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एडिटोरियल

  • 16 Jul, 2019
  • 16 min read
अंतर्राष्ट्रीय संबंध

ईरान पर प्रतिबंध तथा भारत के लिये चाबहार का महत्त्व

इस Editorial में The Hindu, Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण शामिल हैं। इस आलेख में ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण भारत की चाबहार परियोजना पर पड़ने वाले प्रभावों की चर्चा की गई है तथा आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

अमेरिका ने भारत को अस्थायी रूप से ईरान से तेल आयात करने की छूट दी थी, यह छूट छह माह के लिये दी गई थी और कुछ समय पूर्व इस छूट की समय-सीमा समाप्त हो गई भारत ने भी अमेरिका के अनुरूप ईरान से तेल आयात घटाकर शून्य तक करने की घोषणा कर दी है किंतु यह घोषणा भारत के पेट्रोलियम मंत्रालय के बजाय अमेरिका में स्थित भारतीय राजदूत द्वारा की गई। इस घोषणा के पश्चात् भारत के दौरे पर आए अमेरिकी विदेश सचिव ने भारत की सराहना की किंतु भारत की संसद में सरकार ने अपने राजदूत से इतर दावे किये हैं। भारत के इन दोहरे बयानों ने अमेरिका-ईरान के मध्य तनावों में भारतीय विदेश नीति की जटिलता को उजागर किया है।

chabahar port

पिछले कुछ वर्षों से भारत-ईरान संबंध महज़ तेल की खरीद तक सीमित नहीं रह गया है। ईरान के समुद्री बंदरगाह चाबहार में भारत के वित्तीय निवेश व कूटनीतिक प्रयासों ने उसे अपने विरोधी पाकिस्तान को दरकिनार करने का अवसर दिया है जो अफगानिस्तान तक भारत के भूमि मार्ग संपर्क को अवरुद्ध करता रहा है। शंघाई सहयोग संगठन (SCO) की सदस्यता के साथ भारत की नई मध्य एशियाई नीति में इस बंदरगाह ने एक आधार की भूमिका भी धारण कर ली है। भारत इस बंदरगाह के माध्यम से अफ़ग़ानिस्तान के साथ व्यापार को पुनर्जीवित करना चाहता है। पाकिस्तान द्वारा भारत को ट्रांज़िट रूट न देने से भारत-अफ़ग़ानिस्तान के मध्य व्यापार में न्यूनता की स्थिति बनी हुई है किंतु भारत की ईरान नीति अमेरिका के हितों से प्रभावित हो रही है, इस कारण अफ़ग़ानिस्तान तथा सेंट्रल एशिया में भारत के राजनीतिक तथा आर्थिक हित प्रभावित हो सकते हैं।

जटिल समीकरण

वर्ष 2016 में भारतीय प्रधानमंत्री की तेहरान यात्रा के दौरान चाबहार को केंद्र में रखते हुए भारत, ईरान और अफगानिस्तान के बीच संपन्न संपर्क समझौते के बावज़ूद अब तक प्रगति की गति अत्यंत धीमी रही है। चीन द्वारा वित्तपोषित पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह से 70 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित चाबहार के भारत द्वारा अधिग्रहण का प्रचार तो बहुत हुआ लेकिन कुछ वर्ष पहले तक ज़मीनी स्तर पर काम बहुत कम हुआ था।

वर्ष 2018 में चाबहार के शाहिद बेहेस्ती बंदरगाह का अधिकार भारत को सौंप दिया गया और अपेक्षा की गई कि भारत इस अधिकार का उपयोग अपने आर्थिक हितों की पूर्ति करने के लिये कर सकेगा। होर्मुज के अस्थिर जलडमरूमध्य से सुरक्षित दूरी पर स्थित चाबहार बंदरगाह पर मालवाहक जहाज़ों की आवाज़ाही तो बढ़ी है लेकिन संयुक्त व्यापक कार्ययोजना (JCPOA) से अमेरिका के बाहर निकलने और विशेष रूप से भारत को प्राप्त अमेरिकी छूट की मई माह में समाप्ति से चाबहार से संबद्ध भारतीय आकांक्षाओं को धक्का लगा है।

चाबहार परियोजना को कार्यान्वित कर रहा भारतीय संयुक्त उद्यम ‘इंडिया पोर्ट्स ग्लोबल’ हार्डवेयर की आपूर्ति के लिये यूरोपीय कंपनी को भुगतान करने में विफल रहा है। इसने बंदरगाह के प्रबंधन के लिये एक एजेंसी की अपनी तलाश को भी छोड़ दिया है। अल्पावधि में चाबहार बंदरगाह के प्रबंधन के प्रति भारत की बदलती नीति की पुष्टि वर्ष 2019-20 के बजटीय आवंटन से भी होती है जिसे 150 करोड़ रूपए से घटाकर 50 करोड़ रूपए कर दिया गया है।

पहले से संकट से जूझ रहा ईरान अमेरिकी दबाव के कारण बदली भारतीय नीति की वज़ह से और भी निराश हुआ है। तेहरान की अपेक्षा थी कि भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता का उपयोग करते हुए मज़बूती से खड़ा रहेगा, लेकिन नई दिल्ली ने न तो अमेरिकी शत्रुता मोल लेना उचित समझा, न ही उन देशों (सऊदी अरब व इज़राइल) का विरोध किया जो परमाणु महत्त्वाकांक्षा के लिये ईरान को दंडित करने की मंशा रखते हैं।

ईरान के प्रति भारतीय रुचि को अपने रणनीतिक हितों के लिये हानिकारक मानते हुए सऊदी अरब यह दृष्टिकोण रखता है कि भारत, ईरान में अपने ‘काल्पनिक हितों’ को सऊदी अरब व खाड़ी देशों में निहित उसके वास्तविक हितों, जहाँ हजारों भारतीय आजीविका पा रहे हैं और धन विप्रेषित करते हैं, से अनावश्यक अधिक महत्त्व देता रहा है। सऊदी अरब के रणनीतिकार प्रायः यह प्रश्न पूछते हैं कि ईरान में कितने भारतीय आजीविका पाते हैं। निस्संदेह, ईरान में भारतीयों की उपस्थिति नगण्य है लेकिन सिस्तान-बलूचिस्तान प्रांत में स्थित चाबहार बंदरगाह में निवेश का भारतीय निर्णय इसी एक बिंदु पर आधारित नहीं है।

चाबहार परियोजना को लेकर सऊदी अरब अपने असंतोष की अभिव्यक्ति करता रहा है। वर्ष 2016 में प्रकाशित पत्र जिसका शीर्षक ‘चाबहार एवं ग्वादर समझौते तथा बलूचिस्तान क्षेत्र में प्रतिस्पर्द्धियों के बीच प्रतिद्वंद्विता’ (Chabahar and Gwadar Agreements, and Rivalry among Competitors in Baluchistan Region) में सऊदी अरब ने स्पष्ट रूप से अपना दृष्टिकोण प्रकट किया।

चीन और रूस के प्रतिस्पर्द्धी सुझावों की अनदेखी करते हुए चाबहार बंदरगाह परियोजना में एक भागीदार के रूप में भारत को शामिल करने की व्यापक आर्थिक संभावनाओं व विदेश नीति पर पड़ने वाले प्रभाव को समझते हुए ईरान ने भारतीय महत्त्वाकांक्षा का पक्ष-समर्थन किया जहाँ पाकिस्तान को दरकिनार करते हुए भारत, अफगानिस्तान व मध्य एशिया तक पहुँच हेतु भूमि-मार्ग तलाश रहा था। ईरान का अनुमान था कि इस परियोजना के लिये भारत को अमेरिकी समर्थन भी प्राप्त होगा क्योंकि इससे पाकिस्तान के कराची बंदरगाह पर अफगानिस्तान की निर्भरता कम होगी। इस प्रकार अमेरिका द्वारा पुनः प्रतिबंध लगाने अथवा होर्मुज़ जलडमरूमध्य में बाधा की स्थिति में चाबहार ईरान को विश्व के साथ व्यापार हेतु मुक्त और बाधा रहित बंदरगाह प्रदान करेगा।

शंघाई सहयोग संगठन (SCO) और ब्रिक्स (BRICS) में भारत की सदस्यता ने नई दिल्ली को अवसर प्रदान किया कि वह रूस एवं अन्य सदस्य देशों के साथ निकट संबंध बनाकर मध्य एशिया में अपनी स्थिति को मज़बूत कर सके। ईरान के रास्ते इस संपर्क विस्तार में वृद्धि के बाद वर्तमान व्यापार (2 बिलियन डॉलर) में व्यापक वृद्धि का भी वादा किया गया है।

अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण गलियारा

(International North-South Corridor INSTC)

रेल, सड़क और समुद्री परिवहन वाले 7200 किलोमीटर लंबे अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन कॉरिडोर पर भारत, रूस और ईरान ने वर्ष 2000 में सहमति जताई थी। यह कॉरिडोर हिंद महासागर और फारस की खाड़ी को ईरान के ज़रिये कैस्पियन सागर से जोड़ेगा और फिर रूस से होते हुए उत्तरी यूरोप तक पहुँच बनाएगा। इसके तहत ईरान, अज़रबैजान और रूस के रेल मार्ग भी जुड़ जाएंगे। इस कॉरिडोर के शुरू होने से रूस, ईरान, मध्य एशिया, भारत और यूरोप के बीच व्यापार को बढ़ावा मिलेगा और वस्तुओं की आवाज़ाही में समय एवं लागत की बचत होगी।

Internation north-south

बीआरआई को चुनौती

मध्य एशिया में व्यापारिक क्षमता के संबंध में चीन ने एक मिसाल कायम की है। उसका कुल व्यापार 50 बिलियन डॉलर का है और ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ (BRI) के कारण इसमें वृद्धि हो रही है। रूस के साथ यह व्यापार लगभग 100 बिलियन डॉलर का है। चाबहार में एक नए समुद्री बंदरगाह की संभावना को लेकर मध्य एशिया के सभी स्थलरुद्ध देश उत्साहित थे। ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध से उत्पन्न भुगतान समस्याओं से मुक्त रहते हुए जब यह बंदरगाह पूर्ण रूप से सक्रिय हो जाएगा तो यह भारत व जापान द्वारा विकसित नए प्रवेश मार्गों से चीन के बीआरआई को चुनौती दे सकता है।

अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में सहायता प्रदान करने से उद्देश्य से जब नवंबर 2018 में आरोपित अमेरिकी प्रतिबंधों से चाबहार को मुक्त रखा गया तो यह अनुमान भी लगाया गया कि अमेरिका, अफगानिस्तान में अपनी सैन्य उपस्थिति के कारण भी इस बंदरगाह का उपयोग करना चाहता है। कुछ राजनयिक सूत्रों द्वारा यह आरोप भी लगाया गया कि चाबहार के माध्यम से अफगानिस्तान को भेजी गई पहली भारतीय खेप में अमेरिकी सैन्य बलों के लिये सैन्य सामग्री की आपूर्ति भी शामिल थी।

यद्यपि दक्षिण ईरान में अवस्थित इस बंदरगाह को प्रतिबंधों से मुक्त रखा गया है, यहाँ कारोबार कर रही कंपनियों की शिकायत है कि उनकी परियोजनाओं के लिये स्विफ्ट प्रणाली (Swift system) के माध्यम से धन का हस्तांतरण करना लगभग असंभव हो गया है। अमेरिकी सरकार ने स्पष्ट निर्दिष्ट नहीं किया है कि बंदरगाह के मुक्त क्षेत्र में (जहाँ 160 से अधिक अफगान कंपनियाँ भी पंजीकृत हैं) कारोबार कर रही कंपनियों को प्रतिबंध से छूट का लाभ कैसे प्राप्त होगा।

भारत एवं अन्य देश चाबहार से जुड़ी चुनौतियों से ईरान को अवगत करा चुके हैं किंतु ईरान इन देशों की समस्याओं को गैर-वाजिव मानता है। हिंसा और अराजकता के कारण जब ग्वादर बंदरगाह पर चीन की निजी कंपनियों ने अपना कारोबार समेटना शुरू किया तो इस बंदरगाह के प्रति चीन की राष्ट्रीय प्रतिबद्धता को बनाए रखने के लिये चीन सरकार ने अपने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को वहाँ संलग्न किया। भारत ने ऐसे किसी संकल्प का व्यक्त नहीं किया है।

निष्कर्ष

अमेरिका पिछले कुछ वर्षों में भारत का मज़बूत साझीदार बनकर उभरा है, साथ ही पश्चिम एशिया तथा इज़राइल में भारत के आर्थिक तथा सामरिक हित निहित हैं। किंतु भारत के लिये ईरान का अपना महत्त्व है, चाबहार से न सिर्फ भारत, पाकिस्तान के ग्वादर को संतुलित कर सकता है बल्कि यह अफ़ग़ानिस्तान से व्यापार को बढ़ाने की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त भारत सेंट्रल एशिया के देशों तक निर्बाध पहुँच बनाना चाहता है जो इस बंदरगाह से संभव हो सकती है। साथ ही इससे चीन के बेल्ट एंड रोड पहल को भी भारत संतुलित कर सकता है। उपर्युक्त स्थिति में भारत के लिये ईरान महत्त्वपूर्ण है। भारत का यह विचार कि अमेरिका में वर्ष 2020 में ट्रंप प्रशासन के बदलने के बाद वर्तमान स्थिति में परिवर्तन आएगा तो यह विचार भ्रामक हो सकता है। यदि ट्रंप प्रशासन की दोबारा वापसी होती है तब भारत को अपने हितों को ध्यान में रखते हुए कठिन किंतु आवश्यक निर्णय लेने होंगे क्योंकि एक ओर जहाँ अमेरिकी हितों से परिचालित नीति होगी और इस नीति के साथ मौज़ूदा परिस्थिति को ध्यान में रखकर भारत को अपने हितों को पूर्ण करना कठिन होगा। तो वहीं दूसरी ओर, तेज़ी से उभर रहा रूस-चीन गठजोड़ होगा जिसमें ईरान भी शामिल होने का प्रयास कर रहा है। निकट अतीत में भारत के लिये चीन भी कई प्रकार की चुनौतियाँ पेश करता रहा है, ऐसे में भारत के लिये अपने हितों से परिचालित विदेश नीति को क्रियान्वित करना जटिल हो सकता है। भारत को मौज़ूदा परिस्थितियों को समझते हुए अपनी नीति में संतुलन स्थापित करने की आवश्यकता है। यह नीति भारत की स्वायत्तता पर आधारित हो सकती है। इसके आधार पर भारत अपने हितों को ध्यान में रखकर अपनी विदेश नीति का संचालन कर सकता है तथा यह नीति अमेरिका और ईरान को संतुलित करने वाली होनी चाहिये।

प्रश्न: ईरान की अवस्थिति भारत के लिये मध्य एशिया में प्रवेश-द्वार की भूमिका निभा सकती है। भारत की इस आकांक्षा को सफल बनाने में चाबहार की महती भूमिका है, इस कथन के आलोक में भारत के लिये ईरान के महत्त्व का विश्लेषण कीजिये।


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