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एडिटोरियल

  • 17 May, 2023
  • 17 min read
भारतीय राजनीति

डिफॉल्ट ज़मानत का अधिकार

यह एडिटोरियल 16/05/2023 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित ‘‘A Court recall that impacts the rights of the accused’’ लेख पर आधारित है। इसमें डिफॉल्ट ज़मानत पर सर्वोच्च न्यायालय के हाल के निर्णय और इससे संबद्ध अन्य मुद्दों के बारे में चर्चा की गई है।

प्रिलिम्स के लिये:

डिफॉल्ट ज़मानत, सर्वोच्च न्यायलय, आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 167, अनुच्छेद 21, मूल अधिकार

मेन्स के लिये:

डिफॉल्ट ज़मानत और संबंधित प्रावधान, पक्ष और विपक्ष में तर्क, आगे की राह 

ज़मानत (Bail) किसी ऐसे व्यक्ति की अस्थायी रिहाई को संदर्भित करता है जिसे गिरफ्तार किया गया है या उसे किसी अपराध के लिये आरोपित किया गया है और उस पर विचारण (Trial) या न्यायालय के समक्ष उसकी उपस्थिति लंबित है।

केंद्रीय अन्वेषण एजेंसियों द्वारा आरोप-पत्र (चार्जशीट) दाखिल करने में ‘कठिनाइयों का सामना करने’ संबंधी आग्रह पर विचार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने हाल के एक निर्णय में निचली अदालतों को निर्देश दिया कि वे रितु छाबड़िया बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को आधार बनाए बिना, अर्थात् स्वतंत्र रूप से, लंबित डिफॉल्ट ज़मानत आवेदनों पर निर्णय ले सकते हैं।   

यह निर्णय चिंताजनक है क्योंकि:

  • यह डिफॉल्ट ज़मानत के अधिकार को कमज़ोर कर सकता है।
  • आरोपी के संवैधानिक अधिकारों पर अन्वेषण अधिकारियों की आवश्यकताओं को प्राथमिकता दी जा सकती है।
  • निर्णय का अभियुक्तों के संवैधानिक अधिकारों पर गंभीर प्रभाव पड़ सकते हैं।
  • प्रशासनिक सुविधा के लिये प्रक्रियात्मक वैधता (Procedural Legitimacy) का त्याग नहीं किया जाना चाहिये।

डिफॉल्ट ज़मानत क्या है?

  • व्यतिक्रम ज़मानत या डिफॉल्ट ज़मानत (Default Bail) उस परिदृश्य में अर्जित ज़मानत का अधिकार है जब पुलिस न्यायिक हिरासत में रखे गए किसी व्यक्ति के संबंध में एक निर्दिष्ट अवधि के भीतर जाँच पूरी करने में विफल रहती है।
    • इसे सांविधिक ज़मानत (Statutory Bail) के रूप में भी जाना जाता है।
  • दंड प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure- CrPC) की धारा 167(2) में इसे प्रतिष्ठापित किया गया है।
  • संहिता की धारा 167 (1) के अनुसार, यदि प्रतीत हो कि 24 घंटे की अवधि के अंदर अन्वेषण पूरा नहीं किया जा सकता है तो पुलिस द्वारा संदिग्ध व्यक्ति को निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करने और पुलिस या न्यायिक हिरासत के लिये आदेश प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। 
  • धारा 167(2) के तहत, मजिस्ट्रेट अभियुक्त को 15 दिनों तक पुलिस हिरासत में रखने का आदेश दे सकता है।15 दिनों की पुलिस हिरासत अवधि से आगे के लिये मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्त को न्यायिक हिरासत में निरुद्ध करने के लिये प्राधिकृत किया जा सकता है, जहाँ अभियुक्त को निम्नलिखित अवधि से अधिक के लिये निरुद्ध नहीं किया जा सकता
    • 90 दिन से अधिक की अवधि के लिये, जहाँ अन्वेषण ऐसे अपराध के संबंध में है जो मृत्यु, आजीवन कारावास या 10 वर्ष से अन्यून की अवधि के लिये कारावास से दंडनीय है
    • 60 दिन से अधिक की अवधि के लिये जहाँ अन्वेषण किसी अन्य अपराध की जांच करने के संबंध में है
    • नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सबस्टेंस एक्ट जैसे कुछ विशेष कानूनों के मामले में यह अवधि भिन्न हो सकती है
      • नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सबस्टेंस एक्ट में यह अवधि 180 दिन है।
  • यदि इस अवधि के अंत तक जाँच पूरी नहीं होती है तो न्यायालय उस व्यक्ति को रिहा कर देगी ‘‘यदि वह ज़मानत के लिये तैयार है और इसे प्रस्तुत करता है।’’ इसे डिफॉल्ट ज़मानत के रूप में जाना जाता है।

रितु छाबड़िया केस

  • रितु छाबड़िया मामले के निर्णय में न्यायालय ने कहा कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 167 (2) के तहत डिफॉल्ट ज़मानत का अधिकार केवल एक सांविधिक अधिकार नहीं है, बल्कि एक मूल अधिकार है जो अभियुक्तों की ‘राज्य की अबाध और मनमानी शक्ति’ से रक्षा के लिये संविधान के अनुच्छेद 21 से शक्ति प्राप्त करता है।’’
  • रितु छाबरिया मामले में न्यायालय ने निर्णय दिया कि जाँच पूरी किये बिना जाँच एजेंसी द्वारा दायर किया गया अपूर्ण आरोप-पत्र अभियुक्त के डिफॉल्ट ज़मानत के अधिकार को पराजित नहीं करेगा।
    • इस मामले में देखा गया कि जाँच अधिकारियों द्वारा नियमित रूप से 60/90-दिन की अवधि के भीतर अपूर्ण या पूरक आरोप-पत्र दायर किया गया ताकि अभियुक्त को डिफॉल्ट ज़मानत की मांग करने से अवरुद्ध किया जा सके।

डिफॉल्ट ज़मानत से संबंधित अन्य मामले 

  • सीबीआई बनाम अनुपम जे. कुलकर्णी (1992):
    • सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि मजिस्ट्रेट अभियुक्त की गिरफ्तारी के बाद अधिकतम 15 दिनों के लिये पुलिस हिरासत को प्राधिकृत कर सकता है। इस अवधि के बाद, कोई और निरोध न्यायिक हिरासत के रूप में होनी चाहिये, उन मामलों को छोड़कर जहाँ वही अभियुक्त किसी अन्य घटना या संव्यवहार से उत्पन्न एक अलग मामले में आरोपित बनाया जाता है। ऐसी स्थितियों में मजिस्ट्रेट पुलिस हिरासत को फिर से प्राधिकृत करने पर विचार कर सकता है।
  • उदय मोहनलाल आचार्य बनाम महाराष्ट्र राज्य (2001):
    • संजय दत्त बनाम महाराष्ट्र राज्य के निर्णय को आधार लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अभियुक्त द्वारा डिफॉल्ट ज़मानत के अपने अधिकार का उपयोग करना तब माना जाएगा जब उसने उसने इसके लिये ही आवेदन किया हो, न कि उसे जहाँ उसे डिफॉल्ट ज़मानत पर रिहा कर दिया गया है।
    • यदि अभियुक्त के पक्ष में डिफॉल्ट ज़मानत का आदेश पारित किया जाता है , लेकिन वह ज़मानत देने में विफल रहता है और इस बीच आरोप-पत्र दायर कर दिया जाता है तो डिफॉल्ट ज़मानत का उसका अधिकार समाप्त हो जाएगा।
  • अचपाल बनाम राजस्थान राज्य (2018):
    • सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि कोई जाँच रिपोर्ट, भले ही पूर्ण हो, यदि यह एक अनधिकृत जाँच अधिकारी द्वारा दायर की जाती है तो अभियुक्त को डिफॉल्ट ज़मानत का लाभ उठाने से अवरुद्ध नहीं किया जा सकता है।
  • जसबीर सिंह बनाम राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण (2023):
    • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि कोई अभियुक्त इस आधार पर डिफॉल्ट ज़मानत मांगने का हक़दार नहीं है कि आरोप-पत्र (यद्यपि वह अपेक्षित अवधि के भीतर दायर किया गया हो) दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत मंज़ूरी की कमी के कारण ‘अपूर्ण’ बना हुआ है। 

डिफॉल्ट ज़मानत के पक्ष में तर्क 

  • निर्दोषता की धारणा: डिफॉल्ट ज़मानत ‘दोषी सिद्ध होने तक निर्दोष’ (innocent until proven guilty) के मौलिक सिद्धांत को अक्षुण्ण रखती है। यह सुनिश्चित करती है कि जिन व्यक्तियों पर अपराध का आरोप लगाया गया है, लेकिन उन्हें दोषी नहीं ठहराया गया है, उन्हें अनिश्चितकालीन पूर्व-विचारण निरोध के अधीन नहीं रखा जा सकता।
  • नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा: डिफॉल्ट ज़मानत नागरिक स्वतंत्रता और व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करती है। यह सुनिश्चित करती है कि पर्याप्त साक्ष्य और एक औपचारिक विचारण के बिना लोगों को उनकी स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाए; इस प्रकार, निष्पक्षता एवं न्याय के सिद्धांतों का प्रसार करती है।
  • पुनर्वास और स्थापन को बढ़ावा देना: डिफॉल्ट ज़मानत अभियुक्तों को पुनर्वास और स्थापन के लिये अपने समुदायों में बने रहने में मदद करती है, जहाँ वे कार्य करने और अपने परिवारों का पोषण करने से संलग्न होते हैं; इस प्रकार, दोषी नहीं पाए जाने पर उनके सफल पुनर्स्थापन की संभावना बढ़ जाती है।
  • शक्ति के दुरुपयोग पर अंकुश: डिफॉल्ट ज़मानत जाँच एजेंसियों द्वारा शक्ति के संभावित दुरुपयोग के विरुद्ध सुरक्षा के रूप में कार्य करती है। यह अधिकारियों को साक्ष्य पेश किये बिना और उपयुक्त अवधि के भीतर आरोप तय किये बिना अनुपयुक्त तरीके से व्यक्तियों को हिरासत में रखने से रोकती है।
  • निरोध और स्वतंत्रता में संतुलन: डिफॉल्ट ज़मानत संभावित फ़रारी जोखिमों को रोकने की आवश्यकता और किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के संरक्षण के बीच संतुलन का निर्माण करती है। यह न्यायायलय को अभियोजन पक्ष द्वारा निर्धारित समयसीमा के भीतर साक्ष्य पेश कर सकने की क्षमता के आधार पर निरंतर निरोध में रखने की आवश्यकता का आकलन कर सकने का अवसर देती है।
  • जेलों में भीड़भाड़ को कम करना: डिफॉल्ट ज़मानत यह सुनिश्चित करके जेल की भीड़भाड़ को कम करने में मदद करती है कि जिन व्यक्तियों पर तुरंत आरोपपत्र दाखिल नहीं किया गया है या जिन पर मामले कमज़ोर हैं, उन्हें अनावश्यक रूप से हिरासत में नहीं रखा जाए। यह जेल संसाधनों के अधिक कुशल उपयोग में योगदान देती है।

डिफॉल्ट ज़मानत के विपक्ष में तर्क

  • संभावित रूप से खतरनाक व्यक्तियों को ज़मानत देने का जोखिम: जब अभियोजन पक्ष निर्धारित समय अवधि के भीतर आरोप दाखिल करने में विफल रहता है तो डिफॉल्ट ज़मानत दी जाती है। ऐसे मामलों में स्वत: ज़मानत देना जोखिम उत्पन्न कर सकता है यदि अभियुक्त संभावित रूप से खतरनाक व्यक्ति है या समाज के लिये खतरा है। यह सार्वजनिक सुरक्षा को कमज़ोर कर सकता है और प्रभावी कानून प्रवर्तन में बाधा डाल सकता है।
  • जाँच प्रक्रिया को कमज़ोर करना: स्वत: ज़मानत प्रावधान संभावित रूप से जाँच प्रक्रिया को कमज़ोर कर सकते हैं। यदि अभियुक्त को आरोप दायर किये बिना डिफॉल्ट ज़मानत पर रिहा कर दिया जाता है तो यह स्थिति साक्ष्य इकट्ठा करने में बाधा उत्पन्न सकती है या एक मज़बूत मामला बनाने की अभियोजन पक्ष की क्षमता को बाधित कर सकती है। इससे न्याय मिलना कठिन हो सकता है और मामलों के निष्पक्ष समाधान में बाधा आ सकती है।
  • जवाबदेही और सार्वजनिक धारणा: इससे यह भ्रम उत्पन्न हो सकता कि अभियुक्त उचित प्रक्रिया का सामना किये बिना या अपने कथित अपराधों के लिये जवाबदेह ठहराए बिना छूट रहे हैं।
  • पीड़ितों के अधिकारों को कमज़ोर करना: स्वत: ज़मानत देने से पीड़ितों के समयबद्ध न्याय पाने के अधिकार बाधित हो सकते हैं और मामले में शामिल विभिन्न पक्षों के प्रति व्यवहार में अन्याय या असमानता की भावना उत्पन्न हो सकती है।

आगे की राह

  • समयसीमा की समीक्षा और परिशोधन: गहन जाँच सुनिश्चित करने और अनावश्यक देरी से बचने के लिये मामले की जटिलता के आधार पर आरोप दाखिल करने की मौजूदा समयसीमा की समीक्षा और परिशोधन की आवश्यकता है।
  • न्यायिक विवेक को संलग्न करना: न्यायपालिका को सार्वजनिक सुरक्षा के लिये जोखिम पैदा करने वाले या जाँच प्रक्रिया में बाधा डालने वाले मामलों में डिफॉल्ट ज़मानत से इनकार करने का विवेक प्रदान करने से न्यायाधीशों को व्यक्तिगत परिस्थितियों के आधार पर सूचना-संपन्न निर्णय लेने का अवसर मिल सकता है।
  • संवीक्षा और शर्तों की वृद्धि करना: कड़ी संवीक्षा लागू करने और डिफॉल्ट ज़मानत देने के लिये उपयुक्त शर्तें लागू करने (जैसे कि सख्त रिपोर्टिंग आवश्यकताएँ) की आवश्यकता है।
  • कानूनी कार्यवाही में तेज़ी लाना: अवसंरचना में निवेश, जाँच क्षमताओं की वृद्धि, न्यायाधीशों एवं न्यायालय कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने और केस प्रबंधन तकनीकों को लागू करने के माध्यम से कानूनी कार्यवाही में तेज़ी लाई जाए।
  • पीड़ित-केंद्रित दृष्टिकोण का पालन करना: मामले की प्रगति के बारे में समयबद्ध सूचना प्रदान करके पीड़ितों के अधिकारों एवं हितों को चिह्नित किया जाए और एक संतुलित दृष्टिकोण सुनिश्चित करने के लिये, जहाँ भी उपयुक्त हो, उन्हें ज़मानत निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल किया जाए।

अभ्यास प्रश्न: हाल की प्रगतियों के आलोक में, भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में डिफॉल्ट ज़मानत की अवधारणा की चर्चा करें। अभियुक्तों के अधिकारों की रक्षा करने और शीघ्र न्याय सुनिश्चित करने में इसके महत्त्व का परीक्षण करें।

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. भारत के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)

  1. न्यायिक हिरासत का अर्थ है कि एक आरोपी संबंधित मजिस्ट्रेट की हिरासत में है और ऐसे आरोपी को पुलिस थाने में बंद कर दिया गया है, जेल में नहीं। 
  2. न्यायिक हिरासत के दौरान मामले के प्रभारी पुलिस अधिकारी को अदालत की मंज़ूरी के बिना संदिग्ध से पूछताछ करने की अनुमति नहीं है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: B


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