सार्क का पुन: प्रवर्तन
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में सार्क के पुन: प्रवर्तन की आवश्यकता व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ:
गौरतलब है कि पिछले छह वर्षों में (वर्ष 2014 के शिखर सम्मेलन के बाद से) दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (SAARC) देशों के शीर्ष नेताओं ने समूह की किसी बैठक में हिस्सा नहीं लिया। पाकिस्तान के साथ आतंकवाद और सीमा संबंधी मुद्दों पर भारत का विवाद तथा समूह के सदस्यों के बीच संपर्क एवं व्यापार को बढ़ावा देने वाली सार्क पहलों को अवरुद्ध करने में पाकिस्तान की भूमिका आदि कुछ ऐसे प्रमुख कारण रहे हैं जिसके कारण अपनी स्थापना के 36 वर्ष बाद भी सार्क एक निष्क्रिय संगठन सा प्रतीत होता है। हालाँकि भारत स्वयं को वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित करने की आकांक्षा रखता है, जिसके लिये इसे अपने पड़ोस को शांतिपूर्ण, समृद्ध बनाने के साथ ही इन देशों के बीच परस्पर सहयोग की भावना को मज़बूत करना चाहिये। इस संदर्भ में सार्क को पुनर्जीवित करना बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
सार्क को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता:
- क्षेत्रीय अलगाव: पिछले एक वर्ष में भारत-पाकिस्तान विवाद के मुद्दे ने भी सार्क की बैठकों को प्रभावित किया है। सदस्य देशों और अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के बीच व्यापार या अन्य गतिविधियों के दौरान दक्षिण एशिया के एक सामूहिक संगठन की बजाय इसका व्यवहार एक खंडित समूह के रूप में देखा गया है।
- विश्व में कोई भी अन्य क्षेत्रीय शक्ति अपने निकटवर्ती पड़ोस या देशों से इतनी अलग नहीं है, जितना कि दक्षिण एशिया में भारत है।
- यह अलगाव भारत के आर्थिक और सुरक्षा हितों के लिये भी एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है।
- COVID-19 का प्रभाव: वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था जैसे क्षेत्रों पर देखे गए नकारात्मक परिणामों के अलावा COVID-19 का एक दुष्प्रभाव यह भी रहा है कि इसके कारण देशों के बीच 'वैश्वीकरण' को लेकर अरुचि बढ़ी है, वहीं राष्ट्रवाद, आत्म-निर्भरता और स्थानीय आपूर्ति शृंखलाओं के लिये प्राथमिकता में भी वृद्धि हुई है।
- हालाँकि देशों के लिये वैश्विक बाज़ार से स्वयं को पूरी तरह से अलग करना असंभव होगा, परंतु यह क्षेत्रीय पहल वैश्वीकरण और अति-राष्ट्रवाद के बीच एक स्पष्ट विभाजन को निर्धारित करेगी।
- इसके अतिरिक्त इस महामारी के कारण उत्पन्न साझा चुनौतियों का मुकाबला करने के लिये भी सार्क समूह को पुनर्जीवित किया जाना बहुत महत्त्वपूर्ण है।
- विश्व बैंक (World Bank) की एक रिपोर्ट के अनुसार, अकेले इस महामारी के कारण ही दक्षिण एशियाई देशों को लगभग 10.77 मिलियन नौकरियों के साथ जीडीपी के संदर्भ में 52.32 बिलियन अमेरिकी डॉलर की क्षति होने का अनुमान है।
- चीन की चुनौती: वर्तमान में यह स्पष्ट है कि पाकिस्तान और नेपाल के साथ तनाव चीन से खतरे की धारणा को बढ़ाता है, जबकि अन्य सार्क सदस्य, जो सभी (भूटान को छोड़कर) चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) का हिस्सा हैं, को व्यक्तिगत रूप से सहायता पहुँचाना एक बड़ी चुनौती होगी।
- इसके अतिरिक्त वर्तमान महामारी के दौरान चीन द्वारा अपनी ‘हेल्थ सिल्क रोड’ (Health Silk Road) की पहल के तहत अधिकांश सार्क देशों को दवाइयाँ, व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (PPE) किट भेजने के साथ ही वैक्सीन उपलब्ध कराने का वादा किया गया है
- ऐसे में चीन की चुनौती (भारत की सीमा और उसके पड़ोस में) से निपटने के लिये एक एकीकृत दक्षिण एशियाई मंच भारत का सबसे शक्तिशाली प्रतिवादी बना हुआ है।
आगे की राह:
- पाकिस्तान के साथ वार्ता: लद्दाख में चीन की घुसपैठ की घटना ने भारत को शंघाई सहयोग संगठन (SCO), रूस-भारत-चीन (Russia-India-China- RIC) त्रिपक्षीय समूह, G-20 में चीनी नेतृत्व के साथ बैठकों में शामिल होने से नहीं रोका।
- यह सही नहीं है कि भारत इसी तर्क (पाकिस्तानी घुसपैठ) का प्रयोग पाकिस्तान के साथ वार्ताओं को रद्द करने के लिये करता है।
- भारत को समझना चाहिये कि सार्क को पुनर्जीवित करने के लिये पाकिस्तान के साथ वार्ताओं को जारी रखना बहुत महत्त्वपूर्ण है।
- यह सही नहीं है कि भारत इसी तर्क (पाकिस्तानी घुसपैठ) का प्रयोग पाकिस्तान के साथ वार्ताओं को रद्द करने के लिये करता है।
- गुजराल सिद्धांत का अनुप्रयोग: भारत द्वारा अपने निकटवर्ती पड़ोसियों के साथ संबंधों के संचालन को गुजराल सिद्धांत/डॉक्ट्रिन (Gujral Doctrine) द्वारा निर्देशित किया जाना चाहिये।
- वर्तमान COVID-19 महामारी के संदर्भ में भारत सार्क देशों के साथ वैक्सीन कूटनीति अपनाकर गुजराल सिद्धांत लागू कर सकता है, जिसके तहत भारत या तो मुफ्त में या वहनीय लागत पर इन देशों को COVID-19 वैक्सीन की आपूर्ति कर सकता है।
- समग्र दक्षिण एशिया दृष्टिकोण: दक्षिण एशियाई देशों को विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित साझा मानकों को निर्धारित करने और नौकरी, स्वास्थ्य एवं खाद्य सुरक्षा हेतु एक अधिक अंतर-क्षेत्रीय, अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिये सामूहिक रूप से काम करने की आवश्यकता है।
- इस संदर्भ में भारत क्षेत्रीय एकीकरण के यूरोपीय मॉडल का अनुसरण कर सकता है।
- इसके अतिरिक्त भारत अपने पड़ोसी देशों के छात्रों के लिये शिक्षा के केंद्र के रूप में अपनी स्थिति को मज़बूत कर सकता है। यह पहल राजनीतिक संबंधों की घनिष्ठता बढ़ाने के साथ ही आसपास के क्षेत्र में भारत के सांस्कृतिक प्रभावों और मूल्यों के प्रचार-प्रसार में सहायक होगा।
- क्षेत्रीय विकास: दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के नाते भारत इस क्षेत्र में कनेक्टिविटी को बेहतर बनाने के लिये बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं की शुरुआत कर सकता है, जिसमें नई पाइपलाइनों व बिजली नेटवर्क का निर्माण, बंदरगाह, रेल और हवाई अड्डे के बुनियादी ढाँचों को अपग्रेड करना तथा नागरिक संपर्क को मज़बूत करना आदि शामिल हैं।
निष्कर्ष:
वर्तमान में भारत को ऐसा दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है जिसके तहत वह अपने दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों के साथ साझा भविष्य की परिकल्पना करते हुए उन्हें वैश्विक मंच पर भारत की महत्त्वाकांक्षाओं के लिये एक उत्प्रेरक शक्ति के रूप में कार्य करता हुआ देख सके।
अभ्यास प्रश्न: भारत को वैश्विक मंच पर अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये अपने दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के साथ मिलकर साझा हितों पर कार्य करना होगा। इस कथन के संदर्भ में सार्क समूह के पुन: प्रवर्तन की आवश्यकता पर चर्चा कीजिये।