक्रिय रहने के लिए कहता रहा है।
- हालाँकि, इन दोनों स्थितियों में हितों की ही पूर्णता रही है, भारतीय प्रतिष्ठान हिंद-प्रशांत रणनीति के प्रति अधिक प्रतिबद्ध रहा है।
- इसके अलावा रूस के साथ अपने संबंधों के चलते भारत और अमेरिका के बीच दूरियाँ बढ़ी हैं- नई दिल्ली इन असहमतियों के प्रति सजग है तथा ईरान रणनीति विश्व के सबसे बड़ी तथा प्राचीन लोकतंत्र के बीच इस "रणनीतिक साझेदारी" की स्थिरता का परीक्षण करेगा।
भारत-ईरान संबंध का भविष्य कैसा होगा?
- इन दोनों देशों के बीच अपने संबंधों को स्थिर तथा मजबूत बनाए रखने के लिये रणनीतिक महत्त्व है तथा प्रतिबंधों के बावजूद वे इन संबंधों को बनाए रखना चाहेंगे।
- कई विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार को रुपया-रियाल व्यापार प्रक्रिया तथा दोनों देशों के बीच धन के प्रवाह तथा आय को बनाए रखने के लिये भारत में ईरानी बैंकों की स्थापना जैसे विकल्पों की तरफ ध्यान देना चाहिये।
- वर्तमान संकट नई दिल्ली तथा तेहरान को भविष्य में भी ऐसी परिस्थितियों का सामना करने के उद्देश्य से योजना बनाने के लिये विवश कर सकता है।