शासन व्यवस्था
शहरी विकास को नया आकार
यह एडिटोरियल 09/12/2021 को ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में प्रकाशित “It’s Time to Revisit, Rethink, Reshape Indian Cities” लेख पर आधारित है। इसमें शहरों के विकास के महत्त्व और अनियोजित विकास, खराब भूमि उपयोग एवं शहरी स्थानीय निकायों से संबंधित समस्याओं के संबंध में चर्चा की गई है।
संदर्भ
भारत लगभग दो दशकों से विश्व की सबसे तेज़ी से विकास करती अर्थव्यवस्थाओं में से एक रहा है और वर्ष 2047- स्वतंत्रता के 100वें वर्ष में विश्व की शीर्ष तीन सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होने की महत्त्वाकांक्षा रखता है।
भारत के इस आर्थिक विकास में इसके शहरों की प्रमुख भूमिका रही है। भारत के शहर देश के आर्थिक ‘पावरहाउस’ माने जाते हैं और बेहतर जीवन की चाह रखने वाली एक बड़ी ग्रामीण आबादी के लिये चुंबक की तरह कार्य करते हैं। हाल के कुछ वर्षों में, विशेष रूप से शहरों और शहरी निवासियों के विकास के लिये कई योजनाएँ शुरू की गई हैं।
हालाँकि शहरों के विकास के लिये किये गए प्रयासों के संदर्भ में प्राप्त परिणाम निराशाजनक ही रहे हैं। इसका प्रमुख ज़िम्मेदार खराब योजना-निर्माण, अवसंरचनात्मक कमियों और शहरी स्थानीय निकायों (Urban Local Bodies- ULB) की बदतर स्थिति को ठहराया जा सकता है।
भारत में शहरी विकास
- शहरीकरण की गति: वर्ष 2019 में राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग (National Commission on Population) ने अनुमान लगाया कि 2011-2036 के दौरान भारत की जनसंख्या 1,211 मिलियन से बढ़कर 1,518 मिलियन हो जाएगी। माना जाता है कि जनसंख्या में 73% से अधिक वृद्धि के लिये शहरी विकास का प्रमुख योगदान होगा।
- संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक भारत में 50% शहरीकरण हो जाएगा।
- अर्थव्यवस्था में शहरी भारत का योगदान: शहर देश की केवल 3% भूमि की हिस्सेदारी रखते हैं, लेकिन सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 70% से अधिक का योगदान करते हैं जो उनकी उच्चस्तरीय आर्थिक उत्पादकता को रेखांकित करता है।
- शहरी विकास के लिये सरकार की पहल: सरकार ने प्रत्येक घर को बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करने और शहरी समस्याओं के समाधान के लिये प्रौद्योगिकी सक्षमता हेतु कई पहल शुरू की हैं। इनमें से कुछ प्रमुख पहलें हैं:
- शहरी विकास से संबंधित योजनाएँ/कार्यक्रम:
- मलिन बस्तियों में रहने वालों/शहरी गरीबों के लिये सरकार की पहल:
शहरों के विकास के मार्ग की चुनौतियाँ
- शहर-केंद्रित समस्याएँ: वायु प्रदूषण, शहरी बाढ़ और सूखा जैसी कई शहर-केंद्रित समस्याएँ शहरी भारत के समग्र विकास में प्रमुख बाधाओं के रूप में मौजूद हैं, जो अवसंरचनात्मक कमियों एवं अपर्याप्त योजनाबद्धता को सूचित करते हैं।
- भूमि-उपयोग निर्णय प्रायः उन परिणामों के पर्याप्त अनुभवजन्य मूल्यांकन के बिना ले लिये जाते हैं, जो स्थानीय पारिस्थितिकी को और इसके परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था को बाधित करते हैं।
- शहरी क्षेत्रों का अनुचित वर्गीकरण: भारत में ‘शहरी’ (Urban) और ‘ग्रामीण’ (Rural) क्षेत्रों को परिभाषित करने के मापदंड/मानक बुनियादी रूप से चुनौतीपूर्ण हैं।
- शहरी क्षेत्र के रूप में गिने जाने वाले 7,933 शहरों में से लगभग आधे को जनगणना कस्बों (Census Towns) का दर्जा प्राप्त है और वे ग्रामीण निकायों के रूप में शासित किये जा रहे हैं, जो अनियोजित शहरीकरण की भेद्यता में वृद्धि ही करता है।
- सांविधिक कस्बों का अनियोजित विकास: यहाँ तक कि वे शहरी बस्तियाँ भी जिन्हें ‘सांविधिक कस्बा’ (Statutory Towns) का दर्जा प्राप्त है, अनिवार्य रूप से योजनाबद्ध तरीके से ही विकसित नहीं किये जा रहे हैं। भारत में लगभग 52% सांविधिक कस्बों के पास किसी भी तरह का ‘मास्टर प्लान’ नहीं है।
- नियोजित/योजनाबद्ध विकास का अधिकांश ध्यान महानगरीय शहरों (क्लास 1 टाउन) पर केंद्रित है।
- छोटे एवं मध्यम आकार के शहर (क्लास 2, 3 और 4 टाउन), जो देश की कुल आबादी के 26% को आश्रय देते हैं, पर भी यदि अधिक नहीं तो कम-से-कम समान स्तर का ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।
- शहरी स्थानीय निकायों के समक्ष विद्यमान समस्याएँ: ULBs के पास अपनी संपत्तियों के मूल्य की पूरी जानकारी का अभाव है।
- एक प्रमुख समस्या यह भी है कि नवोन्मेषी उपायों के माध्यम से अपनी वित्तीय सीमाओं को दूर करने के लिये ULBs के पास पर्याप्त क्षमता की कमी है।
- वे रेट और कवरेज के मामले में पर्याप्त संपत्ति कर एकत्र करने में भी अक्षम बने रहे हैं।
- शहरी परिवहन की समस्याएँ: भारत में जनसंख्या-बसों की उपलब्धता का अनुपात प्रति 1,000 लोगों पर 1.2 है, जो थाईलैंड में 8.6 और दक्षिण अफ्रीका में 6.5 की तुलना में पर्याप्त कम ही माना जा सकता है।
- राज्य सरकारें, जो शहरी विकास पर प्रभावी नियंत्रण रखती हैं, परिवहन को विनियमित करने के लिये समग्र प्राधिकरणों के कार्यान्वयन में विफल रही हैं।
- मौजूदा प्रतिमान बहुसंख्यक आबादी के लिये मेट्रो और बस सेवाओं को महँगा बनाते हैं, विशेष रूप से उन लोगों के लिये जो आवास की लागत के कारण मुख्य शहर के बाहर उपनगरों में रहने को विवश हैं।
आगे की राह
- समावेशी शहरी विकास के लिये एकीकरण: बढ़ी हुई महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये केंद्र सरकार को राज्य सरकारों के साथ मिलकर कार्य करने की आवश्यकता है, ताकि सस्ते आंतरिक-शहर आवास (रेंटल प्रोजेक्ट, नागरिक सेवाओं और स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच सहित), वर्द्धित संवहनीयता और हरियाली आदि को परिवहन दृष्टिकोण के साथ एकीकृत किया जा सके।
- ये सभी विषय शहरों के लिये केंद्रीय बजटीय योजनाओं के अंतर्गत शामिल हैं। यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि एकीकरण के माध्यम से ही समावेशी शहरीकरण सुनिश्चित किया जा सकता है।
- शहरी विकास दृष्टिकोण पर पुनर्विचार: सतत् विकास लक्ष्यों और संयुक्त राष्ट्र शहरी एजेंडा की पूर्ति के लिये सरकार को देश की बस्तियों और उनके बीच संपर्क तंत्र की योजनाबद्धता और प्रबंधन के तरीके पर पुनर्विचार करने और इन्हें नया रूप देने की आवश्यकता होगी।
- शहरों को बाज़ार के रूप में, कई संस्कृतियों के मिलन स्थल के रूप में एवं रोज़गार अवसरों के सृजक के रूप में देखा जाना चाहिये और इसके साथ ही, उनके भीतर एवं आसपास के प्राकृतिक वातावरण को संरक्षित करने की भी आवश्यकता है।
- योजनागत और अवसंरचनात्मक कमियों को दूर करना: देश में क्षमता निर्माण की आवश्यकता है, ताकि शहर शहरीकरण के लाभ प्राप्त कर सकें और 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था निर्माण के लिये आवश्यक आर्थिक गति का सृजन कर सकें।
- इसके लिये कई चक्रों को तोड़े जाने और शहरी नियोजन, प्रबंधन एवं वित्त में सुधार लाये जाने की आवश्यकता है।
- इसके साथ ही, इन संरचनाओं को लागत-कुशल सार्वजनिक परिवहन अवसंरचना के आधार पर बनाया जाना चाहिये, जो अंतिम-दूरी संपर्क को सुनिश्चित करता है।
- स्टार्टअप और प्रौद्योगिकी की भूमिका: शहरी भारत के जैविक विकास और संस्कृति से अच्छी तरह अवगत घरेलू निजी क्षेत्र की कंपनियों को भारतीय प्रतिभा के उपयोग से भारत के लिये समाधानों के सृजन हेतु संपोषित और संघटित करने की आवश्यकता है।
- नवाचारों और शहरी सरोकारों के बीच की खाई को सावधानीपूर्वक पाटने के लिये स्टार्टअप्स को संरक्षित और प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।
- एकीकृत योजनाबद्धता सुनिश्चित करने के लिये शहरी नियोजन शिक्षा में प्रौद्योगिकी को मुख्य आधार बनाने की आवश्यकता है।
- नागरिकों की भागीदारी: शहर-निर्माण में नागरिकों को हितधारक बनाया जाना चाहिये, जहाँ शहर नियोजन प्रक्रियाओं के संबंध में जागरूकता कार्यक्रमों के माध्यम से उन्हें और उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों को प्रशिक्षित किया जाए।
- शहरों में निवास करने वाले लोगों को भी प्रबुद्ध एवं जागरूक होना चाहिये कि शहरों को किस प्रकार संवहनीय वास-योग्य और समावेशी बनाया जाए।
- राज्य सरकारों की भूमिका: राज्य सरकारों को एक ‘राज्य शहरीकरण रणनीति’ विकसित करनी चाहिये, जो उद्योग एवं पर्यटन से लेकर कृषि एवं पर्यावरण तक सभी क्षेत्रीय नीतियों की अनिवार्यताओं को एकबद्ध कर दे।
- जब तक यह एकीकरण नहीं होगा, स्थानिक और आर्थिक नीति के बीच सामंजस्य कायम नहीं हो सकेगा।
निष्कर्ष
शहर निरंतर विकास से गुज़रते रहते हैं; वे न केवल आर्थिक विकास के चालक हैं, बल्कि वैश्विक ज्ञान के आदान-प्रदान और नवाचार अवसरों के लिये चुंबक की तरह भी होते हैं। उन्हें अपने उद्देश्य की पूर्ति में सक्षम बनाने के लिये, शहरों के नियोजन को (जिसमें भूमि-उपयोग, आवास, परिवहन जैसे विभिन्न घटक शामिल हैं) को नया रूप देना महत्त्वपूर्ण है।
अभ्यास प्रश्न: भारत के आर्थिक विकास में शहरों के महत्त्व का वर्णन कीजिये और शहरों के विकास से संबद्ध चुनौतियों की चर्चा कीजिये।