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एडिटोरियल

  • 15 Oct, 2022
  • 14 min read
भारतीय राजव्यवस्था

न्यायिक तंत्र के भीतर न्याय

यह एडिटोरियल 08/10/2022 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “Debate over the collegium system: How are SC and HC judges appointed?” लेख पर आधारित है। इसमें भारत में न्यायिक नियुक्ति के लिये कॉलेजियम प्रणाली और इससे संबंधित मुद्दों के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

कॉलेजियम प्रणाली (Collegium system) वह विधि है जिसके माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रक्रिया संपन्न की जाती है। कॉलेजियम प्रणाली का प्रावधान संविधान में नहीं किया गया है, न ही इसकी उत्पत्ति संसद द्वारा प्रख्यापित किसी विशिष्ट कानून से हुई है, बल्कि यह सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न निर्णयों के माध्यम से समय के साथ विकसित हुई है।

  • न्यायिक नियुक्ति में सुधार के लिये संसद ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (National Judicial Appointment Commission- NJAC) का गठन किया था और 99वाँ संविधान (संशोधन) अधिनियम लेकर आई थी, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने आयोग और संशोधन अधिनियम को असंवैधानिक बताते हुए इसे निरस्त कर दिया।
  • तब से उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं स्थानांतरण की कॉलेजियम प्रणाली पर बहस चलती रही है और इसे न्यायपालिका एवं कार्यपालिका के बीच संघर्ष के साथ-साथ न्यायिक नियुक्तियों की धीमी गति के लिये दोषी ठहराया जाता रहा है।

कॉलेजियम प्रणाली क्या है?

  • सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम एक पाँच सदस्यीय निकाय है, जिसका नेतृत्व निवर्तमान भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) करते हैं, जबकि सर्वोच्च न्यायालय के चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश इसमें शामिल होते हैं।
    • हाई कोर्ट कॉलेजियम का नेतृत्व उच्च न्यायालय के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश और उस न्यायालय के दो अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश करते हैं।
  • कॉलेजियम की पसंद या चयन के बारे में सरकार आपत्ति कर सकती है और स्पष्टीकरण भी मांग सकती है, लेकिन अगर कॉलेजियम पुनः उन्हीं नामों की अनुशंसा करे तो सरकार उन्हें ही न्यायाधीशों के रूप में नियुक्त करने के लिये बाध्य है।

न्यायाधीशों की नियुक्ति पर संविधान क्या कहता है?

  • संविधान के अनुच्छेद 124(2) और 217 क्रमशः सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में उपबंध करते हैं।
    • ये नियुक्तियाँ राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं जिसके लिये वह ‘‘उच्चतम न्यायालय के और राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श के पश्चात, जिनसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिये परामर्श करना आवश्यक समझे’’ की शर्त का पालन करता है।
  • लेकिन संविधान इन नियुक्तियों के लिये कोई प्रक्रिया निर्धारित नहीं करता है।

कॉलेजियम प्रणाली कैसे विकसित हुई?

  • ‘फर्स्ट जजेज केस’ (First Judges Case, 1981): एसपी गुप्ता बनाम भारत संघ (1981) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने बहुमत निर्णय से यह माना कि भारत के मुख्य न्यायाधीश की प्रधानता की अवधारणा वस्तुतः संविधान में निहित नहीं है।
    • संविधान पीठ ने यह भी माना कि अनुच्छेद 124 और 217 में प्रयुक्त ‘परामर्श’ (consultation) शब्द का अनिवार्य अभिप्राय ‘सहमति’ (concurrence) नहीं है।
      • इसका अर्थ यह है कि यद्यपि राष्ट्रपति नियुक्ति के लिये इन कार्यकारियों से परामर्श करेगा, लेकिन उसका निर्णय उन सभी के साथ सहमति में होने के लिये बाध्य नहीं था।
  • ‘सेकेंड जजेज केस’ (Second Judges Case, 1993): सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ (1993) मामले में 9-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 'एसपी गुप्ता' मामले के निर्णय को पलट दिया।
    • उन्होंने उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं स्थानांतरण के लिये ‘कॉलेजियम प्रणाली’ एक विशिष्ट प्रक्रिया प्रस्तुत की।
    • इसके साथ ही, CJI की भूमिका अपनी प्रकृति में मौलिक है क्योंकि यह न्यायिक परिवार के भीतर एक विषय है, लेकिन कार्यपालिका का इस मामले में समान हस्तक्षेप अधिकार नहीं हो सकता है।
  • ‘थर्ड जजेज केस’ (Third Judges Case, 1998): वर्ष 1998 में तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने ‘परामर्श’ शब्द के अर्थ को लेकर संविधान के अनुच्छेद 143 (सलाहकारी क्षेत्राधिकार) के तहत सर्वोच्च न्यायालय को एक ‘प्रेसिडेंशियल रेफरेंस’ जारी किया था।
    • प्रश्न यह था कि क्या ‘परामर्श’ में कई न्यायाधीशों के साथ परामर्श, जिससे भारत के मुख्य न्यायाधीश के मत का निर्माण होता हो, निहित है या केवल CJI का मत ही अपने आप में एक ‘परामर्श’ हो सकता है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना कि CJI और उनके चार वरिष्ठतम सहयोगियों द्वारा अनुशंसा की जानी चाहिये।

कॉलेजियम प्रणाली से संबंधित प्रमुख मुद्दे

  • कार्यपालिका का बहिष्करण: न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया से कार्यपालिका के पूर्ण बहिष्करण ने एक ऐसी प्रणाली का निर्माण किया है जहाँ कुछ न्यायाधीश पूर्ण गोपनीय तरीके से अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं।
    • इसके अलावा, वे किसी भी प्रशासनिक निकाय के प्रति जवाबदेह नहीं होते हैं जिसके कारण सही उम्मीदवार की अनदेखी करते हुए गलत उम्मीदवार का चयन किया जा सकता है।
  • पक्षपात और भाई-भतीजावाद की संभावना: कॉलेजियम प्रणाली CJI पद के उम्मीदवार के परीक्षण हेतु कोई विशिष्ट मानदंड प्रदान नहीं करती है, जिसके कारण यह पक्षपात एवं भाई-भतीजावाद (Favouritism and Nepotism) की व्यापक संभावना की ओर ले जाती है।
    • यह न्यायिक प्रणाली की गैर-पारदर्शिता को जन्म देती है, जो देश में विधि एवं व्यवस्था के विनियमन के लिये अत्यंत हानिकारक है।
  • नियंत्रण एवं संतुलन के सिद्धांत के विरुद्ध: इस प्रणाली में नियंत्रण एवं संतुलन के सिद्धांत (Principle of Checks and Balances) का उल्लंघन होता है। भारत में व्यवस्था के तीनों अंग—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका यूँ तो अंशतः स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं लेकिन वे किसी भी अंग की अत्यधिक शक्तियों पर नियंत्रण एवं संतुलन भी रखते हैं।
    • कॉलेजियम प्रणाली न्यायपालिका को अपार शक्ति प्रदान करती है, जो नियंत्रण का बहुत कम अवसर देती है और दुरुपयोग का खतरा उत्पन्न करती है।
  • ‘क्लोज-डोर मैकेनिज्म’: आलोचकों ने रेखांकित किया है कि इस प्रणाली में कोई आधिकारिक सचिवालय शामिल नहीं है। इसे एक ‘क्लोज्ड डोर अफेयर’ के रूप में देखा जाता है, जहाँ कॉलेजियम की कार्य प्रणाली और निर्णयन प्रक्रिया के बारे कोई सार्वजनिक सूचना उपलब्ध नहीं होती।
    • इसके अलावा कॉलेजियम की कार्यवाही का कोई आधिकारिक कार्यवृत्त भी दर्ज नहीं होता।
  • असमान प्रतिनिधित्व: चिंता का एक अन्य क्षेत्र उच्च न्यायपालिका की संरचना है, जहाँ महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम है।

आगे की राह

  • स्वतंत्रता और जवाबदेही बीच संतुलन: असल मुद्दा यह नहीं है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति कौन (न्यायपालिका या कार्यपालिका) करता है, बल्कि यह है कि उन्हें किस तरीके से नियुक्त किया जाता है।
    • इसके लिये, न्यायिक नियुक्ति आयोग (JAC) की संरचना चाहे जैसी भी हो, न्यायिक स्वतंत्रता और न्यायिक जवाबदेही के बीच संतुलन का निर्माण करना महत्त्वपूर्ण है।
      • नियुक्तियों में कार्यपालिका की भी भूमिका होनी चाहिये, लेकिन JAC की संरचना ऐसी होनी चाहिये कि इससे न्यायिक स्वतंत्रता से समझौता न हो।
  • न्यायपालिका के अंदर न्याय: यह सुनिश्चित करने का ध्यान रखा जाना चाहिये कि न्याय प्रदान करने हेतु न्यायालय का संस्थागत नियंत्रण (institutional imperative) न्यायपालिका के भीतर बना रहे, जहाँ न्यायाधीशों के चयन के लिये अवसर की समानता और निश्चित मानदंड हों।
  • NJAC की स्थापना पर पुनर्विचार: NJAC अधिनियम में संशोधन किया जा सकता है ताकि इसमें सुरक्षा उपायों को शामिल किया जा सके जो फिर इसे संवैधानिक रूप से वैध बना देगा। इसके साथ ही, न्यायिक नियुक्ति आयोग का पुनर्गठन इस प्रकार किया जा सकता है कि बहुमत नियंत्रण न्यायपालिका के पास बना रहे।
  • लिंग विविधता और प्रतिनिधिक न्यायपालिका: भारत में अब तक किसी भी महिला को भारत की मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त नहीं किया गया है। महिला न्यायाधीशों के रूप में अपने सदस्यों के एक निश्चित प्रतिशत के साथ उच्च न्यायपालिका में लिंग विविधता को बनाए रखने और बढ़ावा देने की आवश्यकता है, जो भारत को लिंग-तटस्थ न्यायिक प्रणाली के विकास की ओर ले जाएगी।
    • न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना सितंबर 2027 में भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बन सकती हैं, जो इस दिशा में एक स्वागतयोग्य कदम है।

अभ्यास प्रश्न: भारतीय कॉलेजियम प्रणाली के विकास और इससे संबद्ध प्रमुख मुद्दों की चर्चा कीजिये।

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रारंभिक परीक्षा

Q. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (वर्ष 2019)

  1. भारत के संविधान में 44वें संशोधन ने प्रधान मंत्री के चुनाव को न्यायिक समीक्षा से परे रखने वाला एक अनुच्छेद पेश किया।
  2. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता के उल्लंघन के रूप में भारत के संविधान में 99 वें संशोधन को रद्द कर दिया।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

 (A) केवल 1
 (B) केवल 2
 (C) दोनों 1 और 2
 (D) न तो 1 और न ही 2

 उत्तर: (B)


मुख्य परीक्षा

Q. भारत में उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (150 शब्द)


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